वेद मंत्रों से होता है 5000 कंडों का निर्माण, उज्जैन में जलाई जाती है ये अनोखी होली जाने क्या है इसके पीछे की कहानी

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By Pallavi SharmaPublished On: March 4, 2023

हमारे देश में होली का त्योहार बड़ी ही धूमधाम से मनाया जाता है. देश के हर वर्ग और क्षेत्र में अलग-अलग परंपराओं के अनुसार इस पर्व को मनाया जाता है. रंगों के उत्सव होली से पहले होलिका दहन करने और पूजन पाठ करने की परंपरा प्राचीन समय से चली आ रही है. बाबा महाकाल की नगरी उज्जैन में होली का त्योहार सबसे पहले मनाया जाता है. विश्व भर मे सबसे पहले महाकाल के आंगन में रंग गुलाल उड़ता है. यहीं के सिंहपुरी क्षेत्र में विश्व की सबसे अनूठी वैदिक होलिका बनाई जाती है. जिसे देखने के लिए दूर-दूर से लोग पहुंचते हैं. इस बार भी 7 मार्च 2023 को 5,000 कंडों से होलिका बनाई जाएगी. फाल्गुन पूर्णिमा पर 6 मार्च को सिंहपुरी में विश्व की अनूठी व सबसे बड़ी वैदिक होली बनाई जाएगी। होली में 5 से 7 हजार ओपले अर्थात कंडों का उपयोग होगा।

सिंहपुरी में रहने वाले ब्राह्मण की मण्डली गुरु मंडली के नाम से जानी जाती है, जो की होलिका दहन करती है यही मंडली वेद मंत्रों के माध्यम से कंडे बनाती हैं. फिर इन्हीं कंडो के जरिए होलिका तैयार की जाती है जिसमें 5,000 कंडो से ओपले उपयोग किए जाते हैं. इस होलिका को पूरी तरह से कंडो से ही तैयार किया जाता है और इस पर रंग गुलाल की सजावट की जाती है. इसके बाद प्रदोष काल में चारों वेदों के ब्राह्मण मिलकर अलग-अलग मंत्रों से होलिका का पूजन करते हैं. बड़ी संख्या में महिलाएं यहां पर पूजन अर्चन करने के लिए पहुंचती हैं और फिर चकमक पत्थरों से होलिका दहन किया गया.

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वेद मंत्रों से होता है कंडो का निर्माण

सिंहपुरी मे जलाई जाने वाली इस होलिका की परंपरा बहुत ही प्राचीन है. कई शताब्दियों से यहां पर वैदिक ब्राह्मणों जिसमें सभी शाखाएं यजुर्वेद, ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद के माध्यम से कंडो का निर्माण किया जा रहा है. इस परंपरा का निर्वहन अपनी मनोकामना को पूरा करने के लिए किया जाता है और वैदिक मंत्रों के माध्यम से तैयार किए गए ओपालो को होलिका मे स्थापित किया जाता है.

परंपरा में इनकी मान्यता

भारतीय संस्कृति में मनीषियों ने हजारों साल पहले इस बात को सिद्ध कर दिया था कि पंच तत्वों की शुद्धि के लिए गोबर का विशेष रुप से उपयोग होता है. यही परंपरा यहां तीन हजार साल से स्थापित है. सिंहपुरी की होली का उल्लेश श्रुत परंपरा के साहित्य में तीन हजार साल पुराना है. धार्मिक मान्यता के अनुसार सिंहपुरी की होली में सम्मिलित होने के लिए राजा भर्तृहरि आते थे. यह काल खंड ढाई हजार साल पुराना है.

प्रहृलाद स्वरूप लगाई ध्वजा नहीं जलती

पं. यशवंत व्यास ने बताया सिंहपुरी की होली विश्व में सबसे प्राचीन और बड़ी है. पीढ़ी दर पीढ़ी इसकी कथाएं सिंहपुरी के रहवासियों को जानने को मिली है. राजा भर्तृहरि भी यहां होलिका दहन पर आते थे. पांच हजार कंडों से 50 फीट से भी ऊंची होलिका तैयार की जाती है. होलिका के ऊपर लाल रंग की एक ध्वजा भी भक्त प्रहृलाद के स्वरूप में लगाई जाती है. यह ध्वजा जलती नहीं है. जिस दिशा में यह ध्वजा गिरती है, उसके आधार पर ज्योतिष मौसम, राजनीति और देश के भविष्य की गणना करते हैं. धर्माधिकारी पं. उपाध्याय ने होलिका दहन करने वाले अन्य संगठनों व समितियों के पदाधिकारियों से भी पर्यावरण संरक्षण और संवर्धन के लिए पेड़ों की लकड़ियों का प्रयोग नहीं करने की पहल शुरू की है.

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