चाहते बड़ी थीं
हिस्से का आसमाँ छोटा
बहुत चाहा
समेट लूँ हसरतों को
बिखरने से पहले
क्योंकि हकीकत की
ज़मी बहुत ही
पथरीली है
वो नहीं देखती
कोमल भाव या
आँखों के कोर को
हाँ समेट जरूर लेती है
अपनी खुरदरी
आँचल में ।
और फिर
एक पुख्ता आसरा
मिल जाता है टूटती
चाहतों को
एक बार फिर वो
तैयार होती है
नई जमीन पर पनपने
के लिए
और फिर वज़ह मिल
जाती है जिंदगी को
जीने के लिए।
डॉ श्वेता दीप्ति
काठमांडू, नेपाल