लोकतान्त्रिक अनुष्ठान के खिसकते आधार

Author Picture
By Ayushi JainPublished On: February 24, 2021

राजेश बादल

पाँच प्रदेशों में अगली विधानसभा के लिए चुनाव की तारीख़ों का ऐलान अब दूर नहीं है। वैसे भी पन्ने पलटकर पिछले निर्वाचन का कार्यक्रम देख लिया जाए तो उसमें कोई अधिक अंतर नहीं रहने वाला है। अलबत्ता औसत मतदाता के मन में साल दर साल इस लोकतान्त्रिक अनुष्ठान के बारे में जड़ता और उदासीनता विकराल होती जा रही है।किसी क़िस्म का रचनात्मक उत्साह या गणतांत्रिक कर्तव्य निभाने की ईमानदार नीयत कहीं हाशिए पर चली गई है।

राज्यों में सत्तानशीन सियासी पार्टियों को छोड़ दें तो अन्य राजनीतिक दलों की आंतरिक प्रतिबद्धता में बिखराव साफ़ साफ़ महसूस किया जा सकता है।वे एक दूसरे से मछलियों की तरह व्यवहार करती नज़र आती हैं। बड़ी मछली छोटी को निगल लेना चाहती है।इससे धड़कनें कमज़ोर पड़ी हैं। तंत्र एक मशीनी पुर्ज़े की तरह व्यवहार कर रहा है ,जिसमें लोक की भूमिका सिकुड़ती जा रही है।पुड्डुचेरी का राजनीतिक घटनाक्रम उबासियाँ लेते हुए कुछ ऐसा ही सन्देश देता दिखाई दे रहा है।

सवाल पूछा जा सकता है कि अगले चुनाव के मुहाने पर खड़े इस छोटे से ख़ूबसूरत राज्य की सरकार अचानक गिरने से भारतीय लोकतंत्र किस तरह मज़बूत होता है ? उन विधायकों के चुनाव से ठीक पहले अपने दल की सरकार और पार्टी छोड़ जाने से किसका लाभ है ? इसके पीछे कुछ बातें स्पष्ट हैं। एक तो अपनी पार्टी के बैनर तले अगली बार चुनाव मैदान में उतरने को मिलेगा – यह गारंटी नहीं है और दूसरा यह कि किसी अन्य दल का टिकट इतना आकर्षित कर रहा है कि वह जीत दिलाने के लिए पर्याप्त हो।

तीसरा कारण यह भी हो सकता है कि पाँच साल के कामकाज के आधार पर नकारात्मक मतों से बचने के लिए खोजा गया उपाय हो।पुड्डुचेरी विधानसभा के आगामी चुनाव में यह समीकरण एकदम साफ़ है कि चुनाव दर चुनाव कांग्रेस के लिए सत्ता में वापस लौटना बेहद कठिन होता जा रहा है। चौथी वजह यह भी हो सकती है कि विपक्षी पार्टी ने इतना अधिक आर्थिक प्रलोभन दिया हो कि उसे जीतने अथवा हारने से कोई फ़र्क़ ही न पड़े।इस राजनीतिक बुराई का लाभ उस दल को मिलता है ,जो विधायकों को अपने पाले में ले जाती है।

सत्ताधारी पार्टी को कमज़ोर करने के लिए इन दिनों यह सबसे कारग़र औज़ार सिद्ध हुआ है। हाल के वर्षों में विधायकों की इस तरह ख़रीद फ़रोख़्त के आरोप पक्ष-प्रतिपक्ष एक दूसरे पर लगाते रहे हैं।उनमें सचाई भी है।मुद्दे की बात यह है कि इससे विपक्षी पार्टी और उस विधायक को फायदा तो हो जाता है लेकिन संवैधानिक ढाँचे और जम्हूरियत को भारी नुकसान होता है।उस क्षति की कोई भरपाई संभव नहीं होती।

एक साल में कांग्रेस को यह दूसरा झटका लगा है। पिछले साल मध्यप्रदेश की कमलनाथ सरकार गिराई गई। इसके बाद राजस्थान में भी उसी तरीक़े को आज़माया गया। उस समय मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की चुस्ती और आक्रामक रणनीति के चलते सरकार तो बच गई, पर उनका ख़तरा अभी टला नहीं है।राजस्थान की सीमा से सटे मध्यप्रदेश के सिंधिया परिवार के प्रभाव क्षेत्र वाले इलाक़े के अनेक विधायक एक दूसरे के संपर्क में हैं।सियासी शिकस्त से बौखलाई भारतीय जनता पार्टी जब तक राजस्थान में सरकार नहीं बना लेती ,तब तक चैन से बैठने वाली नहीं है।

इस बीच उसने पुड्डुचेरी की नारायण सामी सरकार का शिकार कर लिया।इससे पहले बंगाल, असम कर्नाटक ,गुजरात, हरियाणा, बिहार ,गोवा और अरुणाचल जैसे अनेक राज्यों में भारतीय राजनीति इन लोकतान्त्रिक हादसों का नमूना पेश करती रही है। आयाराम – गयाराम शैली एक दौर में भारत के लोकतंत्र को इतना नुकसान पहुँचाने लगी थी कि राजीव गांधी की हुक़ूमत को सख़्त क़ानून बनाना पड़ा था।अब इस क़ानून की भावना का मख़ौल उड़ाया जा रहा है।पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों इसके लिए ज़िम्मेदार हैं।अपने सियासी मंसूबों की पूर्ति के लिए वे उसी डाल को काट रहे हैं ,जिस पर बैठे हैं।

भारतीय जनता पार्टी को इस आयाराम से फ़ायदा हो रहा है ,इसलिए उसके शिखर पुरुष इस जनतांत्रिक क्षरण के बारे में उदासीन या असंवेदनशील हो सकते हैं। लेकिन दुखद यह है कि जिस कांग्रेस पार्टी को इस गयाराम से इतने आघात लग रहे हैं ,वह भी अपना घर ठीक नहीं करना चाहती। पार्टी की विचारधारा दुर्बल होती जा रही है ,कार्यकर्ता और नेता साथ छोड़ते जा रहे हैं ,उसकी चुनी हुई सरकारें एक के बाद एक धराशायी होती जा रही हैं और स्वतंत्रता संग्राम की विरासत लेकर चल रहे इस प्राचीन दल के माथे पर कोई शिकन नहीं दिखाई देती।

दशकों से उसका सदस्यता अभियान निष्क्रिय है। ज़िलों में कार्यकर्त्ता सम्मेलन न के बराबर हो रहे हैं। विचारधारा को स्थानीय स्तर तक मज़बूती से पहुँचाने का काम सुसुप्तावस्था में है और सामूहिक नेतृत्व की भावना विलुप्त हो गई है।यह मतदाताओं और लोकतंत्र के साथ एक तरह से अन्याय है।वे ख़ुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। जिस पार्टी ने पचास बरस हिन्दुस्तान में सरकार चलाई हो उसके चरित्र और स्वभाव में यह परिवर्तन चौंकाने वाला है।

कोई भी ज़िम्मेदार जम्हूरियत तब तक ताक़तवर नहीं होती ,जब तक विपक्ष निर्बल रहेगा। पक्ष याने सरकार चलाने वाला दल तो यही चाहेगा कि उसके सामने की बेंचें हमेशा ख़ाली रहें।लेकिन कोई विपक्ष भी अगर ऐसा ही चाहने लगे तो क्या किया जा सकता है। कांग्रेस पर यह ज़िम्मेदारी आ पड़ी है कि वह सियासी संतुलन को बनाए रखने के लिए अपना घर ठीक करे।अगर अमेरिकी लोकतंत्र पर सारी दुनिया की नज़र रहती है तो भारत को भी उतनी ही गंभीरता से लिया जाता है।