मंगलेश डबराल : बचे हुए ‘आसपास’ का भी चुपचाप ग़ुम हो जाना !

Shivani Rathore
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श्रवण गर्ग

खबर जिस क्षण से प्राप्त हुई है ,मन बार-बार मंगलेश डबराल के मुस्कुराते हुए चेहरे की ही अपनी स्मृतियों के बियाबान में तलाश कर रहा है।बहुत ही मुश्किल काम है यह।कोई साढ़े चार दशक पीछे लौटना और जो छूट गया है उसे नए सिरे से बटोरना।वक्त और उम्र के साथ बहुत सारी चीजें यादों में धुंधली पड़ जाती हैं।पैंटिंग्स के गहरे रंग भी एक वक्त के बाद अपनी सतह छोड़ने लगते हैं।कविताओं के साथ ऐसा नहीं होता।वे लगातार क़ायम भी रहती हैं और पीछा भी करती रहती हैं।मंगलेश जी कवि थे।

मैं मंगलेश जी का चेहरा टटोल रहा था दिल्ली में बहादुर शाह ज़फ़र मार्ग स्थित उस जमाने के इंडियन एक्सप्रेस की इमारत में ग्राउंड फ़्लोर के विशाल सम्पादकीय कक्ष में जहां एक साथ तीन प्रकाशनों की सम्पादकीय टीमें बैठा करतीं थीं।उसी हाल में लाइब्रेरी के ऊँचे-ऊँचे काँच लगी दीवार से सटे एक कोने में बेतरतीब तरीक़े से पसरी हुई कुर्सी-टेबलों के इर्द-गिर्द बैठे चेहरों के बीच चुपचाप से काम करता हुआ एक चेहरा मंगलेश डबराल का भी हुआ करता था।

याददाश्त अगर दुरुस्त है तो शाम के ढलते ही (शायद)असग़र वजाहत (‘सात आसमान’ और ‘जिन लाहौर नहीं वेख्या ओ जन्मयाई नई’ जैसी महान रचनाओं के रचयिता ) या असद ज़ैदी या उनका कोई पहाड़ी रचनाकार मित्र मंगलेश जी को ढूँढते हुए आ जाता था और गलियारे के पार्टिशन से सटकर खड़ा हो जाता था।यह लगभग रोज़ाना का ही सिलसिला बन गया था।हम सब लोग (मंगलेश जी, मैं, अनुपम मिश्र, उदयन शर्मा ,ओम् प्रकाश, जयंत मेहता ,आदि) ‘प्रजानीति’ साप्ताहिक के ‘आपातकाल’ के कारण बंद हो जाने के बाद प्रभाष जोशी जी के ही नेतृत्व में प्रारम्भ हुए ‘आसपास’ साप्ताहिक का हिस्सा थे।

मंगलेश जी की एक अलग ही दुनिया और रचना का संसार था।वे हम लोगों के बीच उपस्थित होते हुए भी कहीं और खो जाने की ही प्रतीक्षा करते रहते थे।उनका व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा था कि बिना कोई हल्ला मचाए हॉल में प्रवेश कर जाते थे और पता भी नहीं चलने देते थे कि कब अपना काम पूरा करके अपने मन की दुनिया में वापस चले भी गए अगली दोपहर फिर लौटने के लिए।

मंगलेश जी के कई मित्र थे जो उनके कारण हमारे भी दोस्त बन गए थे। उन सभी मित्रों के चेहरे भी एक-एक करके मंगलेश जी की छवि के साथ याद आ रहे हैं और महसूस हो रहा है कि पीछे जो छूट गया है वह कितना अथाह था।मंगलेश जी कभी इंडियन एक्सप्रेस बिल्डिंग के बाहर या ग्रीन पार्क के बस स्टैंड पर या फिर कनाट प्लेस में कॉफ़ी हाउस की छत पर मित्रों के साथ टकरा जाते थे।’आसपास’ साप्ताहिक मंगलेश जी के अद्भुत व्यक्तित्व और उनमें छुपी हुई असीमित प्रतिभा से अलग एक प्रकाशन था।

मुझे कई बार यह भी लगता था कि जैसी अनौपचारिक सुरक्षा मंगलेश जी को ‘प्रतिपक्ष’ जैसे संघर्षशील और प्रगतिशील प्रकाशन में प्राप्त हुई होगी वैसी बाद के वर्षों में कम ही मिली होगी।’प्रतिपक्ष’ में तब काम करनेवाले सभी लोगों के बारे में ऐसा कहा जा सकता है।मंगलेश जी शायद इसीलिए लगातार अलग-अलग जगहों पर अपने मन की कोई जगह तलाश करते रहे।

मंगलेश जी मुझसे ठीक एक वर्ष छोटे थे और ख़ूब सम्मान और प्रेम देते थे।हमारे कई मित्र कॉमन थे।कंधे पर (शायद) झोला लटकाए हुए ‘आसपास’ के दफ़्तर में आने वालों में तब दो ही ख़ास लोग थे—अनुपम और मंगलेश जी।दोनों ही चले गए।प्रभाष जी तो और भी पहले चले गए थे।’आसपास’ टीम के लोगों में जाने वालों में उदयन सबसे पहले दोस्त थे। देर रात का वक्त है और कोरोना से डरने का सबसे ज़्यादा मन कर रहा है। मंगलेश जी की स्मृति को विनम्र श्रद्धांजलि ।