अष्ट चंग पे

Akanksha
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        अनिल त्रिवेदी

बाल जीवन के आनन्द और कल्पनाशीलता का कोई ओर छोर नही है।भारत और एशिया के बच्चों के खेल कूद की सादगी और कल्पनाशीलता का कोई सानी नहीं है।अष्ट चंग पे ये कोई चीनी साम्राज्य के पुराने राजा का नाम नहीं है। ये नाम है पुरानी पीढ़ी के भारत और एशिया के कई देशों के असंख्य बच्चों में अति लोकप्रिय खेल का।इस खेल ने भारत ही नही एशिया के कई देशों के बच्चों को कई पीढ़ीयों तक मिलजुलकर खेलने का पाठ पढ़ाया।अष्ट चंग पे ये हिन्दी नाम है।इसका अर्थ है।आठ चार एक इस खेल ने बच्चों को मिलजुलकर बैठे बैठे खेल का आनन्द लेते हुए जीते रहने का पाठ सिखाया है।इमली के दो बीजों को खड़ा कर पत्थर के एक छोटे से टुकड़े से सीधी पर तेज चोट से दो हिस्सों में बांटने की कला छोटे छोटे बच्चों के खेल को शुरू करने की पहली चुनौती होती थी।पहली ही चोट में दो हिस्से में इमली के बीज याने चीये का दो हिस्से में विभाजित हो जाना बाल खिलाड़ी की पहली उपलब्धि हुआ करती थीऔर अपनी इस सफलता पर वह बालक फूला नहीं समाता था।यदि ऐसा नहीं हो पाया तो खेलनेवाले सारे बच्चे नहीं फूटी नहीं फूटी का ऐसा हल्ला मचाते की कुछ पूछो ही मत।खेल के दौरान हल्लागुल्ला और हंसी ठठ्टा नहों तो बच्चे खेले ही क्या! धरती पर फैली चीजें और मनुष्य की सोच समझ और विचारशीलता ने कई खेल गतिविधियों को जन्म दिया।
मनुष्य स्वयं अपने निजी और सामुहिक आनन्द का जन्मदाता हैं।जीवन आनन्द में बाहरी साधनों का प्रवेश या परावलम्बन तो बाजार की सभ्यता के उदय के बाद का हैं।मानव सभ्यता के प्रारम्भ से ही मानव समूहों ने अपने अपने तरीकों से कई खेलों को खोज कर विकसित किया जो वैश्विक स्तर पर भी लोकजीवन में अपना स्थान रखते हैं।मनुष्य और धरती इन दोनों मूलभूत आधारों से ही खेल कूद ही नहीं जीवन की अंतहीन सृजनशीलता का विकास हुआ है।बिना पैसे और बिना बाजार जीवन को कितना खिलखिलाहटभरा मौंज मस्तीपूर्ण और गतिविधिवान बनाया जा सकता हैं यह मनुष्य मन का एक रोमांचक आयाम हैं।आज की आधुनिक तथाकथित विकसित दुनिया के मनुष्य साधन या पैसे के अभाव मात्र से गतिविधिहीन हो चले हैं।जीवन में गतिविधियों का जन्म बैठे बैठे और अभावों को रोते रहने से नहीं होता।एक पीढी से दूसरी पीढी के पास आनन्द और सृजनशीलता का प्रवाह पहुंचना जब रूक जाता हैं तो मनुष्य और धरती की जुगलबन्दी के सारे तार और सुर एकाएक मंद हो जाते हैं।शायद आज की दुनिया का आज का सबसे बड़ा दु:ख यह हैं कि मनुष्य के जीवन आनन्द की सहज प्राकृतिक यात्रा रूक सी गयी हैं।
आनन्द ही जीवन का जीवन्त स्वरूप होने का मूल भाव मनुष्य जीवन की मूल समझ हैं जिसका दिन प्रतिदिन अभाव होता जा रहा हैं।इस स्थिति ने कई सवाल मानव समाज के मन में खड़े किये हैं।इन सवालों का पका-पकाया या बना बनाया समाधान हममें से किसी के पास नहीं हैं।पर घर परिवार समाज में जो आपसी समझ और व्यवहार से जीवन में सहज आनन्द और सहज हलचलों की उपस्थिति थी उसमें काफी हद तक कमी आज के कालखण्ड़ में आई हैं।जीवन आनन्द का मूल गुण यह हैं कि वह बांटने से बढ़ता हैं और बटोर कर अपने तक ही सीमित करने से जीवन आनन्द का सहज विस्तार मन्द या लुप्त होने लगता हैं।इसीसे दुनियाभर के लोकजीवन में जो खेल विकसित हुए वे सहज आनन्द की प्राकृतिक अभिव्यक्ति थी।उसमें प्रतिस्पर्धा या व्यवसायिक सफलता का आयाम ही नहीं था।
वैसे देखा जाय तो जीवन भी एक खेल ही है जो इस धरती पर हमें मन और तन के सहारे जीवन भर खेलना होता हैं।यदि हमारा मन एकाकी हो तो हमारे जीवन की हलचले एकाएक कम होने लगती हैं।जीवन की हलचलों में एक लय बनाये रखने के लिये ही मानव मन ने कई खेलों की रचना की हैं।खो खो और कबड्डी जैसे खेल सामूहिक हलचल और सतर्क गतिशीलता के खेल हैं।जिसमें धरती और तन मन की सतर्कता और चपलता की ही मूल भूमिका होती हैं।जीवन के खेल का प्राकृतिक मूल स्वरूप भी तन मन और धरती के बीच सदैव एकरूपता का बना रहना ही हैं।इस तरह देखें तो जीवन और खेल दोनों ही जीवन का आनन्दमय साकार स्वरूप हैं।जिसे हम जानते तो हैं पर हमेशा मानते नहीं। जीवन आनन्द हमारे जीवन की सबसे बड़ी परीक्षा हैं जो जीवन के हर क्षण हमें देते रहना होती हैं।जिसमें परीक्षा और परिणाम सांस लेने जैसा सनातन प्राकृतिक क्रम की तरह हर क्षण बना रहता हैं।अष्ट चंग पे में भी हर चाल अनिश्चित होती हैं।वहीं हाल हर क्षण भी हमारे जीवन का भी हैं।अनिश्चित चालें जीवन के खेल को रोमांचक बनाती हैं यहीं जीवन का आनन्ददायी रोमांच हैं जो हर क्षण कायम रखना ही जीवन की मूलभूत समझ हैं।