जरूरत !

Akanksha
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एक दिलचस्प और हटके खबर है ! साउथ अफ्रीका के वेस्ट इंडीज के खिलाफ मैच में क्विंटन डिकॉक इसलिए नहीं खेले क्योंकि वे रंगभेद के खिलाफ मैदान में घुटना टेकने से सहमत नहीं थे। इस विश्वकप में रंगभेद के नाम पर दुनिया में हर किस्म के भेदभाव के खिलाफ संदेश देने के लिए हर मैच से पहले खिलाड़ियों द्वारा एक साथ एक घुटना जमीन पर टिकाया जाता है। बेशक यह संदेश और वो भी इस ‘सीन क्रिएशन’ के साथ, यह जिस किसी का भी विचार है, बहुत आला विचार है ! आप उस की टाइमिंग भी देखिए। मैच शुरू होने के ठीक पहले यह होता है ! सबसे खास बात ये ध्यान रखिये कि दुनिया के लिए जारी हुआ यह संदेश विज्ञापन कतई न है। जैसा ऊपर लिखा है, यह एक आला विचार है।

मौका भी क्या है, विश्व कप ! हकीकतन इस विचार के प्रसार का स्थान किसी खेल मैदान से बढ़िया और क्या हो सकता था ? खेल का तो मतलब ही यही है कि वहां किसी भी किस्म का भेदभाव किसी सूरत मंजूर नहीं होता। वो मंजूर होना भी नहीं चाहिए। दिलचस्प खबर ये है कि क्विंटन डिकॉक इस आला विचार से सहमत नहीं है। साउथ अफ्रीका के इस धाकड़ बल्लेबाज और विकेटकीपर का सहमत नहीं होने का कारण भी सुन लीजिए। उनका कहना है कि किसी को भी कुछ करने के लिए मजबूर नहीं किया सकता ! उनकी यह बात दम रखती है कि किसी विचार के साथ सहमत होने के लिए किसी को मजबूर नहीं किया जा सकता। भले ही वो विचार कितना ही आला हो।

अलबत्ता बात ये सिर्फ सहमति या असहमति की नहीं है, बल्कि जरूरत की है। खेल कोई भी हो, नियमों से चलता है। नियम इसलिए होते हैं कि वो उस खेल की आवश्यक जरूरत हैं। हम मंजन करने से लेकर, टॉयलेट जाने और नहाने आदि जाने क्या-क्या नित्य करते हैं। इन्हें भी बेहतर जीवन और समाज के नियम कहा गया है। क्यों ? क्योंकि उनको जरूरत माना गया है। खेल भी क्या होते हैं ? वो भी असल में बेहतर जीवन का आयाम और नियम हैं और जरूरत तो है ही। सो सहमति-असहमति अपनी जगह है, लेकिन जब बात जरूरत की हो तो उस समय अपनी उस सहमति-असहमति को भोंगली से ज्यादा अहमियत नहीं देनी चाहिए। अचरज की बात है कि खेल में, बल्कि साउथ अफ्रीका की टीम में भी इतने बरस रहने के बावजूद डिकॉक को यह सहज बात समझ नहीं आयी है ! पता नहीं उनके घुटनों में क्या समाया है !

वरिष्ठ पत्रकार चंद्रशेखर शर्मा