जानें क्या है संन्यास? ये है संन्यासी का परम कर्तव्य

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कई बार लोग मुझसे पूछते हैं कि क्या हम संन्यासी हो सकते हैं ? कई लोग संन्यास के विषय में उतना ही जानते हैं, जितना पढ़ा-सुना। इसीलिए कहते हैं कि हम संन्यास तो लेना चाहते हैं, लेकिन अभी हम दायित्यों से बंधे हुए हैं। कई लोग चले आते हैं मुझे संन्यास सिखाने। कई लोग कहते हैं कि संन्यासी को फेसबुक, कम्प्युटर, राजनीति, दुनियादारी से दूर रहकर केवल भजन-कीर्तन में मन लगाना चाहिए। तो आइये समझाता हूँ कि संन्यास वास्तव में है क्या और धूर्तों ने संन्यास को क्या बना दिया।

पारम्परिक धारणा है –

संन्यास का अर्थ सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर निष्काम भाव से प्रभु का निरन्तर स्मरण करते रहना। शास्त्रों में संन्यास को जीवन की सर्वोच्च अवस्था कहा गया है। संन्यास का व्रत धारण करने वाला संन्यासी कहलाता है। संन्यासी दो प्रकार के होते हैं। मायावादी संन्यासी सांख्यदर्शन के अध्ययन में लगे रहते हैं तथा वैष्णव संन्यासी वेदांत सूत्रों के यथार्थ भाष्य भागवत-दर्शन के अध्ययन में लगे रहते हैं। संन्यासी का परम कर्तव्य यह है कि उन्हें सब कुछ दान कर देना चाहिए। उनके पास कोई भी मोह माया तथा धन नहीं होना चाहिए। उनके पास क्रोध, हिंसा, लालच आदि अवगुण नहीं होना चाहिए। उनका परम कर्तव्य केवल अध्यात्म, क्षमादान तथा आत्मज्ञान प्राप्त करना है।

व्यावहारिक व वास्तविक परिभाषा ओशो ने दी –

संन्यास का अर्थ है समयातीत होकर रहना, न तो अतीत के द्वारा प्रभावित होना और न ही भविष्य के साथ कहीं दूर बह जाना। न तो अतीत का कोई भार हो और न भविष्य के लिए कोई कामना हो। मैंने जो अपने चिंतन-मनन से जाना समझा संन्यास को उसमें ओशो की परिभाषा बिलकुल सही लगती है। मेरा मानना है कि जब भी हम किसी मत-मान्यता या धारणा को बिना चिंतन-मनन, विश्लेषण किए ढोते हैं, तो मूल उद्देश्य से विमुख हो जाते हैं और जब हम मूल उद्देश्य से विमुख हो जाते हैं, तो केवल ढोंग-पाखंड बचता है जिसका कोई भी सकारात्मक परिणाम नहीं निकलता।

~ विशुद्ध चैतन्य