जनतंत्र के यातना शिविर

Mohit
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निर्मल उपाध्याय

कोरोना त्रासदी को सरकार ने दूसरे दर्जे पर रख दिया है।ऐसा हमने ही नहीं दुनिया ने भी ऐसा किया है।आर्थिक गतिविधियों के नाम पर,जीवन अवरुद्ध हो जाने के नाम पर।कोरोना का संकट जब और घातक दिख रहा है,जब फिर से संपूर्ण लाकडाउन के निर्णय प्रासंगिक लग रहे हैं तब हर सिम्त दिखाई देती ढील कई आशंकाओं को जन्म देती है।सरकारें नहीं जानतीं ऐसा नहीं है,मगर बिना जनजीवन और आर्थिक गतिविधियों को प्रारंभ किए और अन्य भयावह संकटों का आभास भी भयभीत कर रहा है।ज़िन्दगी का किसी भी एक तरफ मुख़ातिब होना कई ख़तरों का आभास करा रहा है।इन संदर्भों में सामान्य विवेचना में यही कहा जा सकता है कि सारी सच्चाई जानते हुए भी यह तलवार की धार पर चलने का बड़ा कठिन समय है, यह सबने मान लिया है।,संभवतः इसके अलावा कोई विकल्प भी नहीं है,यह भी सार्वभौम सत्य के रूप में स्वीकार कर लिया गया है।

हमारे यहाँ यह सत्य स्वीकार तो कर लिया है मगर इस सत्य के अनुरूप आचरण की कोई शपथ या लक्ष्य दिखाई नहीं देते।यमराज के एक दूत कोरोना को जैसे कलेक्टरों के भरोसे छोड़ दिया गया है।भरोसे का कारण स्थानीय स्तर पर निर्णय की अपरिहार्यता माना गया,मगर कोई यह सत्यापन करने की कोशिश में कहीं नहीं दिखाई देता कि जो आदरणीय कलेक्टरगण कुछ कर रहे हैं वह आज की अपरिहार्यता की दृष्टि से उनकी किस प्राथमिकता में है,जो उनके द्वारा किया जा रहा है वह परिणाम दायक और प्रमाणिक है अथवा नहीं,जाँच जानबूझकर कर तो नहीं टेस्टिंग कम नहीं कर दीं गई ताकि कम टेस्टिंग होने से मरीज़ कम दिखाई दें और अपना जिला कोरोना नियंत्रित दिखे।जनप्रतिनिधि इस सत्यापन के बजाय अपने अपने इलाके के नागरिकों की परेशानी बता कर स्थित सामान्य करने की जुगत में हैं,बाद में जो होगा उसके लिए कोरोना का लौट आना, या किसी और रूप में भयावह हो जाना बता दिया जाएगा जो कोई प्रश्नांकित भी नहीं कर सकेगा।कोरोना है ही ऐसा संकट जिसमें हर प्रयास को उसके साथ जोड़ कर दिखाया जा सकता है और उसके विकट रूप लेने पर पता है कि स्वीकार कर लेने योग्य मासूमियत बताई जा सकती है इसलिए कोई फिक्र भी नहीं है।खैर यह विपत्ति भी आसुरी प्रयासों के बजाय ईश्वरीय प्रकोप की तरह स्वीकार कर ली गई है।कहने का तात्पर्य यह है कि कोरोना को वाह्य रूप से मजबूरी के कारण और अंतर्मन से जो होगा देखेंगे वाली मनोदशा में स्वीकार कर लिया गया है।

हमारे देश में मौत के खुले आव्हानों के बीच अपने तंत्र से हमारे नेतागण ऐसे खेल रहे हैं जैसे कोई बड़ी सील मछली अपने शिकार को खाने के पहले उससे काफी देर खेलती हो।राजस्थान में मुख्यमंत्री लगभग क्रांति के सीमान्त पर खड़े होकर बहुमत सिद्ध करने, कराने की जद्दोजहद में लगे हैं, राज्यपाल कह रहे हैं अभी कोई जल्दी नहीं है,कोरोना का भय खत्म होने के बाद देखेंगे।अंदर की बात यह है कि सचिन पायलट विद्रोह तो कर गए मगर ज्योतिरादित्य सिंधिया नहीं बन पाए।इतने विधायक नहीं जुटा पाए कि दूसरी सरकार बनवा दें, वहीं गेहलोत ने इतने विधायक कबाड़ रखें हैं कि उनकी सरकार बच जाए,मगर राज्यपाल उन्हें बहुमत सिद्ध नहीं करने दे रहे।कैसे सिद्ध करने दें, सचिन पायलट तो निकल आए मगर सब निरर्थक हो गया।

राज्यपाल महोदय किसी दूसरे दल की नियमावली को अपनी भगवत् गीता मानने वाले हैं उनकी मर्जी है कि अपनी स्नेही पार्टी के सत्ता में आने के लिए अपेक्षित विधायकों का जुगाड़ होने तक विधान सभा क्यों बुलाऐं विशेष रूप से तब जबकि कोरोना जैसा ब्रम्हास्त्र पास है।गेहलोत के कबाड़े विधायक बिखर जाएँ, इसके पहले बहुमत सिद्ध कर झंझट मिटाना चाहते हैं।अजीब दृष्य है हमारे जनतंत्र का, कभी बहुमत सिद्ध ना करना पड़े इसके लिए जनतंत्र की हत्या के नए-नए उद्धरण, या कभी विधायकगण अपने पाले में दिखें तो बहुमत सिद्ध करने के जनतांत्रिक मूल्यों का यशोगान करते हुए जनतंत्र की हत्या के नए-नए अनमोल उद्घरण। जनता रोज़ सुबह टी,वी,खोलकर माननीय विधायकगण के “”रिसोर्ट “”में जनता का,जनता के लिए और जनता के नाम पर वाले जनतंत्र को ढूँढती है।रिसोर्ट में आनंदित इन महानुभावों के आचरण को देख कर जनता खूब हँसती है,मगर ऐसी हँसी जो भूचाल के गुज़र जाने के बाद बर्बादी की पीड़ा के अतिरंजित एहसास में आती है।

हमारे यहाँ राजनीति के मंच पर खेले जाने वाले नाटक एक ही समय में दो घनघोर विपरीत विषयों पर पूरी सफलता से खेल लिए जाते हैं और सब सहज ही कुछ भी अटपटा नहीं लगता।ऐसे ऐसे विरोधाभासी नाटकों का सफल मंचन जनता देख चुकी है कि उसे न तो अब कोई पीड़ा रही न ही कोई शिकायत।जनता बस यह देख कर ख़ुद को हिम्मत दे लेती है कि “”भैया ये कुछ भी करें, सरकारें तबाह कर दें, हमारे ख़ून पसीने की कमाई पर ऐयाशी करें, चीन, पाकिस्तान, नेपाल सरहदों से डराते रहें,आँतरिक हालात कोरोना जैसे यमराज के साथ कर्तव्यनिष्ठ दिखें, दिखते रहने दो,कोई भी मुद्दा उठा कर खूब डराओ हम को कोई लेना देना नहीं,बस देश को देश बना रहने दो।””हमारी जनता की इसी “देश को देश बना रहने दो””वाली ठंडी आह का ही परिणाम यह है कि मूल्यों के परिवर्तन की हर क्राँति को दरवाज़े लौटाने के हम अभ्यस्त हो गए हैं।कल एक संभावनाओं के सिद्ध नेता ने बड़ी ज़बरदस्त सांत्वना दी,वे बोले भैया मोदी की दाढ़ी अलग शेप में लग रही है अब जरूर कुछ न कुछ नया होगा। हमारे देश में नेता कैसा भी हो चलेगा, कितनी ही यातनाऐं देता रहे चलेगा, तानाशाही के सीमान्त पर खड़ा होकर धमकाता रहे या मूर्ख बनाता रहे चलेगा, बस उसका व्यक्तित्व रहस्यवादी होना चाहिए।कब क्या कर देगा, बस यह रहस्य बना रहे तो उम्मीद जबर्दस्ती बँधी रहती है।

यह “”उम्मीद””ही हमारा दुर्भाग्य है।बहुत सताया है वक्त ने,सबने भ्रमों के इतने ताबीज़ बाँटे हैं कि उपलब्धियों के बजाय हमारा तंत्र जैसे आशाओं, संभावनाओं को ही अपना भाग्य मान चुका,इसलिए ही यह उम्मीद अब आचरण बन गई है।इन्दिरा और मोदी में सबसे बड़ा यही साम्य है।हमारा चमत्कारों में बड़ा भरोसा है।ये दोनों व्यक्तित्व अपने अपने ज़माने के ज़बरदस्त चमत्कारी हैं।नोट बंदी से अच्छे खासे परेशान लोग सारे कष्ट सहने के बाद भी मोदी के गुणगान करने से अपने आप को रोक नहीं पाते।नोट बंदी के कष्टों में लोगों का मानना था कि भले ही फैसला दुखी कर रहा हो मगर मोदी बड़े बड़े फैसले लेने वाले दमदार नेता हैं।जनमानस को अपने कष्ट से ज्यादा मोदी का दृढ़ प्रतिज्ञ होना रास आता है।आना भी चाहिए। पारदर्शी मगर कमज़ोर नेतृत्व के बजाय रहस्यात्मक मगर कठोर निर्णय लेने की सामर्थ्य रखने वाला नेता लोगों को ज्यादा रास आता है।क्यों ना रास आए,सदियों अपनी शराफत और शराफत की गफ़लतों में अपने अस्तित्व को लहू-लुहान होते देखा है।अब हिम्मत नहीं बची और सहन करने की, इसलिए मोदी या इन्दिरा गाँधी जैसे नेता अच्छे लगते हैं।ये वो नेता हैं जिनके दौर में स्वाभिमान जीने का मन भी करता है और आनंद भी आता है।उनकी नई दाढ़ी के शेप में लोग उनमें बाला साहब देख कर और ज़ोर ज़ोर से जय जय सिया राम कहने लगे हैं।

जिस अंदाज़ में राहुल गांधी प्रकट होकर सरकार से सवाल करते हैं उसी अंदाज़ में उनके विरोधी उनके पूर्वजों के ज़माने की दुर्दशा का स्मरण करा देते हैं और हमारी जनता स्वीकार भी कर लेती है,यह सत्य ठुकरा कर कि नेहरू , इन्दिरा या पूर्व के किसी और नेता ने दुर्दशा की होगी,या कराई होगी मगर आज की करतूत पहले भी ऐसा हुआ था कहकर कभी न्यायोचित नहीं ठहराई जा सकती।आज को आज के परिवेश में समझ कर जीना होगा।निश्चय ही अतीत का कोई मुखौटा लगाकर आज की मौलिकता में पल रही विसंगतियों को स्वीकार्य या क्षम्य नहीं माना जा सकता।जनमत ने जिन सरकारों को काम करने का हुक्म दिया,उन्हीं सरकारों को रिसार्ट में बैठकर गिरा देने या चला लेने की आस्था से जनता विरक्त दिखाई देती है।जनमानस का यह वीतराग निश्चय ही इतिहास में क्षम्य नहीं माना जाएगा।इतिहास इस तथ्य को कभी विचार में ग्राह्य नहीं करेगा कि बेचारी बेबस जनता के हाथ में कुछ करने को था ही नहीं या रखा ही नहीं।

भविष्य में आज के चलन पर उठाई गई हर उँगली का जबाब जनता को ही देना है क्योंकि अपराधियों, अवसरवादियों को पहचान कर भी उन्हें जनतंत्र का मसीहा मानने और बना देने में जनता ने कोई सजगता कभी नहीं दिखाई।लगता है जनता सजगता दिखा कर भी कुछ हासिल नहीं कर पाती क्योंकि भले ही ईमानदार, साफ,सुथरे लोगों को चुनते मगर चुनकर जाने के बाद उन प्रतिनिधिगण को अपनी सारी विशेषताएं भूलनी ही पडतीं ऐसा न करने पर उन्हें आज के संस्कार के ठीक प्रतिकूल मानकर दरकिनार कर दिया जाता।यह दरकिनार होने की सामर्थ्य हमारा जनतंत्र क्यों नहीं सहेज पाया इसका उत्तर तो कम से कम तैयार रखना होगा भले ही वह पहले की तरह अर्थहीन क्यों ना स्वीकार किया जाए।हमारी राजनीतिक आस्था के पैबन्दों से झाँकते हुए सच झुठलाए नहीं जा सकते क्योंकि पैबन्दों को पैबन्द ही रहना है,और उनसे झाँकती सच्चाई को सच्चाई ही रहना है।कोरोना के संकट,जनतान्त्रिक मूल्यों के संकट सीमाओं की सुरक्षा के संकट अपनी अपनी अस्मिताओं का जैसे हमारे देश में सौभाग्य जीने आए हैं, पता नहीं यह सौभाग्य का उद्घोष कब तक होता रहेगा,और कब तक सहज स्वीकार किया जाता रहेगा।