मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के द्वारा लिखा गया लेख
आजादी के बाद देश में लोकसभा के 17 चुनाव हो चुके है। विगत 70 वर्षों में राज्यसभा, राज्य विधानसभा और कुछ राज्यों में संचालित विधान परिषद को मिलाकर अब तक सैकड़ों बार चुनाव हो चुके है। भारत के संविधान में लोकतांत्रिक प्रणाली के माध्यम से विधायिका के चयन का विधान रखा गया है।
हमारी संसदीय प्रणाली को पूरी दुनिया में सराहा गया है। लोकसभा के सदस्यों के चुनाव के समय आज 90 करोड़ से अधिक मतदाता अपने मताधिकार का उपयोग कर लोकसभा के लिये अपने प्रतिनिधि का चुनाव करते है। विगत 70 वर्षों से संसदीय लोकतंत्र ने अनेक उतार चढ़ाव देखे हैं। बहुमत से केन्द्रीय और राज्य सरकारें बनती रही है और मत विरोध होने से सरकारें गिरी भी हैं। बड़े-बड़े राजनेताओं को जनता से अपने स्वतंत्र और निष्पक्ष मतदान से विजयी बनाकर लोकसभा और विधानसभा में पहुँचाया है या उनके प्रति असहमति व्यक्त कर सदन से बाहर कर दिया है। लोकसभा के 543 सदस्य सही मायने में देश के 90 करोड़ से अधिक मतदाताओं का विभिन्न राज्यों के लोकसभा क्षेत्रों से निर्वाचित होकर प्रतिनिधित्व करते है। जहाँ विभिन्न दलों के प्रतिनिधि के रूप में अनेक जाति, धर्म, सम्प्रदाय और क्षेत्रों से लोग निर्वाचित होकर आते है और इस संसदीय प्रणाली को दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक व्यवस्था में परिवर्तित करते है। पूरी दुनिया आज भारत की प्रणाली से न सिर्फ प्रभावित है बल्कि समय-समय पर विभिन्न देशों के प्रतिनिधि आकर इस प्रजातांत्रिक प्रणाली का अध्ययन कर अपने देशों में लागू करने का प्रयास भी कर रहे है।
पिछले कुछ दशकों से राजनैतिक मूल्यों में तेजी से नैतिक गिरावट देखी जा रही है। राजनैतिक दलों से लेकर राजनेता तक इस मूल्यहीनता को बढ़ावा दे रहे हैं। राजनेताओं की अति महत्वाकांक्षा लोकतांत्रिक प्रणाली को अब कटघरे में खड़ा कर रही है। आये दिन हो रहे दल-बदल से जनमानस का विश्वास खंडित हो रहा है। लोग एक पार्टी विशेष के प्रत्याशी को वोट देकर विजयी बना रहे है। वहीं नेता चुनाव जीतने के बाद दल-बदल कर रहे है और जनमत के साथ विश्वासघात कर रहे है। अनेक नेता दल-बदल करने के लिये जिस दल से निर्वाचित हो रहे है, उसी दल से इस्तीफा देकर जनादेश को अपमानित कर रहे हैं।
दो पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी और स्व. अटल बिहारी वाजपेयी के द्वारा उठाये गये कदमों की सराहना की जानी चाहिये। संसदीय व्यवस्था को ‘‘दल-बदल की दलदल’’ से बचाने के लिये इन दो शीर्ष नेताओं ने बहु प्रशंसित प्रयास कर दल-बदल विरोधी कानून बनाये थे और भारतीय संविधान में इस विषय को लेकर संशोधन कराये थे। यह सच है कि भारतीय लोकतंत्र धीरे-धीरे परिपक्वता की ओर बढ़ रहा है। बहुदलीय राजनैतिक प्रणाली और विचारधाराओं पर आधारित दल इसकी विशेषता बढ़ाते है। लेकिन पिछले दो-तीन दशकों में गिरावट का दौर भी देखा गया है। इसी गिरावट से प्रजातंत्र को बचाने के लिये 21वीं सदी में सशक्त भारत का स्वप्न देखने वाले पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी ने 1985 में पहली बार दल-बदल विरोधी कानून बनाकर भारतीय संविधान में 52वां संशोधन कराया और दल-बदल को गैरकानूनी करार दिया। इसी प्रावधान के लिये संविधान में 10वीं अनुसूची को संविधान में शामिल किया।
यहां यह उल्लेखनीय है कि स्व. राजीव गांधी के प्रधानमंत्री के कार्यकाल के दौरान कांग्रेस के पास 400 से अधिक सांसदों को बहुमत था। इस भारी भरकम और ऐतिहासिक जनादेश के बावजूद स्व. राजीव गांधी ने दल-बदलूओं को सबक सिखाने के लिये सदस्यता समाप्त करने का कड़ा कानून बनाया। संशोधन में यह भी प्रावधान था कि बहुत बड़ी संख्या में दल-बदल करने पर निर्वाचित सदस्यों का एक तिहाई होने पर सदस्यता बची रह सकेगी।
भारत में एक तरफ यू.पी., बिहार, राजस्थान, महाराष्ट्र, कर्नाटक और मध्यप्रदेश जैसे बड़े राज्य है, वहीं अनेक छोटे-छोटे राज्य भी है जहां सदन में निर्वाचित सदस्यों की संख्या 100 से भी कम है। इस दशक में ऐसे राज्यों में छोटे-छोटे दलों का एक तिहाई की संख्या में दल-बदल करने का सिलसिला चल पड़ा। जनता किसी दल को वोट देती और विजयी उम्मीदवार किसी दूसरी विचारधारा वाले दल में शामिल होने लगे हैं। उत्तर भारत के हरियाणा राज्य में तो ‘‘आया राम, गया राम’’ की कहावत ही ऐसे विधायकों के लिये चल पड़ी, इस अनैतिक कार्य ने धीरे-धीरे पूरे देश को अपने चपेट में ले लिया।
लोकतंत्र के सामने आये इस मूल्य हीनता और राजनैतिक चरित्र पतन के दौर को देखते हुये पूर्व प्रधानमंत्री स्व. अटल बिहारी वाजपेयी ने संविधान में 91वां संशोधन और 10वीं अनुसूची में बदलाव कर दल-बदल को और सख्त कर दल बदलने के लिये पूर्व में स्थापित एक तिहाई की संख्या को बढ़ाकर दो तिहाई कर प्रावधान ओर कड़े कर दिये। जिससे राजनीति में लोकतांत्रिक मूल्य जिंदा रह सके और जनमानस के पटल पर राजनीति का रूप कलंकित न हो सके। पर देश का यह दुर्भाग्य देखिये कि स्व. राजीव गांधी और स्व. अटल बिहारी वाजपेयी जैसे शीर्ष राजनैताओं द्वारा स्थापित मापदंडों को बाद के वर्षो में नेताओं ने अपनी कुटिल चालों से ध्वस्त कर दिया। अटल बिहारी सरकार के समय सन् 2000 में संविधान की कार्यप्रणाली की समीक्षा के लिये गठित राष्ट्रीय आयोग ने भी अपने प्रतिवेदन में दलबदलुओं को मंत्री पद, सार्वजनिक लाभ का पद नहीं दिये जाने की अनुशंसा की थी। आयोग के अनुसार ऐसे नेताओं को नई विधानसभा के गठन या वर्तमान विधायिका के कार्यकाल तक के लिये दंडित किये जाने की सिफारिश की थी। अटल ने तब नहीं सोचा होगा कि उनकी पार्टी के नेता आगे चलकर अपनी पार्टी के पितृ पुरूष की इच्छा के विरूद्ध जाकर न सिर्फ दलबदल की स्तरहीन श्रंखला शुरू करेंगे बल्कि ऐसे लोगों को बिना विधायक बने मंत्री पद सहित लाभ के पदों से भी नवाजेंगे।
लोकतांत्रिक परम्पराओं को तहस नहस करने की शुरूआत में दल-बदल करने पर सदन की सदस्यता समाप्त होने का प्रावधान नहीं था। इसलिये शर्म खो चुके राजनेता एक दल छोड़कर दूसरे दल में जाने लगे। दक्षिण भारत के सिने अभिनेता से राजनेता बने आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री एन.टी. रामाराव की तेलगू देशम पार्टी को उनके दामाद चन्द्रबाबू नायडू ने लगभग पूरे दल सहित पाला बदल लिया था। देश के सभी राज्यों में शायद ही कोई दल हो जिसके दो फाड़ या विभाजन न हुये हो। दल-बदल की दास्तान एक तिहाई से शुरू हो कर दो तिहाई तक पहुंची और अब तो करोड़ों रूपयों का चंदा लेने वाले राजनैतिक दल पूरी पार्टी का ही दल-बदल कराने पर आमादा है। अरूणाचल प्रदेश में कांग्रेस के 42 विधायकों ने पहले अलग समूह बनाया फिर सब भाजपा में शामिल हो गये।
राजनैतिक विचारधारा का यह पतन अब पाताल तक जा पहुंचा है। मध्यप्रदेश का दल-बदल अब तक का निकृष्टतम उदाहरण है। जहां दो तिहाई दल-बदल कराने में असफल रहे नेताओं ने 22 विधायकों से इस्तीफा करा कर जनता द्वारा निर्वाचित सरकार गिराने का घोर अनैतिक कार्य करते हुये दल-बदल किया और भाजपा में शामिल हो गये। इनमें से 14 बिना विधायक बने मंत्री बना दिया गये है। यह नज़ीर कर्नाटक के कलंकित काण्ड के बाद बनी, जब कांग्रेस के 10 विधायकों के इस्तीफे करवाकर कांग्रेस और जदयू की सरकार गिराई गई और भाजपा ने पिछले दरवाजे से अपनी सरकार बनवाई थी। इससे पहले महाराष्ट्र में राज्यपाल बिना बहुमत के देवेन्द्र फडनवीस को उत्तर प्रदेश के जगदम्बिका पाल की तरह कुछ दिन का अभूतपूर्व मुख्यमंत्री बना चुके थे। भारतीय राजनीति के इतिहास में आन्ध्रप्रदेश के राज्यपाल के कृष्णकांत (जो बाद में एन.डी.ए. सरकार में देश के उप राष्ट्रपति भी रहें) उत्तर प्रदेश के पूर्व राज्यपाल रोमेश भण्डारी, कर्नाटक के राज्यपाल बजूभाई बाला पटेल, महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोशियारी और मध्यप्रदेश के राज्यपाल लाल टंडन को सदा याद किया जायेगा। जिन्होने दल बदल के अलग-अलग कारणों से अन्य दल के नेताओं को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी थी।
मध्यप्रदेश और कर्नाटक के नाटक में तो बड़ी बेशर्मी और कुटिल नीति के साथ सत्तारूढ़ दल के विधायकों के इस्तीफे कराये गये ताकि सदन का स्वरूप छोटा हो जाये और विपक्ष बड़ा दल बनकर सत्तारूढ हो जाये। निम्न स्तर की राजनैतिक चालों से सरकार बनाने के ये शर्मसार करने वाले उदाहरण अभी-अभी सामने आयेे है। कर्नाटक, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के पूर्व भारतीय जनता पार्टी ने गोवा, उत्तराखंड, अरूणाचल प्रदेश, मणिपुर में अल्पमत में होते हुये सरकारें बनाई और लोकतंत्र को अपने निम्न स्तर के हथकंडों से लहुलुहान किया है। सांसदों और विधायकों के रातोंरात पाला बदलने की ओछी राजनीति में 2014 के बाद से बाढ़ सी आ गई है। अभी तक 200 से अधिक विधायक- सांसद और अन्य नेता दल-बदल कर लोकतंत्र को तार-तार कर चुके है। इस प्रपंच में पद और धन के सीधे इस्तेमाल से इंकार नही किया जा सकता है। संसदीय लोकतंत्र के मुंह पर उस समय गहरी कालिख लगी जब आंधप्रदेश में 4 विधायक वाली भाजपा के पाले में तेलगू देशम पार्टी के चार राज्यसभा सदस्य शामिल हो गये। भारतीय संविधान और उसके बाद जनप्रतिनिधित्व अधिनियम बनाने वाले विशेषज्ञो ने कब सोचा था कि एक दिन ऐसा भी आयेगा जब किसी राज्य में 4 विधायक वाला दल दलबदल करवाकर राज्यसभा के चार सदस्य अपने पाले में कर लेगा। क्या ऐसे सदस्य सही अर्थों में अपने राज्य और दल का राज्यसभा में प्रतिनिधित्व करने के लिये नैतिक रूप से योग्य हैं ? भाजपा ने आंधप्रदेश में सी.बी.आई., इनकम टैक्स आदि एजेंसियों का इस्तेमाल कर लोकतंत्र की साख गिराने वाला दल-बदल कराया है।
इस समय की राज्यसभा एक ऐसी राज्यसभा बनने जा रही है। जिसमें अनेक सदस्य पाला बदलकर या इस्तीफा देकर भाजपा से राज्यसभा की कुर्सी पा चुके है। शायद ही कोई दल बचा हो जिसके सदस्यों से इस्तीफा दिलाकर उन दलों में तोड़फोड़ न की गई हो। लगभग हर राज्य में ये कहानी लिखी गई है। महाराष्ट्र के सतारा से राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी से लोकसभा के लिये निर्वाचित सांसद उदयन राजे भोंसले का उदाहरण भी उल्लेखनीय है। वे राकंपा से सांसद बने, फिर एक साल के भीतर इस्तीफा दिया भाजपा में शामिल हुए, भाजपा से ही लोकसभा का उपचुनाव लड़ा और शिवाजी महाराज के वंशज होकर भी चुनाव हार गये। अब भाजपा ने उन्हे राज्यसभा में भेज दिया है।
भविष्य मौजूदा वक्त की राज्यसभा की दास्तां जरूर लिखेगा। कैसे हर हाल में राज्यसभा में बहुमत जुटाने के लिये सत्र दर सत्र और साल दर साल सदस्य जुटाये गये थे। राज्यसभा को उच्च सदन का दर्जा देने वाले इंग्लैंड के कानूनविदों ने भी कभी यह नहीं सोचा होगा कि भारत के संविधान में बना ‘‘उच्च सदन‘‘ कुटिल चालों से पाला बदल कर आये सदस्यों का केन्द्र बन जायेगा। भारतीय लोकतंत्र बहुत उतार चढ़ाव के बाद लगातार मजबूत हो रहा है। कहीं ऐसा न हो कि राज्यसभा में बहुमत के करीब पहुंचने वाली पार्टी भविष्य में लोकसभा में ही बहुमत खो बैठे। वैसे भी राज्यसभा का कार्यकाल 6 वर्ष का होता है और यह सदन कभी भंग नहीं होता। सतत् द्विवार्षिक चुनावों के माध्यम से भारतीय लोकतंत्र को स्पंदित करते रहता है। कभी इस सदन को भारत के श्रेष्ठि वर्ग का सदन कहा जाता था। इस सदन की गरिमा और प्रतिष्ठा को बचाना हर राजनैतिक दल और उसके नेताओं की जिम्मेदारी है। दलबदल ने इस सदन की साख को चोट पहुंचाई है। जिसे पुनः बनाने में बरसों लग जायेंगे।
आज भारत के सभी दलों को चाहिये कि राष्ट्रीय स्तर पर खुली बहस, विचार विमर्श हो। निजी स्वार्थों के चलते और राजनैतिक महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिये आये दिन हो रहे दलबदल को कैसे रोका जाये। ऐसा कानून बनाया जाना चाहिये, जिसमें दल छोड़ने वाले सांसद, विधायक को कम से कम 6 साल के लिये चुनाव लड़ने, मंत्री बनने या लाभ के किसी भी पद पर नियुक्ति करने से निरर्हित किया जाये।
मैंने अपने पचास साल के राजनैतिक जीवन में अनेक उतार चढ़ाव देखे पर दलबदल का ऐसा दौर नहीं देखा। एक दौर वो भी था जब राजनैतिक दल अपनी विचारधारा वाले नेताओं को ही दल में स्थान दिया करते थे। कई परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी से राजनीति कर रहे है। मतभिन्नता होने पर पार्टी के भीतर ही विवाद सुलझाये जाते थे। किसी प्रलोभन में दल नहीं बदले जाते थे। आज दिनों दिन बिखर रहे राजनैतिक मूल्य, राजनैतिक सुचिता और उसकी वर्षों से प्रतिष्ठापित हुई साख को बचाये और बनाये रखने के लिये दल-बदल जैसे कैंसर का इलाज खोजने की जरूरत है। तभी इस देश का लोकतंत्र दागदार हो रहे दौर से बाहर निकलकर वैभवशाली और गौरवशाली संसदीय व्यवस्था का रूप ले सकेगा। राष्ट्रनिर्माण के इस चिंतन में हर देशवासी की भागीदारी जरूरी है।