रविवारीय गपशप

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लेखक – आनंद शर्मा

शुरुआत में ऐसा लगा जैसे मानसून जल्द आ गया | किसी ने कहा मानसून नहीं ये तो अरब सागर में उठे ताऊ ते तूफ़ान का असर है , फिर बंगाल की खाड़ी से यास तूफ़ान लगे लगे आ टपका , और फिर किसी ने कहा कि अब तो मानसून ही आ गया | भोपाल तो पूरा सराबोर ही हो गया प्रदेश के बाक़ी शहरों में भी झमाझम वर्षा हुई , पर अब पिछले पंद्रह दिनों से हालत ख़राब हुई जा रही है | बादलों का इंतिजार बढ़ता ही जा रहा है , बारिश के लिए तरह तरह के जतन किये जाने भी प्रारम्भ हो गए हैं | कहीं पूजा तो कहीं पाठ , कहीं कहीं यज्ञ भी | कुछ शहरों से टोने-टोटके की भी खबरें हैं ,पर दिनों दिन इंतिजार बढ़ता ही जा रहा है और मेघों का कहीं अता पता नहीं चल रहा है |

बारिश के लिए इन सारी कवायदों को देख सुन कर मुझे एक बहुत पुरानी कहानी याद आ गयी जो मैंने बहुत पहले अपने बचपन में पढ़ी थी | ये कहानी शायद थाईलैंड लोक कथा है | कहानी कुछ यूँ है |एक शहर था , सुन्दर , संपन्न सुनिर्मित | शहर के सभी बाशिंदे बड़े सफल थे | सभी अपने अपने कामकाज में मशगूल | कोई खेती कर रहा था , कोई व्यापर तो कुछ नौकरी | शहर के बीचों बीच चौराहे पर महात्मा बुद्ध की एक सुन्दर आदमकद मूर्ती थी | ध्यान मुद्रा में बैठे थे बुद्ध , जैसे हर आने जाने वाले को अपनी स्मित मुद्रा में आशीर्वाद दे रहे हों | नियमित रूप से प्रतिदिन शाम और सुबह उनकी पूजा-आरती होती | जो आने जाने वाले राहगीर होते थे , वे इसमें शामिल हो जाने के लिए उस क्षण रुक जाते | कभी कभी विवाह या जन्म के उत्सव अवसर पर शहर के वासी अपनी ओर से इस मूर्ति पर विशेष चढ़ावा भी चढाते |

ऐसा ही सब कुछ हँसी-ख़ुशी चल रहा था कि , एक बरस ऐसा भी आया की सब कुछ बदल गया | बारिश का मौसम आया पर वर्षा नहीं आई | कुछ दिन गुजरे , लोग बेचैन होने लगे | महाबोधि की मूर्ती के सामने अब कुछ भीड़ बढ़ने लगी , सुबह भी और शाम भी , पर दिन इसी तरह गुजरते रहे | अब लोगों की बेचैनी कुछ बढ़ने लगी थी , चौराहे पर जहाँ बुद्ध विराजित थे वहाँ अब विशेष पूजा पाठ होने लगे जिसमें श्रद्धालु गण यज्ञ और हवन करने लगे | शुद्ध घी की सुगंध यज्ञ की अग्नि में डाली सामग्री के साथ दिन भर चौराहे पर महकती रहती | कुछ लोगों के द्वारा मूर्ती के सामने तरह तरह की भेटें भी चढ़ाई जाने लगीं , जो ईश्वर की प्रार्थना के बाद जरूरत मंद लोगों में बाँटी भी जाती थी , पर बादल थे की सुखे के सूखे शहर के ऊपर से निकल जाते |

सूरज अपने ताप में दिन ब दिन बढ़ोत्तरी करता जा रहा था , धरती फट कर लम्बी लम्बी दरारों से पट रही थी | लोगों की विकलता अब सातवें आसमान पर थी | कुछ सूझ ही नहीं पड़ रहा था , दिन दिन भर और रात रात भर लोग आ आ कर मूर्ति के सामने दिया जलाते , अगरबत्ती लगाते , रोते-गिड़गिड़ाते, पर जाने मुक़द्दर ने क्या तय कर लिया था , पानी था की बरस ही नहीं रहा था | खेत तो सूखे थे ही , पीने का पानी भी अब दूभर हो गया था | जानवर मरने लगे , कुछ दफनाये गए और कुछ खेतों में पड़े पड़े ही सड़ने लगे | कामकाज धंधा सब बंद था , न कोई सामान खरीदने लायक था और न ही कुछ बेचने लायक बचा था |

जिनमें ज़रा भी दम था वे शहर छोड़ कर बाहर जाने भी लगे पर ऐसे भी कितने बचे थे ? धीरे धीरे शहर में सूनापन और सन्नाटे की आवाजें ही गूँजने लगी | अब उस चौराहे पर भी शायद कोई आता | आसपास की सारी दुकाने बंद पड़ी थीं , कोई इक्का दुक्का निकलता भी तो बुद्ध की प्रतिमा की ओर ताके बिना वहां से निकल जाता | सुबह शाम सजने वाली रौनक़ें और पूजा परिक्रमा के लगाये गए उपाय , अब निरुपाय से यहाँ-वहाँ बिखरे पड़े थे |ऐसी ही एक सुनसान दोपहर में कुछ बच्चे वहां खेल रहे थे , चौराहे पर बिना व्यवधान के इतनी लम्बी चौड़ी जगह और कहाँ मिल सकती थी ?बुद्ध की मूर्ति अब भी वहीँ थी पर बिना श्रृंगार के धूल धूसरित , जैसे किसी गहरे ध्यान में मग्न | अब मूर्ती के पास तक जाने या उसे छूने की कोई मनाही नहीं थी और ना ही कोई रोकने वाला ही था |

बेखटके बच्चें उसके ऊपर चढ़ कर खेला करते थे | तो ऐसी ही उस दोपहर में जब बच्चे पकड़म पकड़ाई जैसा कुछ खेल खेल रहे थे तो एक बच्चा अपने साथियों से बचने बुध्ध की ध्यान मुद्रा हस्त के ऊपर चढ़ कंधे पर पैर रख सबसे ऊपर जा चढ़ा और मूर्ति की गर्दन में दोनों पाँव डाले बैठ गया | फिर न जाने क्या उसके मन में आया की उसने बुध्ध के सिर पर हाथ रखा और फिर तुरंत वापस खींच लिया | उफ़ क्या तप रहा था शीर्ष , जैसे गरम तवा हो !! उसने एक बार और हाथ रखा और तुरंत ही वापस खींच लिया | उसके साथी उसे चिल्ला कर नीचे आने को कह रहे थे ताकि बंद खेल फिर शुरू हो सके |

वो चुपचाप उतरा और अपने साथियों के पास ना जाकर पास में बिखरी हवन सामग्री के सूखे पत्तलों को जोड़ कर एक टोपी बनाई और फिर वापस उसी यत्न से चढ़ कर तथागत की मूर्ति के सर पर पत्तों की वही टोपी रख दी | अपना हाथ बढ़ा उसने बुद्ध की प्रतिमा के चहरे पर जमी धूल की पर्त साफ़ की | महाबोधि के मुख पर स्मित हास वैसा ही सज रहा था जैसा पहले था | और फिर बालक वापस उतर अपने साथियों में जा मिला , पहले की तरह धामचौकडी करने वाले खेल में हिस्सा लेने | जाने क्या हुआ की थोड़ी ही देर में न जाने कहाँ से बादल आ धमके और जो बरसना आरम्भ हुए कि रुके ही नहीं इतना कि परनाले बह निकले | बच्चे अपने अपने घरों की ओर भागे और जाते जाते उन्होंने देखा की गली की ओर बहते पानी के परनाले की मोटी धार में वही टोपी तैरते तैरते बही जा रही थी |क्या जाने हमारे यहाँ भी इन तमाम पूजा प्रयत्नों और टोने टोटकों के साथ कब ऐसा निष्पाप ,निर्विकार और निरपेक्ष यत्न हो जिससे वो असीम कृपालु अपनी दया हम पर बरसाए।