जयराम शुक्ल
पिछले कुछ दिनों से विश्वविजयी गामा पहलवान के बारे में बहुत कुछ लिखा जा रहा है। वेबसाईटस् खोलिए तो गामा से जुड़े किस्से अटे पड़े हैं। पर इतिहास के तथ्यों को ऐसा तरोड़ा मरोड़ा गया कि रीवा से गामा की पहचान वैसे ही लुप्त हो गई जैसे कि हरिहर निवास द्विवेदी सरीखे इतिहासकारों ने तानसेन के साथ स्थाई तौरपर ग्वालियर चस्पा कर दिया (ग्वालियर में प्रतिवर्ष सरकारी स्तर पर तानसेन समारोह होता है)। जबकि जगत जानता है कि अकबर के दरबार में हाजिर होने के पहले वर्षों-बरस तक तानसेन बांधवगद्दी के महाराजा रामचन्द्र के दरबारी गायक थे। और उसी तरह गामा पहलवान महाराज व्येंकटरमण सिंह के अखाड़ची।
बहरहाल मैं गामा पहलवान की बात कर रहा हूँ। गामा के मुख्य पालक रीमाराज्य के महाराजा व्येंकटरमण सिंह थे। इन्हीं के राजकाल में वे विश्वविजयी हुए।
विश्वविजेता गामा पहलवान से सीधा वास्ता मेरे परिवार का भी रहा। मेरे पितामह और उनके दोनों बड़े भाई रीमाराज्य के नामी पहलवानों में गिने जाते थे। मेरे पितामह तो पहलवान के साथ कुशल अश्वारोही व प्रशिक्षक भी थे। वे गोविंदगढ़ के पोलो ग्राउंड में राजकुमारों(राजस्थान के राजपूत जिनकी रिश्तेदारियां रीमाराज्य में थीं) को हार्स-पोलो सिखाते थे।
विन्ध्य के वरिष्ठ राजनेता व मेरे गाँव बड़ी हर्दी(रीवा) के सबसे सम्मानित बुजुर्ग केशव पांडेय जी (जिनके पिता-पितामह दोनों पहलवान थे, पितामह पं. मूड़ी मड़रिहा ने बाघ से द्वंद युद्ध लड़ा था) बताते हैं कि ‘क्योंटी के घोड़’ वाला किस्सा मेरे पितामह रघुनाथ प्रसाद शुक्ल से जुड़ा है(पहले मैं इसे अपने बड़े पितामह से जुड़ा किस्सा सुन रखा था)। अरबी नस्ल का एक घोड़ा था जिसे महाराज व्येंकटरमण खरीद कर लाए थे। वह बिगडैल था क्योंकि किसी को पुट्ठे में हाथ ही नहीं रखने देता था, और किसी ने सवारी गाँठी तो सीधे क्योंटी के कूँड़ा (प्रपात) की ओर भागता। मेरे पितामह के बड़े भाई पं. रामेश्वर प्रसाद शुक्ल भी रिसाले में बड़े ओहदे पर थे इनकी राय पर उस बिगडै़ल घोड़े को रघुनाथ प्रसाद के हवाले कर दिया। पं.रघुनाथ प्रसाद जी जैसे ही उसकी पीठपर सवार हुए वह क्योंटी प्रपात की ओर सरपट भाग चला(संभवतः क्योंटी के पठार में महाराज का शिविर लगा था)। प्रपात के पास जाकर रुक गया। उसे एँड़ मारी तो दोनों पावों से खड़ा होकर घुड़सवार को गिराने की चेष्टा करने लगा। गुस्से में पंडित रघुनाथ ने उसकी गर्दन पर एक घूसा मारा कि वह वहीं गिरकर ढेर हो गया। एक अँग्रेज वेटरनरी डाक्टर ने पोस्टमार्टम बाद लिखा कि इसकी गर्दन पर एक मन का पत्थर पटका गया है..तो यह थी घूसे की ताकत…केशव पांडेयजी इसके और आगे का भी किस्सा बताते हैं..वह फिर कभी।
इतिहासकार असद खान ने अपनी पुस्तक ‘रीमाराज्य का खेल इतिहास’ में मेरे परिवार की कुश्ती व अन्य खेलों की गौरवशाली परंपरा के बारे में विस्तार से लिखा है। हमारे परिवार की तीसरी पीढ़ी के नामी पहलवान थे पं. रामभाऊ शुक्ल, उन्हें महाराज व्येंकटरमण और गुलाब सिंह दोनों के राज में मुलाजिम होने का अवसर मिला। पहलवान रामभाऊ… विश्वविजेता गामा के शागिर्द थे और पहलवानी में दशकों तक रीमाराज्य के चैम्पियन रहे। हम लोगों की जानकारी तक उन्हें पहलवानी के लिए स्पेशल खुराकी मिलती रही। बैकुंठपुर(रीवा) के डा. दिवाकर सिंह ने इस संबंध में दस्तावेज जुटाए थे..व पं. रामभाऊ शुक्ल के नाम से पुरस्कार भी शुरू किया था। कैप्टन बजरंगी प्रसाद पं. रामभाऊ के ही पुत्र थे जिन्हें तैराकी का पहला अर्जुन अवार्ड प्राप्त करने का गौरव है। ये ट्योक्यो ओलिंपिक समेत एशियाड व कामनवेल्थ गेम्स के लिए भारतीय टीम के मैनेजर भी रहे हैं। इन्होंने गामा पहलवान और उनके सरदार सिंह (अमहिया रीवा में) अखाड़े में अपने पिता पं. रामभाऊ शुक्ल जी को गामा की शागिर्दी में कुश्ती लड़ते देखा है।
तकलीफदेय यह कि गामा पहलवान के जीवनवृत्त के साथ रीवा और महाराज व्येंकटरमण सिंह की सरपरस्ती को साजिशन बिसराया जा रहा है। गामा पर कई फिल्मी प्रोजेक्ट और वेबसीरीज की तैय्यारी है। ऐसे मौके पर यह बताया जाना जरूरी है कि गामा की हस्ती को रीवा से जुदा नहीं किया जा सकता।
1985-86 में देशबंधु अखबार में काम करते हुए मैंने गामा की पहलवानी पर श्रृंखलाबद्ध स्टोरी छापी थी। जिसमें गामा के सरदार अखाड़ा, उनके मन भर बजनी जोड़-मुगदर, भारीभरकम फावड़े की तस्वीरें भी थी (संभव है सरदार सिंह अखाड़े में यह आज भी कहीं धरा हो)। इस पर आधारित एक आलेख मेरी पुस्तक ‘पुनरोदय का संघर्ष: विन्ध्यप्रदेश’ में भी छपा है।
आज यह सब जिक्र इसलिए भी बन पड़ा कि देश के प्रसिद्ध पत्रकार सुरेन्द्र किशोर का एक लेख अचानक नजर में आ गया जो कि मेरे ब्लाग darasal.blogspot.in में 2013 में पोस्ट हुआ था। सुरेन्द्र किशोर ने गामा पहलवान की दिलचस्प कहानी सुप्रसिद्ध साहित्यकार राय कृष्ण दास के हवाले से लिखी है। तो लीजिए पढ़िए सुरेन्द्र किशोर की वह रिपोर्ट ताकि इतिहास से लिपटे कई जाले साफ हो जाएं—
ऐसे बने गामा रुस्तम-ए-हिंद
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गामा पहलवान को कौन नहीं जानता? पर वह कैसे रुस्तम-ए-हिंद और रुस्तम-ए-बर्तानिया बने थे, यह आज भी कम ही लोगों को मालूम होगा। कला मर्मज्ञ राय कृष्ण दास ने इसका विवरण विस्तार से लिखा है। पहले रुस्तम-ए-हिंद की उपाधि के बारे में। प्रयाग में 1911 में प्रदर्शनी हुई। वहीं राय कृष्ण दास को गामा की कुश्ती देखने का मौका मिला। अमृतसर में 1880 में जन्मे गामा का 22 मई 1963 को लाहौर में निधन हो गया। प्रयाग के दंगल के समय गामा रीवा के महाराज वेंकट रमण सिंह की प्रतिपालकता में थे। महाराज भी उस दंगल में आये थे। उस समय गामा पूरे ओज पर थे। दंगल में कई अन्य नरेश भी आये थे, जिनके अपने-अपने मंच बने थे।
रीवा नरेश की कुर्सी के नीचे की दरी पर गामा बैठे थे। सिर पर मुड़ासा, तन पर पंजाबी कुर्ता और लुंगी। पांच फिट सात इंच के गामा ऐसे बैठे थे कि शरीर संपत्ति का कोई अनुमान ही नहीं होता था। ऐसा जान पड़ता था कि मानो कोई ऐसा व्यक्ति बैठा है जिसका बदन बना ही नहीं। मुकाबला करीम पहलवान से होना था। कलियुगी भीम प्रो. राममूर्ति उसके पृष्ठपोषक थे। वे उसे लिये हुए ठाट-बाट से रंगभूमि में प्रविष्ट हुए। करीम ने पहले से ही जांघिया चढ़ा रखा था। सारी देह पर सिंदूर पुता था। कदम-कदम पर अकड़-अकड़ कर, छाता एक बार दायीं ओर, फिर बायीं ओर तानता, या अली, या अली गर्जन करता अखाड़े तक पहुंचा। दर्शकों को यह दंभ खल उठा।
गामा ने महाराज के चरण छुए। मुड़ासा, कुर्ता और लुंगी उतार कर रख दी। थोड़ा सा दूध, जो पहले से तैयार था, पीकर दो चार बैठकें लगाकर एक बार जो देह को फुलाया, तो देखते-देखते मृग शावक, मृग राज में परिणत हो गया। हजारों अपलक आंखें एक संग उस शरीर सौष्ठव का निहारने करने लगीं। विनीत भाव से वे अखाड़े में उतरे और पलक मारते ताल ठोंक कर दोनों मल्ल गुंथ गये। दावं-पेच के करिश्मे होने लगे, जिनमें गामा प्रबल पड़ते जा रहे थे।
किंतु तभी करीम ने एकाएक अपने शरीर को अखाड़े पर डाल दिया और विकल ध्वनि में हाय मार डाला, हाय मार डाला की धुन लगा दी। उस क्लाइमेक्स की यह परिणति देख सभी को आनंदमिश्रित कौतूहल हुआ। रेफरी के पूछने पर करीम ने कराहते हुए बताया कि गामा ने मेरी पसली तोड़ डाली है। डॉक्टर मौजूद थे। उन्होंने भली-भांति जांच कर कहा कि पसली टूटने का नामोनिशान तक नहीं है। यह बहाना मात्र है। किंतु लाख कहने पर भी करीम लड़ने को तैयार नहीं हुआ। तब गामा विजयी घोषित किये गये। उन्हें रुस्तम-ए-हिंद की गदा भेंट की गयी। गदा को उसी विनीत भाव से रीवा के महाराज के चरणों में रखकर गामा पुन: अपने स्थान पर उसी भांति बैठ गये। गामा का नाम 1910 में पूरी दुनिया में फैल चुका था। तब इंग्लैंड में उनकी भिड़ंत जिबस्को नामक पहलवान से हुई थी। जिबस्को ने गामा से लड़ते समय पेट के बल जमीन थाम ली थी। गामा रद्दे पर रद्दे लगाते रहे, उसे चित करने की कोशिश करते रहे, पर वह टस से मस नहीं हुआ। उसका शरीर इतना वजनी था कि गामा उसे उठा नहीं सके। कुश्ती अनिर्णीत रही। कुश्ती के लिए दूसरा दिन तय किया गया। पर जिबस्को नहीं आया। आयोजक उसके यहां दौड़ते-दौड़ते हार गये। वह मुंह छिपाता रहा। इस पर गामा विजयी माने गये। गामा को रुस्तम-ए-बर्तानिया की उपाधि दी गयी। गामा की वजन उठाने की क्षमता पर राय कृष्ण दास ने लिखा है, यह तब की बात है जब गामा दतिया नरेश की छत्रछाया में थे। 1901-02 में भयंकर प्लेग की बीमारी आयी, तब मैथिलीशरण गुप्त का परिवार चिरगांव से भाग कर दतिया चला गया था। उनके संग लोहे की एक भारी तिजोरी थी, जिनमें उनका सारा माल था। मैथिलीशरण जी की पहली ससुराल दतिया में थी। गामा का मैथिलीशरण जी की ससुराल वाले परिवार में आना-जाना था। जिस तिजोरी को दसियों लोगों ने मिलकर किसी तरह बैलगाड़ी पर चिरगांव में चढ़ाया था, उसे गामा और उनके भाई ने इस तरह खिलवाड़ में बैलगाड़ी से उतार कर ठिकाने रख दिया, मानो वह तिजोरी नहीं, दफ्ती की बनी पोली पेटी हो। इससे पता चलता है कि जिबस्को कितना वजनी पहलवान था।
प्रयाग में मूक चलचित्र प्रदर्शनी हुई। उसमें गामा-जिबस्को कुश्ती का समूचा दृश्य था। गामा साधारण पहनावे में थे। ऊनी ड्रेसिंग गाउन पहने उन्होंने रंगभूमि में प्रवेश किया था। उन्होंने जिबस्को से हाथ मिलाया। तब से लेकर तब तक के दृश्य दिखाये गये, जब अचल-कूर्म बने जिबस्को को टस से मस करने के भीष्म प्रयत्न में गामा विफल रहे। गामा और गुलाम दो अलग-अलग पहलवान थे। कुछ लेखक दोनों के बीच घालमेल कर देते हैं। गुलाम का देहांत 20 वीं सदी के प्रारंभ में ही हो गया था, जब गामा पट्ठे ही थे। पंडित मोतीलाल जी 1899 में पेरिस प्रदर्शनी में गुलाम पहलवान को साथ ले गये थे।