अजय बोकिल
अमेरिका से उठे अश्वेतों के नस्लवाद विरोधी आंदोलन का एक सकारात्मक असर भारतीयों के गोरेपन के (दुर्) आग्रह पर भी होता दीख रहा है। इस देश में लगभग आधी सदी से महिलाअों के चेहरे के रंग को निखारने का दावा करने वाली ‘फेयर एंड लवली’ क्रीम के नाम में से ‘फेयर’ ( गोरापन) शब्द हटाने पर निर्माता कंपनी गंभीरता से सोच रही है। हालांकि ‘फेयर’ की जगह कौन सा ‘रंग’ लेगा, अभी साफ नहीं है। लेकिन ब्यूटी क्रीम निर्माता हिंदुस्तान यूनीलीवर की अोर से कहा गया है कि स्त्री सौंदर्य की मार्केटिंग अब केवल गोरेपन की बजाए सभी रंगों (अर्थात सांवले,भूरे और काले) को ध्यान में रखकर की जाएगी। इसमें स्वीकारोक्ति छिपी है कि गोरेपन को केन्द्र में रखकर ब्यूटी क्रीम बेचने का जमाना अब लद रहा है। गोरे से इतर हर रंग का अपना सौंदर्यबोध और आकर्षण है, केवल उसे देख सकने वाली नजर चाहिए।
हम भारतीयों में गोरे रंग को लेकर एक मनोग्रंथि शुरू से रही है। क्योंकि यहां त्वचा का रंग प्राकृतिक, स्थानीय जलवायु के माफिक होने के साथ साथ सामाजिक और नस्ली श्रेष्ठता का प्रतीक भी है। गोरी लड़कियां पहले भी ज्यादा पसंद की जाती थी, लेकिन इस ‘काॅम्लेक्स’ को एक बाजार की शक्ल 1975 में तब मिली, जब बहुराष्ट्रीय कंपनी हिंदुस्तान लीवर ने भारत में ब्यूटी क्रीम ‘फेयर एंड लवली’ लांच की। इस के पीछे एक रिसर्च यह बताई जाती है कि विटामिन बी-3 चेहरे के रंग को निखारता है। इसके पहले महिलाअों में ‘अफगान स्नो’ काफी लोकप्रिय था।
यह भी संयोग था कि ‘फेयर एंड लवली’ का बाजार तैयार करने में फिल्म ‘सत्यं शिवम् सुंदरम्’ के मशहूर गाने ‘यशोमति मैया से बोले नंदलाला, राधा क्यों गोरी, मैं क्यों काला’ का भी कुछ हाथ रहा है। हालांकि इस गाने में कृष्ण में राधा के गोरे रंग को लेकर मासूम काॅम्लेक्स है, लेकिन यह गीत उस मानसिकता को भी प्रतिबिम्बित करता है, जो हमारे समाज में सदियों से पैठी है कि गोरा होने का अर्थ ही सुंदर, सुदर्शन और श्रेष्ठ होना है। इसीलिए हर भारतीय युवक को गोरी लड़की चाहिए, भले उसका खुद का रंग कैसा भी हो। लेकिन सांवला या काला होना मानो उस लड़की के लिए अभिशाप है।
बाजार ऐसे सामाजिक दुराग्रहों में अपनी संभावनाएं बखूबी खोज लेता है। बहुत कम लोगों को याद होगा कि जब शुरू में ‘फेयर एंड लवली’ के िवज्ञापन सिनेमा हाल, रेडियो और अखबारों में आते थे तो उसमें बताया जाता था कि ‘फेयर एंड लवली’ लगाने वाली युवतियों को बढि़या वर मिलेगा। संदेश था कि अच्छा वर और घर चाहिए तो चेहरे पर ‘फेयर एंड लवली’ ब्यूटी क्रीम लगाएं। इस ब्यूटी क्रीम ने देश में टीवी युग के प्रांरभ से ही उपभोक्ताअोंका ऐसा वर्ग खड़ा कर दिया, जो इसी भरोसे में जीने लगा कि अगर चेहरे का रंग गोरा न हुआ तो आधी जिंदगी बेकार है।
‘फेयर एंड लवली’ के विज्ञापनों ने हिंदी के ‘निखार’ शब्द को भी लोकप्रिय बनाया, जो अंग्रेजी के ‘लाइटनिंग’ का पर्याय था।
तब से लेकर ‘फेयर एंड लवली’ के विज्ञापन समय के हर बदलाव और आकांक्षाअों के िहसाब से बदलते रहे हैं। कभी यह क्रीम ‘विटामिन युक्त’ बनी तो कभी ‘हर्बल’। बाबा रामदेव ने भी दो साल पहले महिलाअों के िलए हर्बल ‘स्वर्ण कांति ब्यूटी क्रीम’ लांच की थी। ‘फेयर एंड लवली’ का विज्ञापन तो बाॅलीवुड की कई हिरोइनों ने किया है, जिनमें पद्मिनी कोल्हापुरे, जूही चावला, ऐश्वर्या राय शामिल हैं। आजकल यामी गौतम गोरेपन का प्रचार कर रही हैं।
यहां सवाल यह कि क्या ‘फेयर एंड लवली’ सचमुच सांवले या काले रंग के चेहरों को गोरा बनाती है ? क्या चेहरे के प्राकृतिक रंग की वास्तव में इतनी धुलाई संभव है? इस क्रीम में ऐसे कौन से गुणकारी तत्व हैं, जो प्रकृतिदत्त रंग को गोरेपन में तब्दील कर देते हैं ? ‘फेयर एंड लवली’ में ग्लिसरीन, अल्कोहल, कई तरह के एसिड और रसायन होते हैं। माना जाता है कि यह क्रीम मुंहासों को कम करती है और त्वचा का रंग थोड़ा साफ हो जाता है। असल में ‘त्वचा का यह निखार’ एक मानसिक संतोष ज्यादा है।
हमारे यहां बेटियों के मन में यह बात बचपन से बिठा दी जाती है कि उनका गोरा होना ही सुखी जीवन की कुंजी है। इसलिए नैसर्गिक गोरापन न होने पर अधिकांश लड़कियां कृत्रिम तरीके से गोरा होना चाहती हैं। गोरे पन की यह (थोपी गई) चाहत ब्यूटी बाजार को मोटा होने में भरपूर मदद करती है। इस ब्यूटी क्रीम बाजार का 53 फीसदी हिस्सा अकेले ‘फेयर एंड लवली’ के पास है। देश में यह मार्केट तेजी से बढ़ रहा है और 2023 तक इसके 5 हजार करोड़ रू. का हो जाने की उम्मीद है।
विचारणीय मुददा ये है कि भारत सहित दुनिया के कई देशों में गोरेपन का शर्तिया कारोबार करने और रंग को नस्ली श्रेष्ठता से जोड़कर देखने वाली कंपनी अचानक अपने उत्पाद का नाम क्यों बदलने जा रही है? कौन-सा दबाव है, जो ‘फेयर’ को ‘अनफेयर’ मानने लगा है ? क्योंकि नस्ली भेदभाव तो लंबे समय से चला आ रहा है। भारत जैसे बहुनस्ली और बहुजातीय देश में गोरे रंग के साथ उच्च वर्ण, कुलीनता और श्रेष्ठता के आग्रह भी जुड़े हुए हैं। हमारी सौंदर्य दृष्टि भी गोरेपन के इर्द-गिर्द ही भटकती है। जबकि हमारा नैसर्गिक रंग यूरोपीय लोगों की तरह गोरा है ही नहीं। यह मूलत: भूरा या काला है, लेकिन हमने सौंदर्यबोध गोरे रंग का का बनाने की कोशिश की है। यही विडंबना है। भारत में 2009 में एक एनजीअो ने महिलाअों के संदर्भ में ‘काला ही सुंदर है’ अभियान छेड़ा था, लेकिन उपभोक्तावादी संस्कृति में वह कही खो गया। अलबत्ता अश्वेतों में यह भावना जोर पकड़ रही है कि हमारी सौंदर्य दृष्टि काले को ही सुंदर मानने की होनी चाहिए।
यह मानने में संकोच नहीं कि ‘फेयर एंड लवली’ भले एक ब्यूटी क्रीम का नाम हो, लेकिन इसने भारत में एक मारक जुमले का दर्जा हासिल कर लिया है। यानी जो ‘फेयर’ है, वही ‘लवली’ भी है। या फिर अगर ‘लवली’ दिखना है तो कलर ‘फेयर’ ही होना चाहिए। और इस हसरत को साकार करने यह ब्यूटी क्रीम आपके मेक अप बाॅक्स में होना अनिवार्य है। लेकिन क्या कोई शब्द गहरे तक जमी जड़ों को हिला या बदल सकता है? कंपनी ‘फेयर’ की जगह क्या शब्द लाने वाली है, अभी स्पष्ट नहीं है। हिंदी में इसका प्रतिस्थापन सलोने, सांवले जैसे शब्दों से हो सकता है। लेकिन समूचा बाजार तंत्र पुरूष की नजर से महिला के सौंदर्य को देखने, आंकने और एप्रीशिएट करने का चालाकी भरा षडयंत्र रचता है।
चूंकि गोरापन पुरूषों की चाहत है, प्राथमिकता है, इसलिए हर स्त्री को गोरा बन ही जाना चाहिए। दुर्भाग्य से इस पुरूषप्रणीत सौंदर्य शास्त्र को स्त्री ने भी सच और अनिवार्य मान लिया है। यानी पुरूष की नजर में जंचना है तो ‘फेयर एंड लवली’ लगाना है। इसका अर्थ है कि कंपनी चेहरे को निखारने का फार्मूला तो बेचेगी मगर ‘रंग समावेशी’ तरीके से। या यूं कहें कि वह सभी नस्ली रंगों को समान ढंग से निखारने का सपना बेचेगी। यानी इसमें कोई रंग वरीयता नहीं होगी। हो सकता है कि भावी स्लोगन यह हो कि काला बेहतर काले में, सांवला बेहतर सांवले में या भूरापन बेहतर भूरेपन में बदलने के लिए फलां क्रीम खरीदें।
यह मुहिम महिलाअो और भारत जैसे देश में पुरूषों पर कितना असर करेगी, इसका केवल अंदाजा ही लगाया जा सकता है। गोरेपन की ललक जगाना आसान है, लेकिन नैसर्गिक रंग को ही सर्वश्रेष्ठ मनवाना बाजार के लिए भी टेढ़ी खीर है। बहरहाल ‘इसे नस्ली समानता और श्रेष्ठता के दुराग्रहों को घटाने की कोशिश के ‘फेयर एंड लवली’ मानना गलत नहीं है बशर्ते यह एक नए भेदभाव की शुरूआत न हो।
वरिष्ठ संपादक
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