गिरीश सारस्वत तथा श्रीकांत कलमकर
हमारी लाहुल-स्फीति की बाईक यात्रा
चौथी किश्त (सातंवा-आठवां दिन)
अगली सुबह बाइक में,नया ट्यूब डाल कर,हम चल दिए,हमारी आखरी मंजिल काजा के लिए,चितकुल से जैसे-जैसे,हम आगे बड़े,ऐसा लगने लगा,मानो हम संसार के अंतिम छोर की और जा रहे हो।
आबादी लगातार कम होती जा रही थी,दूर दूर तक इंसान तो क्या पेड़ पौधे नही तो पक्षी भी नजर नहीं आ रहे थे। रास्ते ऐसे मानो ऊँचे पहाड़ो में बस एक दरार बना दी हो,हमने इस रोमांच और चुनौतियों के लिए तैयार करना शुरू किया अपनेआपको।इसके अलावा कोई रास्ता भी नहीं था,सो हम बढते गए,पूह तक पहुचते पहुचते हम थक तो काफी चुके थे,परंतु रुकने का सवाल ही नहीं था। इस सबसे मुक्ति का एक ही रास्ता था और वो ये कि आगे बढते रहो,रास्ते की दुर्गमता से हम हैरान थे,एक और भयानक आवाज करती हुई सतलज थी,दूसरी और दुर्गम पहाड़ ,पथरीले रास्ते और आगे मिले एक बोर्ड ने, हमारी शंकाओ को दूर कर दिया, बी.आर.ओ के बोर्ड पर लिखा था, आप विश्व के सबसे दुर्गम मार्ग पर यात्रा कर रहे हे |
हमारी परेशानी को और बड़ा दिया,बाइक के लगभग ख़राब हो चुके अगले ब्रेक ने । अब अगले 100 km यानी काज़ा तक कोई मेकनिक नहीं था। शाम होते होते हम टाबू तक पहुच गए काज़ा,अभी भी 46 किलोमीटर दूर था,पर अब आगे बढने की हिम्मत हम में नहीं थी। हम शाम का मजा भी लेना चाहते थे,शाम खुबसूरत थी,उस पुराने बोद्ध मठो,विहार और गुम्फो में घूमते हुए, ऐसा लगा मानो किसी दूसरी दुनिया में आ गए हो।
उस छोटे से गांव के,छोटे से मोटेल में,उस समझदार स्थानीय महिला के, रसोई घर में,उस के हाथ के बने खाने को,तिब्बती स्टाइल में बैठ कर खाने में, जो आनंद आया,वो शब्दों में वर्णन करना,हमारे लिए तो संभव नहीं है। कई तरह के मजेदार लोगो से मिलना हुआ।बेंगलुरु का, एक यंग जोडा,सायकल से इस बियाबान मे,घुम रहा है,लडके की सायकल पंचर हो गई तो वह पैदल और लडकी आगे जाकर,शाम के रुकने खाने की व्यवस्था कर रही है। यह जोडा यहा पिछले तीन महिनो से घुम रहा है,और अगले तीन महीने, इधर ही रहने वाले है,सायकिलिंग करते हुए।मिलकर आश्चर्य भी हुआ और तस्सली भी हुई,की एक हम ही पागल नहीं हे। यायावरी के हम से भी बड़े बड़े दीवाने मौजूद पड़े हे।सचमुच ऐसे यायावरों से मिलकर,आत्मविश्वास और आत्मबल मे अभुतपूर्व वृद्धि होती है।जब भी कोई हम जैसे पागलों से पूछता है,कि तुम्हें क्या मिलता है,ऐसे भटकने से तो सामान्यतः तो मौन रहकर ही मुस्करा देते है हम, परंतु उसके जवाब इस तरह ही होते है और सामान्यतः यह पागलपंती ही होती है।
रास्ते मे जो,गांव कहो,शहर कहो या जो भी,जिनका की सफर के दौरान बडी उत्सुकता से इंतजार करते है,और जब वो आते है तो,पता चलता है,एक चाय पानी की दुकान पुरा नेतृत्व प्रदान कर रही है।बहुत आश्चर्य होता है,यह सब देखकर हमे,चलिये उनके नाम हैः-करछम,पोवारी, रिस्पा,पूह,कहब,चंगो,सुमदो और टेबो,जहां हम रात्रि विश्राम कर रहे है।199 किलोमीटर का आज सफर,अभुतपूर्व है,कितना भी लिखु मै,शब्दों मे मै,परंतु शायद जो आंखों मे और दिल मे है ,उसे बयान करने मे,न्याय कर पा रहा हु,ऐसा नही लगता है।
सुबह उठ कर हमने एक घंटा ब्रेक दुरुस्त करने की कोशिश की पर कोई फायदा नहीं हुआ,अब आगे बढना ही था,पर किस्मत अच्छी थी, आज रास्ता समतल था,सतलज का भयानक साथ अब छुट गया था और स्पिति नदी का शांत बहाव,किंतु रेत और धुल भरा पानी है,हमारी उंगली पकडकर हमारा साथ दे रहा है। बड़ी खुशनुमा सी सुबह में धीरे धीरे आगे बढ़ते हुए हम,8 बजे काज़ा में थे,हमारी आखिरी मंजिल,यही है। उस के बाद तो हमें वापसी ही करनी थी,हिमाचल के जनजातीय इलाके लाहोल-स्फीति के, जिला मुख्यालय के इस छोटे से गाँवनुमा शहर, काजा के छोटे से बाजार में,दो चक्कर लगा कर, हमने एक तिब्बती होटल मे नाश्ता किया,यहाँ का खुबसूरत बौद्ध पैगोडा के दर्शन किये,पर सबसे ज्यादा आनंद यहा की शांति में था।गाँव के आधे लोग, गाँव के बीच से बह रही छोटी सी,नहर नुमा नाली में,बहते कलकल चमकते हुए,सर्द पानी में कपडे धो रहे थे ।आज रविवार था, छुट्टी का दिन,मतलब नहाने और कपड़े धोने का दिन। पर हमारे पास तो एक और जरुरी काम था। सबसे जरुरी और वो था,अपनी बाइक का ब्रेक ठीक करवाना, जिसके बिना घर लौटने की सोचना ही मुश्किल था।
पुरे दो घंटे के इंतजार के बाद,इस शहर ही नहीं,इस पुरे 250 किलोमीटर के क्षेत्र का,एक मात्र मैकेनिक प्रकट हुआ,एक एक्सपर्ट डॉक्टर के तरह, वह निर्देश दे रहा था और हम लोग उसके मार्गदर्शन में, अपनी अपनी बाइक को ठीक करने में लग गए ।बहुत जरुरी होने पर ही,वह गाड़ी को हाथ लगाता था । खैर उस की विशेज्ञता कुछ काम नहीं आई,उस के सारे प्रयासों के बावजूद,हमारी गाड़ी के डिस्क ब्रेक ठीक नहीं हुआ,भारी मन से,उसे धन्यवाद और उसकी फीस चूका कर हम आगे बड़ गये।
देश के सबसे ऊँचे पेट्रोल पंप 12280 फीट पर,जहा पहले ही लाइन लगी थी,बिजली का कुछ पता नहीं था,जिसका नंबर आये वो पेडल घुमायेगा और अपनी गाडी में पेट्रोल भरेगा और किसी को भी 5 लीटर से ज्यादा पेट्रोल नहीं मिल रहा था।खैर उस बीहड़ प्रदेश में, पेट्रोल का मिलना ही,एक बड़ी नियामत जैसा था। इस खुबसूरत, अनूठे इलाके को छोड़ने का,मन ही नहीं कर रहा था, दूर दूर बिखरे मिटटी के पहाड़,दूर तक हरियाली का कोई नामो निशा नहीं, मिटटी के बने खुबसूरत घर, जिनकी छते बिलकुल सपाट और बड़ी भरी भरकम होती हे,जिस पर एक विशेष प्रकार की घास बिछी होती हे। इस पुरे शुष्क इलाके में पानी को देखना बड़ा दुर्लभ था,स्पिति नदी बह तो रही है,परंतु, पहाड़ों की धुल और रेत के कारण उसका पानी, मटमैला है,जिसे उपयोग मे लाने से पहले, अत्यधिक छानना पडेगा।
हा इस क्षेत्र मे ठण्ड हर तरफ है,जून में भी धुप में बैठना बड़ा राहत भरा है,पर धुप भी इतनी खतरनाक की कुछ ही देर में चेहरा लाल और होठ काले होने लगते थे| अभी इस खुबसूरत इलाके को,छोड़ने का बिलकुल मन ही नहीं हो रहा था | पर अभी तो यात्रा बहुत बाकी है ,यहा से निकल कर हमको रोहतांग पास के नीचे,लेह जाने वाले रास्ते को,पकड कर सच पास होते हुए ,डलहौजी होते हुए अमृतसर पहुचना था,सो हम निकल लिए ।
अद्भुत कारीगरी का नमूना ‘की’ मोनेस्ट्री को नजदीक से देखते हुए हम कुंजम पास पहुच गए, 13300 फीट पर ,बर्फ से ढका यह दर्रा लाहोल–स्फीति घाटी को,शेष हिमाचल से जोड़ता है।चंद्रभागा और स्पिति नदी का यह उद्गमस्थलबड़ा ही खुबसूरत नजर आ रहा था,चारों और शांति, दुर दुर तक कोई नहीं, कही दुर कोई पक्षी की,कलरव हो तो, ऐसा लगे जैसे, कानों मे कुछ कह रहा हो।इस अपार शांति को पाकर मन बहुत ही प्रफुल्लित और आनंदित हुआ, हम बड़े खुश थे 3 बज रहे थे,आज का, अभी तक का सफर अच्छा ही रहा था,ठंडी तेज हवाए और उस से उडती तीखी बालू को छोड़कर कोई विशेष तकलीफ नहीं हुई थी। और अब हमको आगे, बस नीचे ही उतरना था,पर पहाड़ो के साथ, यही दिक्कत है, जब भी आप,थोडा रिलैक्स या लापरवाह होते हे, तब ही मुसीबत आन पढ़ती है।
कुंजम पास(दर्रा) से नीचे उतरने वाला रास्ता ऐसा ही था बहते पानी, कीचडपिघलती हुई बर्फ,पत्थरो में बर्फ और बर्फ में पत्थर,कुछ समझ नहीं आ रहा था,जैसे तैसे 1-1.5 घंटे लगातार चलकर हम नीचे आ पाए,कपडे गीले,जूतों में कीचड़,नीचे एक गाँव का बोर्ड था ,हालाँकि वहा कोई घर नहीं था,थे तो बस दो टेंट और उनमे दो छोटी होटल,पहाड़ के ये छोटे ढाबेनुमा होटल,यहाँ इस रास्ते की लाइफ लाइन होते हे।यहाँ आप चाय-खाने से लेकर,रात में ठहरने तक का,सब इंतजाम रहता हे।यहा चार्ज होकर हम फिर आगे चल दिए,जहा यात्रा का सबसे कठिन दौर, हमारा इंतजार कर रहां था,होटल वाले के,इस आश्वाषन पर ही हम आगे बड़े थे,की आगे का रास्ता ठीक है,बस थोडा बहुत पानी मिलेगा,रास्ते में,पर ये क्या यहाँ आगे तो रास्ता ही नहीं था,नदी के पत्थरो पर चलते हुए,हमें ये भी पता भी नहीं था की,हम सही जा रहे या गलत,दूर दूर तक कोई वहां इंसान का अता-पता नहीं था ,शाम ढल रही थी,ठण्ड बढती जा रही थी,उपर से ये पगडंडी नुमा रास्ता,कभी दीखता कभी गायब हो जाता और उस सबसे ज्यादा मुसीबत,वो पिघलती बर्फ से बह बह कर आते झरने जो सड़क पर गिर रहे थे और फिर वही रास्ते पर नदी की तरह बहने लग जाते थे।
उन पर गिरते पड़ते आगे बढते,कपडे गीले जूतों में पानी,पाँव सुन्न उसपर सबसे बड़ा डर ये की,कही गाड़ी बंद हो गई या उसे कुछ हो गया तो,अगले दिन तक यहाँ कोई देखने वाला भी नहीं हे,क्योकि हमें मालूम था की,यह इस क्षेत्र का राजमार्ग तो है,परंतु रोड के नाम पर कुछ भी नही है और ट्रैफिक नगण्य है। क्या रास्ता था, पुरे दिन में हमे एक दो गाड़ी ही मिली थी,और अब तो शाम भी ढल रही थी,एक दो बार तो ऐसा लगा की,रास्ते में कोई चरवाहा मिल जाये तो, उसकी झोपडी में ही रुक जाये,परंतु दूर दूर तक वो भी नहीं मिला,सो कदम दर कदम हम बढते ही गए और अँधेरा होते होते,हम पहुच ही गए, हमारी मंजिल छतरू मंजिल क्या थी,बस दो-चार टेंटो का गाँव है।हम सबसे पहले टेंट में ही घुस गए,अँधेरा हो गया था,हमारा सबसे लम्बा दिन निकल गया था।
आज हम 167 किलोमीटर चले थे।उसमे भी आखिर के 31.4 किलोमीटर बेटल से छतरू तक,जिंदगी के सबसे कठिन रास्तों मे किए गये सफरो मे,सबसे उपर रहेंगा,इस दौरान हमने लगभग 120-130 छोटेबड़े झरने और नालो का क्रास किया।
बेटल से ही चिनाब नदी,हमारे धैर्य की परीक्षा भु ले रही थी और डरा भी रही थी।कभी बिलकुल पास आ जाती और कही पाट इतना चौडा कर लेती फिर कही बहाव तेज कर लेती थी। सचमुच यह रोमांच का चरमोत्कर्ष था आज का दिन। मै तो इतना थक गया था,बिना कुछ खाए पीये,बस जुते उतार कर बिस्तर में घुस गया,गि रीश मे इतनी ताकत थी की,खाना खाने चाय पीने और दुसरे बाईकर के दुखड़े सुनने के बाद सो जाये..