रविवारीय गपशप: अब तो फिर भी आसान है सरकारी नौकरी, वरना हमारे दौर में बहुतेरे कामों में थे बहुतेरे अड़ंगे

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अब तो सरकारी नौकरी में फिर भी चीजें आसान हो गई हैं, वरना हमारी नौकरी के शुरुआती दौर में बहुतेरे कामों में बहुतेरे अड़ंगे थे । उदाहरण के तौर पर विदेश भ्रमण के लिए अनुमति मिलना ही टेढ़ी खीर थी। मुझे याद है, नौकरी लगने दस सालों बाद भी जब मैंने केवल पासपोर्ट बनवाना चाहा तो एन.ओ.सी. के आवेदन पर ढेर सारी पूछताछ उद्भूत हो उठी , जैसे पासपोर्ट क्यों बनवाना चाहते हैं, कहाँ जाएँगे, वहाँ कोई संबंधी रहता है या यूँ ही जाना है, पैसे कहाँ से आयेंगे, कौन कौन जाएगा इत्यादि इत्यादि। मैंने सोचा इतने सारे प्रश्नों का कौन जवाब दे , तो पासपोर्ट बनवाने का ख़याल ही छोड़ दिया। कुछ दिनों बाद संयोग से संवर्ग के एक अनुभवी साथी ने कहा“ अरे तुम भी कहाँ भटक रहे हो, बस लिख कर दे दो, मानसरोवर यात्रा करनी है, तुरंत बन जाएगा और वही हुआ। ये और बात है कि इस पासपोर्ट पर मैं कभी मानसरोवर नहीं गया अलबत्ता ये तब काम आया जब एक शासकीय प्रयोजन से सिंगापुर जाने का मौक़ा आया।

सन् 2007 में जब मैं परिवहन विभाग में उपायुक्त प्रशासन के पद पर था तो सिंगापुर कोऑपरेशन प्रोग्राम के तहत“अर्बन ट्रांसपोर्ट प्लानिंग एंड डिजाइन“ के एक कोर्स के संबंध में भारत सरकार से पत्र आया। यह कार्यक्रम नान्यांग टेक्नोलॉजिकल यूनिवर्सिटी के द्वारा होना था, कार्यक्रम का लगभग सारा खर्च सिंगापुर सरकार के द्वारा उठाया जाना था। मैंने अपने आयुक्त एन.के. त्रिपाठी जी को जब इस बाबत बताया तो उन्होंने मेरा इस हद तक उत्साह वर्धन किया कि ट्रेनिंग में प्रतिभागिता के लिए भरने वाले फॉर्म को ख़ुद अपने सामने मुझसे भरवाया। विभाग से एंट्री भेज दी गई और संयोग से मेरा चयन इस प्रोग्राम के तहत सिंगापुर में होने वाले प्रशिक्षण के लिए हो गया , ट्रेनिंग में रुकने और खाने की व्यवस्था सहित दैनिक भत्ता तो वहीं से मिलना था, केवल आने जाने की हवाई यात्रा का व्यय स्वयं वहन करना था जो उन दिनों ग्यारह हज़ार रुपये था।

मैंने भारत सरकार द्वारा भेजे गये इस पत्र की प्रति शासन को भेजते हुए सिंगापुर जाने की अनुमति माँगी। पहली बार विदेश जाने का अवसर था सो मैं अनुमति मिलने की प्रक्रिया पर बारीकी से नज़र रखे हुआ था। परिवहन विभाग ने आयुक्त की अनुशंसा पर सहमति देते हुए नस्ती सामान्य प्रशासन विभाग को भेज दी और अंत में जी.ए.डी. ने भी नस्ती को वित्त विभाग भिजवा दिया। उन दिनों वित्त सचिव मेरे परिचित अफ़सर थे, जो भोपाल जाने के पहले शिवपुरी कलेक्टर हुआ करते थे। मैंने उन्हें अपनी अर्ज़ी लगा दी , पर दूसरे दिन पता चला कि नस्ती तो नकारात्मक टीप के साथ वित्त मंत्री को भेज दी गई है।

मुझे बड़ी हैरानी हुई, मैंने वित्त विभाग में पता किया तो सचिव महोदय बोले“ आनंद हम तो फ़ाइनेंस से नेगेटिव ही लिखेंगे, तुम लगे तो ऊपर से करा लो । मैंने माथा ठोक लिया, कुल जमा ग्यारह हज़ार का खर्च था, एक बारगी तो लगा कह दूँ कि ये खर्च भी मैं उठा लूँगा, पर कहता किस से? निराश होकर मैं अपने आयुक्त श्री त्रिपाठी जी के ऑफिस में पहुँचा और उन्हें ये स्थिति बताते हुए कहा “ सर अब तो मुश्किल लग रहा कि मैं जा पाऊँगा। त्रिपाठी जी ग़ज़ब की पॉजिटिव शख़्सियत थे, मेरा लटका मुँह देख कर मुस्कुराए और बोले “ बैठो , मैं कुछ करता हूँ।“

मेरे सामने ही उन्होंने तत्कालीन वित्त मंत्री राघव जी को फ़ोन लगाया और उन्हें मेरी पुरज़ोर सिफ़ारिश करते हुए, निवेदन किया कि प्रदेश शासन को निश्चित ही इस ट्रेनिंग प्रोग्राम में अपने अधिकारी को भेजना चाहिए । इतनी ज़ोरदार सिफ़ारिश का असर होना ही था , शाम तक तो मेरे पास वित्त मंत्री जी के विशेष सहायक का फ़ोन ही आ गया कि आप के विदेश जाने की अनुमति का प्रस्ताव शासन ने मंज़ूर कर दिया है और दूसरे दिन सामान्य प्रशासन विभाग का पत्र मुझे फ़ैक्स से मिल गया जिसमें मुझे सिंगापुर ट्रेनिंग में जाने के लिए अनुमत कर दिया गया था । इस तरह अगले सप्ताह मैं अपनी पहली विदेश यात्रा पर सिंगापुर के लिये रवाना हो गया ।