हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए…

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बाकलम – नितेश पाल

मार्च के दूसरे सप्ताह से शहर में मौतों का तांडव शुरू हुआ। ये तांडव लगातार जारी है। इस शहर ने सबकुछ देखा, जी देखा कैसे जनता के माई- बाप बनने वाले नेता और हुक्मरान इंसान की जान से ज्यादा परिस्थितियों को कैसे इमेज मेकिंग का खेल बना रहे है। नेता और अफसर जनता को केवल आंकड़ा मात्र मान रहे है।

इंदौर के एक सुरमा जो सालभर पहले सब कुछ ठीक कर दूंगा स्टाइल में आए थेभाट (दला आने के बाद पूरे शहर के तंत्र को उन्होंने अपने कुछ चारनलों) के साथ मिलकर खुद के आगे बौना साबित कर लिया था। साहब खुद जनसेवक की जगह जनप्रतिनिधी बन फैसले लेते रहे और साहब के पिछलग्गू गाल बजाते उनको बढ़ावा देते रहे। शहर में अच्छा कराने की बात करने वाले ये ही साहब जब शहर के श्मशान कम पड़ने लगे तो मुह छुपाकर गायब हो गए। अब कही नजर नही आ रहे। खुद को पॉलिटिशियन कहने वाले नेताओं के साथ साहब राजनीति कर गए, मीठा तो खुद गप कर गए और बुरा इनके माथे डाल दिया। इंदौर के नेताओ के लिए अमीर खुसरो का लिखा छंद बिल्कुल सही है।

खीर पकाई जतन से, चरखा दिया चला ।
आया कुत्ता खा गया, तू बैठी ढोल बजा ।।

इन नेताओं के साथ जो हो रहा है वो हो भी क्यो न, ये खुदको जनता से ऊपर मान बैठे थे। इनको जनता की नही अपनी इमेज की चिंता थी। इमेज बनाने के चक्कर मे कभी ऑक्सिजन का टैंकर रोकते तो कभी खाली टैंकर के नाम पर ही पब्लिसिटी करने में जुटे रहे।

केशव बलिराम हेडगेवार, गुरु गोलवलकर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, पंडित दीनदयाल के इन आधुनिक ओर आराम पसन्द चेलों को सरकारी माल की आदत पड़ गई है हालत ये है कि सरकार ( जो जनता की होती है, उसका धन लोकधन कहलाता है) का पैसा खर्च कर खुद की पब्लिसिटी करवा रहे है।

इंदौर में हुई हर एक मौत के लिए मैं इन्हें जिम्मेदार मानता हूं। क्योंकि शहर में इस बीमारी की विकरालता को रोकने के लिए क्राइसेस मैनेजमेंट कमेटी बनी थी। जिसमे शहर के कथित कर्ताधर्ता फैसले लेते थे। इनके फैसले जनता को आंख बंद कर मानना पड़ते थे, अब जनता जो भारतीय संविधान के तहत सर्वोच्च है वो आपसे सवाल कर रही है। इनके जवाब दो

– शहर में कोरोना के मामले बढ़ रहे थे, तब फरवरी में इस पर ध्यान क्यो नही दिया।
-शहर में सालभर पहले भी ऑक्सिजन की कमी हुई थी, उसको ध्यान में रखते हुए क्यो ऑक्सिजन की उपलब्धता पर ध्यान नही दिया गया। सालभर में क्या प्लान बनाया था सार्वजनिक करें।
– शहर में बीते साल भी अस्पतालों में लूट हो रही थी। जगह नही मिल रही थी, उसको देखते हुए क्या प्लानिंग की थी, क्यो अस्पतालों की बिस्तरों की पहले से व्यवस्था नही की गई। सालभर में क्या प्लानिंग की थी?
– अस्पताल कोरोना के नाम पर जनता को लूट रहे है, ये सच सामने आने के बाद भी क्यो अस्पतालों पर कार्रवाई क्यो नही की?
– रेमेडिसिवर जिसको सरकारी तौर पर मान्यता नही है, उसको इंदौर में बढ़ावा क्यो दिया। रेमिडिसिवर और फेबिफलु दवाओं के लिए जनता को क्यो भटकना पड़ रहा है। महीने भर में भी इसके लिए तैयारी क्यो नही की थी।
-शहर में सेनेटाइजेशन का काम समय पर क्यो नही किया गया।
-शहर में जब कोरोना की सेकंड वेब दस्तक दे चुकी थी तो स्वच्छता सर्वे के नाम पर आयोजन करवाने की क्या जरूरत थी। जनता की जान से ज्यादा क्या अपने नाम की अफसरो को ज्यादा चिंता थी?
– शहर में वैक्सीन सर्वे के दौरान क्या घर मे मौजूद बीमारो की जानकारी नही ली जा सकती थी। शायद उससे कुछ लोग कोरोना संक्रमण के फैलने के पहले ही पहचान में आ जाते।

इन सवालों के जवाब जनता मांग रही है। नाकारा बोलकर में किसी का अपमान नही करूंगा। क्योंकि नाकारा माने जाने वाला पत्थर हो या गोबर, वो भी समय पड़ने पर बहुत काम आते है।