मनुष्य के लिये आजीविका उपार्जन के साधन और उनकी उपयोगिता : मुनिराज श्री ऋषभरत्नविजयजी

RitikRajput
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मुनिराज श्री ऋषभरत्नविजयजी ने बताया कि जीविका के लिये अर्थ (धन) कमाना ज़रूरी है, क्योंकि जीवन के लिये यह महत्वपूर्ण आवश्यकता है। आजीविका उपार्जन सात प्रकार से करते है। वैश्य व्यापार से, वैध विद्या से, किसान खेती से, ग्वाला पशुपालन से, सुथार शिल्प से, नौकर सेवा से और भिखारी भिक्षा से। धर्म दृष्टि से कौन से उपाय अपनाना एवं कौन से नहीं करना और यदि करना पड़े तो किस तरह करना इन सभी पर विस्तृत चर्चा आज प्रवचन में की गई।

(1) व्यापार – हिंसा रहित होना चाहिये या कम से कम हिंसा वाला हो। वैश्य के लिये 360 प्रकार की वस्तुओं का व्यापार शास्त्रों में लिखा है। ब्याज से रकम देना एवं गिरवी रखना भी व्यापार में आता है। (2) विद्या – अनेक प्रकार की विध्याओं में वैद्य विद्या व दवाई की दुकान का व्यापार करना उचित नहीं बताया है क्योंकि इसमें गलत भाव की संभावना आ जाती है। जैसे वैध्य एवं दवा वाला चाहता है लोग रोग पीड़ित हों। परंतु अच्छी प्रकृति वाले या लोभी के स्वभाव के न हो उनको वैद्य विद्या से धन कमाना उचित है। (3,4) खेती एवं पशुपालन – विवेक वाले लोगों के लिये उचित आजीविका नहीं है फिर भी यदि यह करना पड़े तो चार बातों पर विशेष ध्यान दे। भूमि खेती योग्य हो, बीज बोने के समय का ध्यान रखे, जहाँ से मार्ग जाता हो वह भूमी छोड़ दे एवं अयोग्य फसल को न बोये। पशुपालन के लिये मन में बहुत दया भाव हो एवं पशुओं के कार्यों में स्वयं ध्यान रखकर चर्मच्छेद आदि का त्याग करें। चारा-पानी, साफ-सफाई, ईलाज़ आदि एवं उसके समय का ध्यान रखें।

5. शिल्प – इसके सौ प्रकार हैं। जो कार्य सिखाए बिना सीख जायें वह ‘कर्म’ है एवं जो सिखाया जाय वह ‘शिल्प’ है। व्यापार, कृषि एवं पशुपालन कर्म है एवं शेष सभी शिल्प हैं। जयना एवं यत्ना से किए कार्य शिल्प है। कुछ कलाओं को विद्या में एवं कुछ को शिल्प में लिया गया है।
(6) सेवा – चार प्रकार की सेवा होती है राजा की, अमलदार (प्रशासक) की, सेठ की एवं अन्य लोगों की। सेवक के लिये माना जाता है वह – मौन है तो मूक, बोलता है तो बकवासी, पास बैठे तो धृष्ट, दूर बैठे तो बुद्धिहीन, क्षमा करे तो कमजोर, सहन न करे तो कुलहीन। सेवा तो योगियों के लिये भी अगम्य है। सेवक का यह स्वरूप होने पर आजीविका का अन्य कोई उपाय न हो तो सेवा से भी निर्वाह किया जाता है। (7) भिक्षा – केवल साधु-भगवंत, मुनियों को ही धर्म कार्य के लिये आधार-भूत आहार,वस्त्र, पात्र आदि की भिक्षा उचित है। मनुष्य के रूप, गुण, लज्जा, सत्य, कुलक्रम, व स्वाभिमान की कीमत तब तक ही है जब तक वह ‘मुझे दो’ इस प्रकार से नहीं बोलता।

कर्म को बुद्धि से करने वाले उत्तम (व्यापार), हाथ से करने वाले मध्यम (कृषि व पशुपालन), पैर से करने वाले अधम (सेवा) एवं मस्तक पर भार उठाने वाले अधमाधम समझने चाहिये। राजेश जैन युवा ने बताया की मुनिवर का नीति वाक्य – “सब के अनुकूल होना हमारा पुण्य है,सब के लिये अनुकूल होना हमारी ऊंचाई है” दिलीप शाह, समिति अध्यक्ष ने जानकारी दी प. पू. आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय वीररत्नसूरीश्वरजी महाराजा की प्रथम मासिक पुण्य तिथि पर त्रिदिवसीय रत्नत्रयी महोत्सव तिलकेश्वर पार्श्वनाथ मंदिर में दिनाँक 11,12 एवं 13 अगस्त को भव्य आयोजन किया जा रहा है। इस अवसर पर श्री अपूर्वजी कोठारी, सुनीलजी मुरडिया, अरविंदजी गांधी, ऋषभजी छाजेड, उषा रांका, कामना बम, अंगूरबला गोलेछा एवं संघ के कई पुरुष व महिलायें उपस्थित थीं।