दिनेश निगम ‘त्यागी’
प्रदेश के बड़े नेताओं में शुमार ज्योतिरादित्य सिंधिया क्या भाजपा में जाकर फंस गए हैं? यह सवाल राजनीतिक गलियारों में चर्चा का मुख्य विषय बन गया है। इसके लिए जमीन कई राजनीतिक घटनाक्रमों से तैयार हुई है। जैसे, सिंधिया के सबसे खास गोविंद सिंह राजपूत एवं तुलसी सिलावट अब तक मंत्रिमंडल में शामिल नहीं हो सके। इस संबंध में सिंधिया पहले अकेले मुख्यमंत्री निवास जाकर शिवराज सिंह चौहान से मिले, दूसरी बार समर्थकों के लाव-लश्कर के साथ शक्ति प्रदर्शन करते हुए। भाजपा नेतृत्व पर इसका कोई असर नहीं हुआ। राजपूत एवं सिलावट तख्ता पलट के बाद सबसे पहले मंत्री बनने वालों में थे, लेकिन 6 माह पूरे होने के कारण इन्हें उप चुनाव के बीच इस्तीफा देना पड़ा था।
ये अब तक शपथ का इंतजार कर रहे हैं। निर्वाचन आयोग द्वारा चार अफसरों पर एफआईआर दर्ज करने के निर्देश वाले प्रकरण में सिंधिया घिर रहे हैं। जिस आयकर छापे को आधार बनाया गया है, उस रिपोर्ट में सिंधिया के साथ कांग्रेस छोड़कर आए आधा दर्जन से ज्यादा बागी फंस रहे हैं। इनमें मंत्री बिसाहूलाल सिंह, राजवर्धन सिंह दत्तीगांव, प्रद्युम्न सिंह तोमर, एंदल सिंह कंसाना सहित कई प्रमुख नाम शामिल है। साफ है, अब दबाव में सिंधिया हैं, भाजपा नहीं। सिंधिया और उनके समर्थकों को अहसास होने लगा है कि कहीं उनसे गलती तो नहीं हो गई।
शिवराज ने फेरा इनके अरमानों पर पानी….
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के एक बयान से भाजपा के उन नेताओं के अरमानों पर पानी फिर गया जो राजनीतिक नियुक्तियों के जरिए सरकार का हिस्सा बनना चाहते थे। चौहान ने मंत्रिमंडल की पिछली बैठक में कहा कि अब निगम-मंडलों का दायित्व भी संबंधित विभाग के मंत्री संभालेंगे। मुख्यमंत्री का यह रुख नया नहीं है। वे हमेशा मंत्रिमंडल विस्तार एवं राजनीतिक नियुक्तियों को टालने की कोशिश में रहते हैं। शायद इसलिए कि राजनीतिक नियुक्तियों एवं मंत्रिमंडल विस्तार के बाद जितने नेता संतुष्ट होते हैं, उससे कहीं ज्यादा असंतुष्ट।
नियुक्तियां रोके रखने से नेताओं की उम्मीद बरकरार रहती है और इस बहाने असंतोष भी थमा रहता है। इस पारी में भी शिवराज इसी रास्ते पर हैं। बैठकों के जरिए यह मैसेज तो दिया जा रहा है कि मंत्रिमंडल विस्तार एवं निगम-मंडलों में नियुक्तियों के लिए कसरत चल रही है लेकिन यह किया नहीं जा रहा। मुख्यमंत्री के सामने इस बार नई समस्या के रूप में ज्योतिरादित्य भी हैं। मंत्रिमंडल और राजनीतिक नियुक्तियों के लिए उनका भी दबाव है। इसलिए भले भाजपा के योग्य नेताओं को धक्का लगे, मंत्रिमंडल विस्तार एवं राजनीतिक नियुक्तयों को टालने की कोशिश आगे भी जारी रहने वाली है। ऐसा कर सिंधिया को भाजपा में उनकी जगह भी दिखाई जा रही है।
क्या कमलनाथ का दांव दबाव की राजनीति….
प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ के छिंदवाड़ा में दिए एक बयान को दबाव की राजनीति का दांव माना जा रहा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि कमलनाथ देश में कांग्रेस के बड़े नेताओं में शुमार हैं। वे कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के नजदीक हैं। दूसरा सच यह भी है कि प्रदेश की राजनीति में वे पूरी तरह असफल साबित हुए। मुख्यमंत्री बनने के बाद पहले लोकसभा चुनाव में पार्टी को बड़ी पराजय का सामना करना पड़ा। इसके बाद उनका ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ तालमेल नहीं बना और 15 साल बाद हाथ आई सत्ता फिसल गई।
28 सीटों के उप चुनाव हुए तो भी कांग्रेस की दुर्गति हुई। प्रारंभ से सारी शक्तियां अपने पास रखने के कारण कमलनाथ पहले से आलोचना के केंद्र में थे, इन असफलताओं से उन्हें बदलने की मांग जोर पकड़ने लगी। लिहाजा, आलोचकों का मुंह बंद करने के उद्देश्य से उन्होंने घर में विश्राम करने का दांव चल दिया। वर्ना वे दोनों पदों से इस्तीफा देकर विश्राम की बात करते, सिर्फ बयान देकर सनसनी न फैलाते। साफ है, कमलनाथ के बयान से उनके सन्यास की खबरों ने जोर जरूर पकड़ा पर वे फिलहाल सन्यास लेने की मंशा में दिखाई नहीं पड़ते। फिर भी खबर है कि उन्हें नेता प्रतिपक्ष नहीं बल्कि प्रदेश अध्यक्ष का पद छोड़ना पड़ सकता है।
बड़बोले बयानों से असहज भाजपा नेतृत्व….
पार्टी के कुछ नेताओं के बड़बोले बयानों के कारण भाजपा नेतृत्व असहज है और हैरान भी। कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों के आंदोलन से निबटने में सरकार और संगठन ने पूरी ताकत झोंक रखी है। एक तरफ आंदोलनकारियों से बात की कोशिश हो रही है, दूसरी तरफ किसानों को समझाने का अभियान चला रखा गया है। ऐसे में कुछ नेताओं के बयान आंदोलन को और भड़काने का काम कर रहे हैं। प्रदेश में इसके अगुआ हैं कृषि मंत्री कमल पटेल।
पटेल किसानों को सरकार के पक्ष में लामबंद करने का काम कर रहे हैं लेकिन आंदोलनरत किसानों को भड़काने की वजह भी बन रहे हैं। कभी वे कहते हैं कि किसान संगठन कुकुरमुत्तों की तरह उग आए हैं तो कभी आंदोलनकारियों को देश विरोधी ताकतों से जोड़ने लगते हैं। इसी प्रकार पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय के एक बयान से बवाल मच गया। उन्होंने कह दिया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रयास से प्रदेश की कांग्रेस सरकार गिराई गई। विवाद बढ़ा तो कहना पड़ा कि यह बात उन्होंने मजाक में कही थी। यदि बड़े नेता सोच समझ कर बोलने लगे तो न पार्टी को असहज होना पड़े और न ही उन्हें अपने बयानों पर सफाई देना पड़े।
क्या कांग्रेस में सभी नेता दुकानदार….
भाजपा के कैलाश विजयवर्गीय, कमल पटेल की तरह सज्जन सिंह वर्मा कांग्रेस के उन नेताओं में से हैं, जो कुछ भी बोल देते हैं, अपनी पार्टी के नेताओं को भी नहीं बख्शते। हाल का उनका एक बयान फिर चर्चा में है। विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बनने से जुड़े सवाल पर उन्होंने कहा कि मुझे कोई नेता प्रतिपक्ष नहीं बनाएगा, क्योंकि मैं बन गया तो कई नेताओं की दुकानें बंद हो जाएंगी। सवाल यह है कि आखिर उन्होंने किस पर निशाना साधा।
अनजाने ही सही लेकिन क्या उनके निशाने पर कमलनाथ आ गए, क्योंकि फिलहाल नेता प्रतिपक्ष का दायित्व उनके पास ही है। वर्मा खुद कमलनाथ के कट्टर समर्थक हैं, वे उन्हें निशाने पर ले लेंगे, भरोसा नहीं होता। पर जबान है, कुछ भी निकल सकता है। या फिर उन्होंने नेता प्रतिपक्ष पद के अन्य दावेदारों डा. गोविंद सिंह, बाला बच्चन, जीतू पटवारी आदि को दुकान चलाने वाला कह डाला। सज्जन के निशाने पर जो भी हो लेकिन उनके कथन से संदेश गया कि कांग्रेस में दुकान चलाने वाले नेता ज्यादा हैं। यदि ऐसा नहीं है तो सज्जन वर्मा को अपने कथन के बारे में स्पष्टीकरण देना चाहिए।