इंदौर। उस्ताद अल्लारखा खां साहब के शिष्य योगेश सम्सी (पंजाब घराना) का मानना है तबला सीखने की ललक रखने वाले शिष्य अपने फन में माहिर होना चाहते हैं तो उन्हें वादन के साथ गायन भी सीखनाचाहिए।वो बेझिझक स्वीकारते हैं कि गायन में वो खुद पारंगत नहीं हैं लेकिन ये खां साहब की संगत का हीअसर है कि मेरे एकल वादन कार्यक्रम में जब भी खां साहब सुनने आते ठीक बजाया कह कर संतुष्टी का भावदर्शाते। मेरे लिए तो उनका आना ही उपलब्धि रहती थी, तारीफ नहीं करने की वजह यही रहती थी कि कहीं मेंरियाज से भटक ना जाऊं, खुद को पारंगत ना मान बैठूं।
उस्ताद अलाउद्दीन खां अकादमी और संगीत गुरुकुल (गौतम-अदिति काले) द्वारा दो दिवसीय तबला प्रशिक्षणकार्यशाला में प्रशिक्षण देने आए पं योगेश सम्सी (पंजाब घराना) ने चर्चा में स्वीकारा इतनी कम अवधि में सब कुछ सिखा पाना संभव नहीं, मैं तो सीखने की ललक रखने वालों को रास्ता बता सकता हूं।तबला वादन कुछ तो शौकिया सीखते हैं, कुछ इस क्षेत्र में कुछ करने का ध्येय लेकर सीखते हैं, कुछ संगीत महाविद्यालयों से डिग्री लेने के उद्देश्य से सीखते हैं।तीनों का उद्देश्य है तो तबला सीखना ही लेकिन कामयाबी की मंजिल उसी के लिए आसान हो जाती है जो रियाज का पक्का रहता है।चाहे शौकिया सीख रहे हैं तो भी श्रद्धा, गुरु के प्रति आस्था, रियाज का अनुशासन जरूरी है।अब जो टीवी पर सुगम संगीत के शो में कलाकारोंके बीच स्पर्धा का माहौल नजर आता है ये प्लेटफार्म हैं तो अच्छे लेकिन विजेता के रूप में कम समय में मिली यह प्रसिद्धी उसे बिगाड़ सकती है।मैं आज भी सीख रहा हूं, यह तो अनंत सागर है जिसमें तैरते ही रहना है।
मैंने अल्लारखा खां साहब से तालीम ली, बाद में पं सुशील कुमार जैन से सीखा लेकिन मैं खुद को आज भीपारंगत इसलिए नहीं मानता कि संगीत का विराट स्वरूप है, क्योंकि हर गुरु अपने फन में माहिर है।एक सवाल के जवाब में उन्होंने बताया पखावज का ही सुधरा रूप तबला है।तबले की भाषा पखावज से श्रेष्ठतम है।पखावज ध्रुपद के साथ जबकि तबला विस्तार-खयाल के साथ बजाया जाता है इसलिए भी वह विस्तार का साज है। इस कार्यशाला के संबंध में अदिति गौतम काले का कहना था इसका उद्देश्य गायन के साथ संगत, वादन के साथ संगत और एकल तबला वादन की बारीकियों से प्रशिक्षुओं को अवगत कराना है।
मां की गोद में सीख लिया डग्गे पर ठेका लगाना
माता-पिता दोनों गायक हैं, लेकिन मैं वादक बन गया।मां भक्ति गीत गाती और साथ में डग्गे पर ठेका लगाती रहती। मेरी उम्र बमुश्किल तीन-चार साल होगी। मां को इस तरह गाते-बजाते देख मुझ में कब संस्कार विकसित हो गए पता नहीं चला।एक दिन पिताजी रियाज कर रहे थे उनके गाने के साथ मैंने सारे ठेके बजा दिए, वो चकित थे। चार साल की उम्र में मां के साथ एक भजन कार्यक्रम में पहली बार संगत की।नौ साल में अल्लारखा साहब से गंडा बंधन हुआ, मुझे तो तब गुरु-शिष्य वाले ये सारे रिवाज पता नहीं थे।अपने नाम के साथ सम्सी का उन्होंने कारण बताया कि कर्नाटक का यह वह गांव है जहां मेरा जन्म हुआ है।
गुरु से मिली तालीम का ही परिणाम रहा कि दुविधा ही परीक्षा में सफलता बन गई
उस्ताद अल्लारखा के साथ जुड़े प्रसंग याद करते हुए पं योगेश सम्सी बोले मैंने 24 साल उनके साथ गुजारे हैं, सप्ताह में 3-4 दिन साथ रहता था। मुंबई में प्रोग्राम था, उनकी तबीयत नासाज थी। बोले तबला लाए हो। मैंने तीन ताल से सीखा था। उन्होंने रुपक शुरु कर दिया। मेरा मानना है तबले की भाषा को अल्लारखा खां साहब ने सोच दी है, उनकी सोच की वजह से ही मैं पहली बार उनके साथ संगत कर पाया।उनके साथ चौबीस साल रहनेका ही परिणाम था कि इस दुविधा के बाद भी उनकी परीक्षा में सफल रहा, यह उनकी तालीम का ही नतीजा था।खां साहब जब अकेले मुझे सिखाते थे तो उन्हें मेरी कमियां, ताकत क्या है यह पता था। जब क्लास में सिखाते थे सब को एक दर्जे में सिखाते थे।
ट्रेन के अन्य यात्री शायद पागल समझ रहे थे
नामधारी संप्रदाय के सदगुरु जगजीत सिंह जी के यहां एक कार्यक्रम में हमें जाना था। शताब्दी एक्सप्रेस के जिस कूपे में हम बैठे थे तो क्या देखते हैं कि उसी में बिरजू महाराज और राजन-साजन मिश्र भी बैठे हैं। बिरजू महाराज और खां साहब के बीच पढ़ंत शुरु हो गई। तीन घंटे का यह सफर कब कट गया पता ही नहीं चला। बाकी सीटों पर बैठे यात्री तो शायद इन्हें पागल ही समझ रहे होंगे।
कीर्ति राणा