* दिनेश निगम ‘त्यागी’
दावों से मेल नहीं खाती यह कसरत….
– उप चुनावों में कांग्रेस के साथ भाजपा भी सभी 28 विधानसभा सीटों में जीत का दावा कर रही है। मतगणना से पहले भाजपा की ओर से हो रही कसरत इन दावों से मेल नहीं खाती। मैसेज जा रहा है कि भाजपा जीत को लेकर आश्वस्त नहीं है। तभी पहले से निर्दलीयों, सपा और बसपा के विधायकों को साधने की कोशिश हो रही है। भाजपा के उन विधायकों से भी बात की जा रही है, जिनकी पार्टी के प्रति निष्ठा संदेह के दायरे में है। इसके तहत पहले भाजपा के खिलाफ क्रास वोटिंग करने वाले आदिवासी विधायक शरद कौल को संतुष्ट किया गया। इसके बाद निर्दलीय केदार डाबर से भाजपा को समर्थन देने की घोषणा कराई गई। अब बसपा के संजीव सिंह कुशवाहा से मिलकर समर्थन लेने की कोशिश हुई। निर्दलीय सुरेंद्र सिंह से चर्चा की गई। भाजपा के खिलाफ क्रास वोटिंग करने वाले दूसरे विधायक नारायण त्रिपाठी को बुलाकर भी बात की गई। भाजपा को बहुमत के लिए सिर्फ 8 विधायकों की जरूरत है। पार्टी की इस कसरत से मैसेज जा रहा है कि भाजपा 8 सीटें जीतने को लेकर भी आश्वस्त नहीं है। हालांकि प्रबंधन एवं रणनीति की वजह से कांग्रेस की तुलना में भाजपा बहुत आगे है।
भाजपा नहीं कर पाई ‘डैमेज कंट्रोल’….
– एक्जिट पोल से संकेत मिल रहे हैं कि प्रदेश में भाजपा की सत्ता आराम से बरकरार रहेगी। बावजूद इसके पार्टी ने मतदान के बाद जिस तरह भाजपा के वरिष्ठ नेताओं गौरीशंकर शेजवार और गजराज सिंह सिकरवार के साथ सांची से पिछला चुनाव लड़े मुदित शेजवार को कारण बताओं नोटिस जारी किया, इससे पता चलता है कि कांग्रे्रस के बागियों के कारण भाजपा नेताओं में पैदा असंतोष व नाराजगी पर पार्टी नेतृत्व पूरी तरह से ‘डैमेज कंट्रोल’ नहीं कर पाया। चंबल-ग्वालियर के साथ मालवा-निमाड़ से भी कई नाराज नेताओं के अंत तक संतुष्ट न होने की खबरें हैं। अधिकृत तौर पर कोई शिकायत नहीं हुई, इसलिए उन्हें नोटिस नहीं दिया गया। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि भाजपा के साथ ज्योतिरादित्य सिंधिया की ताकत मिल जाने के बाद उप चुनावों में भाजपा को अधिकांश सीटें जीतना चाहिए, लेकिन ऐसा होता नहीं दिखाई पड़ रहा। इसकी सिर्फ दो वजह बताई जा रही हैं। एक, कांग्रेस से गद्दारी का मुद्दा हर मतदाता तक पहुंचना और दूसरा, भाजपा नेतृत्व द्वारा पार्टी के सभी असंतुष्ट नेताओं को न मना पाना। हालांकि इस संभावना पर कितनी दम है, यह उप चुनाव के नतीजे आने के बाद तय होगा।
उमा की ‘प्रचंड राजनीति’ के मायने….
– देश-प्रदेश की राजनीति में भाजपा की फायर ब्रांड नेत्री साध्वी उमा भारती की गिनती ‘प्रचंड’ नेताओं में होती रही है। उनकी ऐसी राजनीति के जितने किस्से लोगों की जुबान पर हैं, शायद ही किसी दूसरे नेता के हों। ऐसी राजनीति का उमा को नुकसान हुआ और फायदा भी। फायदा यह कि लंबे समय तक वे भाजपा की पहली पक्ति के नेताओं में शुमार रहीं और जो चाहा वह किया। नुकसान यह कि उन्हें भाजपा छोड़कर अलग पार्टी बनाना बड़ी। न चाहते हुए मध्यप्रदेश की राजनीति से दूर जाना पड़ा। अपवाद छोड़ दें तो पिछले कुछ वर्षों से उमा ने काम की अपनी शैली में बदलाव किया है। लेकिन उप चुनाव प्रचार अभियान के दौरान उनके द्वारा की गई एक घोषणा से भाजपा के कई नेताओं की नींद उड़ गई है। उन्होंने कहा कि आने वाले समय में वे फिर ‘प्रचंड राजनीति’ करेंगी और 2024 में चुनाव भी लड़ेंगी। साफ है उमा की यह घोषणा भाजपा के उन नेताओं के लिए शुभ नहीं है, जिनकी वजह से उनको प्रदेश की राजनीति से बाहर होना पड़ा था। 2024 में अभी काफी समय है लेकिन उमा की घोषणा के साथ भाजपा में नए समीकरण बनना शुरू हो गए हैं। जनता को एक बार फिर उमा की ‘प्रचंड राजनीति’ का इंतजार है।
महाराज ने नहीं की होगी ऐसी उम्मीद….
– महाराज अर्थात ज्योतिरादित्य सिंधिया ने समर्थकों के साथ कांग्रेस छोड़ भाजपा में आकर अच्छा किया या बुरा, यह कुछ समय बाद पता चलेगा। पर प्रारंभिक संकेत उनके लिए शुभ नहीं हैं। जैसी छीछालेदर उनकी इन उप चुनावों के दौरान हुई, शायद ही कभी हुइ हो। एक, कांग्रेस ने जैसी चढ़ाई कर उन्हें कटघरे में खड़ा किया, वैसी हिम्मत कभी भाजपा भी नहीं कर पाई। आजादी की लड़ाई से लेकर अब तक सिंधिया परिवार को गद्दार ठहराने में कांग्रेस ने कोई कसर नहीं छोड़ी। दो, उनके समर्थकों ने ही जैसे जवाब उन्हें दिए, इसकी भी कल्पना उन्होंने नहीं की होगी। एक वायरल वीडियो सबसे ज्यादा चर्चित रहा। इसमें वे अपने एक समर्थक से फोन लगाकर अशोकनगर प्रत्याशी जजपाल सिंह जज्जी के लिए समर्थन मांगते हैं। समर्थक बिना प्रणाम किए जवाब देता है, आपके प्रत्याशी ने जब मेरे भाई की पिटाई कराई थी, तब आप कहां थे। जवाब सुनकर सिंधिया हक्के-बक्के थे। इसके अलावा भी उनके कई वीडियो वायरल हुए, जिसमें उन्हें टिकट के लिए पैसा जमा करने की बात करते दिखाया गया। साफ है, सिंधिया इस बार जितना एक्सपोज हुए, यह उन्होंने स्वप्न में भी नहीं सोचा होगा।
इन दो दिग्गजों की साख भी दांव पर….
– सभी 28 विधानसभा सीटों के उप चुनाव में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और ज्योतिरादित्य सिंधिया की साख दांव पर है तो बुंदेलखंड की दो सीटों में भाजपा के दो अन्य दिग्गजों का सब कुछ दांव पर लगा है। ये हैं पूर्व नेता प्रतिपक्ष और सरकार के पीडब्ल्यूडी मंत्री गोपाल भार्गव एवं शिवराज के खास रणनीतिकार नगरीय प्रशासन मंत्री भूपेंद्र सिंह। दोनों सागर जिले से हैं। दोनों को सबसे कठिन सीटों सुरखी और मलेहरा में पार्टी को जिताने की जवाबदारी सौंपी गई थी। सुरखी में भूपेंद्र चुनाव प्रभारी थे और मलेहरा में गोपाल भार्गव। सुरखी में भाजपा प्रत्याशी गोविंद सिंह राजपूत की भी अपनी काफी पूंजी है। इस पूंजी की बदौलत ही वे कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीतते रहे हैं लेकिन मलेहरा में भाजपा प्रत्याशी प्रद्युम्न सिंह लोधी की अपनी कोई पूंजी नहीं। वे दमोह से आकर यहां पहला चुनाव जीते थे। कांग्रेस से बगावत के कारण दोनों सीटों में प्रत्याशियों के खिलाफ महौल था। सुरखी में गोविंद और भूपेंद्र ने मिलकर जल्दी हालात संभाल लिए लेकिन मलेहरा में अकेले गोपाल को सारी कसरत करना पड़ी। उनके बेटे अभिषेक ने भी खूब साथ दिया और बाद में उमा भारती भी मैदान में उतरी। किसकी कैसी प्रतिष्ठा बची, ये नतीजे तय करेंगे।