न्याय के संघर्ष में महिला संतो के योगदान को याद रखना जरूरी

Share on:

जब हम निर्गुण संतो एवं सूफियों की बात करते हैं तब हमें सहज ही कबीर,दादू,रैदास,नानक जैसे महान संतों की तस्वीर सामने आती है मोइद्दीन चिस्ती,पंजाब के बाबा फरीद हजरत निजामुद्दीन औलिया जैसे मानवता और प्रेम का पैगाम देने वाले सूफी संतों को सिद्दत से याद किया जाता है पर इसी दौर की कश्मीर की लल्लयद, या ललेश्वरी,सहजो बाई, बेना बाई, बाबरी साहिबा जैसी महान महिला संतो के योगदान को बिसार दिया जाता है जिन्होंने अपने समय के बंद समाज के भेदभाव का मुकाबला किया तथा न्यायपूर्ण व्यवस्था के लिए संघर्ष किया।

“ढाई आखर “द्वारा आयोजित “ततसंवाद”वेबिनार में डॉ सुरेश पटेल ‘निर्गुणी परंपरा में न्याय के लिए संघर्ष “विषय पर विचार व्यक्त किये।उन्होंने अपने प्रभावी व्याख्यान में कश्मीरी महिला संत ‘लल्लयद ‘(1320-1392)के बारे में बताया कि उन्होंने तमाम सामाजिक, एवं रूढ़िगत धार्मिक अन्धविश्वासों का सामना करने हुए अपने क्रन्तिकारी विचार रखे जिन्हें साहित्य में ‘वाक रचनाएं’कहा जाता है ।उन्हें आज भीहर कश्मीरी परिवार में बहुत सिद्दत से याद किया जाता है।कश्मीरी बोली भाषा की वे जनक कही जाती हैं।वे निर्वस्त्र रहीं और अपनी बात निडरता से बुलंद करती रहीं ।ऐसी महिला संत की अन्य मिसाल मिलना मुश्किल है।

इसी तरह बाबरी साहिबा(1542-1605)मुस्लिम राजघराने से ताल्लुक रखती थी और विधवा थी अनेक सूफी एवं पीर उन्हें अपना गुरु मानते थे।सामाजिक भेदभाव के चलते उनकी सिर्फ आठ पंक्तियां उपलब्ध हैं बाकी लुप्त कर दी गई।उनके अद्भुत ज्ञान और विद्रोह को देखकर उन्हें बावरी(पगली)कहा गया। निर्गुनपरम्परा के महिला एवं पुरुष संतो ने उस समय की सामाजिक, राजनैतिक,आर्थिक असमानता के लिए अपनी वाणी एवं कार्यों से न्याय के लिए जमकर संघर्ष किया जिससे उन्हें राजाओं एवं हैसियत दार लोगों ने प्रताड़ित भी किया।

उनके संघर्षों के ही परिणाम था कि आजादी के आंदोलन की जमीन बनी ।और पूरे देश में जागृति की लहर फैल गयी।संविधान सभा के विद्वान निर्माताओं ने संविधान की उद्देशिका में सामाजिक ,आर्थिक एवं राजनैतिक न्याय को प्रमुखता से सम्मलित किया गया। इस अवसर पर हरकेश वुगलिया ने संविधान में वर्णित न्याय की अवधारणा पर अपने विचार व्यक्त किये ।बेविनार में देश भर के चर्चाकारों ने हिस्सेदारी की आभार डॉ रामनारायण स्याग ने माना