आज रविवार, भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी तिथि है। आज शतभिषा नक्षत्र, “आनन्द” नाम संवत् 2078 है
( उक्त जानकारी उज्जैन के पञ्चाङ्गों के अनुसार है) आज अनन्त चतुर्दशी व्रत है। श्राद्ध पक्ष पर विशेष व विस्तृत जानकारी
विजय अड़ीचवाल
पूर्वाह्न काल, सन्ध्या और रात्रि में श्राद्ध नहीं करना चाहिए।
चतुर्दशी तिथि को श्राद्ध नहीं करना चाहिए। परन्तु शस्त्र, दुर्घटना से मृतक का श्राद्ध चतुर्दशी को करना चाहिए।
श्राद्ध काल के समय यदि अतिथि आ जाए तो उसका सत्कार अवश्य करें।
श्राद्ध के निमित्त मांग कर लाया गया दूध, भैंस और एक खुर वाले पशुओं का दूध श्राद्ध के काम में नहीं लेना चाहिए।
(विष्णु पुराण 3/16/11), (मार्कण्डेय पुराण 32/ 17 से 19), (ब्रह्म पुराण 220/ 169)
राजमाष, मसूर, अरहर, चना, गाजर, कुम्हड़ा, गोल लोकी, बैंगन, शलजम, हींग, प्याज, लहसुन, काला नमक, काला जीरा, सिंघाड़ा, जामुन, पिप्पली, सुपारी, कुलथी, कैथ, महुआ, अलसी, पीली सरसों यह सब वस्तुएं श्राद्ध में वर्जित है।
मृत कुंवारे बच्चों की तिथि ज्ञात नहीं हो तो उनका पञ्चमी तिथि को श्राद्ध किया जाता है।
सौभाग्यवती स्त्री की मृत्यु तिथि ज्ञात नहीं हो तो उनका नवमी तिथि के दिन श्राद्ध किया जाता है।
जिनकी शस्त्रों से, दुर्घटना से या अकाल मृत्यु हुई हो, किंतु उनकी मृत्यु तिथि ज्ञात नहीं हो तो उनका श्राद्ध चतुर्दशी तिथि को किया जाता है।
उन सभी ज्ञात – अज्ञातजनों की जिनकी मृत्यु तिथि ज्ञात नहीं है, उन सबका श्राद्ध सर्वपितृ अमावस्या के दिन किया जाता है।
2 वर्ष से छोटे बालक का कोई श्राद्ध नहीं किया जाता है।
द्वौ दैवे पितृकार्ये त्रीनेकैकमुभयत्र वा।
भोजयेत्सुसमृद्धोऽपि न प्रसज्जेत विस्तरे।।
(मनुस्मृति, बौधायन स्मृति, श्रीमद् भागवत, मत्स्य पुराण, मार्कंडेय पुराण, वराह पुराण, अग्नि पुराण, पारस्कर गृह्यसूत्र परिशिष्ट)
अर्थात् – देव कार्य में दो और पितृकार्य में तीन अथवा दोनों में एक – एक ब्राह्मण को भोजन कराना चाहिए।
अत्यन्त धनी होने पर भी श्राद्धकर्म में अधिक विस्तार नहीं करना चाहिए।
श्राद्ध में मित्रता का सम्बंध जोड़ने के स्वार्थ से भोजन नहीं करना चाहिए।
श्राद्ध में जौ, मूंग, गेहूं, खीर, धान, तिल, मटर, कचनार, सरसों, परवल, कांगनी, सावा, चावल, आम, अमड़ा, बेल, अनार, बिजौरा, पुराना ऑंवला, नारियल, फालसा, नारंगी, खजूर, अंगूर, नीलकैथ, चिरौंजी, बेर, जङ्गली बेर, इन्द्रजौ और बतुआ – इनमें से कोई भी वस्तु यत्नपूर्वक लेना चाहिए।
श्राद्ध के भोजन में खीर और मालपुए का अधिक महत्त्व है।
खीर – पूरी भी विकल्प है, परन्तु पूरी घी में बनी हो।
तेल में बनी पूरी और खीर साथ खाने से चर्म व अन्य रोग उत्पन्न होते हैं।
श्राद्ध पक्ष में तर्पण और ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए।
श्राद्ध का भोजन करने वाले ब्राह्मण के आसन के आसपास काले तिल बिखेर देना चाहिए।
काले तिल व कुशा से पितृ प्रसन्न होते हैं।
अनामिका उंगली में चांदी या सोने की अंगूठी पहन कर तर्पण करना चाहिए।
श्राद्ध में केले के पत्ते व मिट्टी ( चीनी), स्टील के पात्र में ब्राह्मण को भोजन कराना निषेध है।
श्राद्ध का भोजन करने वाले ब्राह्मण को लोहे के पात्र से भोजन नहीं परोसना चाहिए।
श्राद्ध काल में वस्त्र का दान विशेष रुप से करना चाहिए।
श्राद्ध व अमावस्या के दिन घर में मन्थन क्रिया ( दही बिलोना ) करना निषेध है।
पितरों का स्थान आकाश और दक्षिण दिशा है। दक्षिण दिशा में मुंह कर पितृ तर्पण करना चाहिए।
श्राद्ध के निमित्त स्त्री को भोजन नहीं कराना चाहिए। (बृहत्पराशर स्मृति 7/71)
श्राद्ध में श्रद्धा होना जरूरी है। क्रोध व जल्दबाजी नहीं होना चाहिए।
सोने चांदी और ताम्बे के पात्र पितरों के पात्र कहे जाते हैं। श्राद्ध में चांदी की चर्चा और दर्शन से पितर प्रसन्न होते हैं।
श्राद्ध में काले तिल की मात्रा आवश्यक है।
श्राद्ध के निमित्त भोजन वेद ज्ञाता ब्राह्मण, यति और जरूरतमंद को ही कराना चाहिए।
श्राद्ध के निमित्त ब्राह्मणों को भोजन कराते समय उस दिन 10 कि. मी. के भीतर रहने वाले अपने दामाद, भांजा – भांजी, बहन और भाई बन्धुओं को भी आमन्त्रित कर पारिवारिक सद्भाव के साथ बैठकर भोजन करना चाहिए।
श्राद्ध में मुख्य रूप से मालती, जूही, चम्पा, कमल के सफेद पुष्प लेना चाहिए।
तुलसी, तिल, कुश, दूध, गंगा जल, शहद, दौहित्र और कुतप से पितृ अधिक प्रसन्न होते हैं।
मृत्यु के 13 महीने बाद मृत्यु तिथि पर (वार्षिक मृत्यु तिथि पर) श्राद्ध करने की आवश्यकता नहीं है। केवल ब्राह्मण भोजन करा देना चाहिए।
दूसरा वर्ष पूरा होने पर तीसरे वर्ष के प्रथम दिन अर्थात् दूसरे वर्ष की वार्षिक तिथि पर श्राद्ध करना चाहिए तथा इसके बाद आने वाले पितृपक्ष में “मृत्यु तिथि वाली तिथि” के दिन श्राद्ध में मिलाना चाहिए। (श्राद्ध चिन्तामणि)
इस दौरान अन्य पितरों का श्राद्ध करते रहना चाहिए।
श्राद्ध में पितरों की तृप्ति वेदज्ञाता ब्राह्मणों के द्वारा ही होती है।
श्राद्ध के समय कषाय वस्त्र ( रंगीन, काले – नीले कपड़े) नहीं पहनना चाहिेए और ना ही श्राद्ध के निमित्त भोजन करने वाले ब्राह्मण को।
जिस दिन श्राद्ध हो उस दिन क्षौरकर्म ( कटिंग, शेविंग) नहीं करना चाहिए।
जिस दिन अपने घर में श्राद्ध हो, उस दिन दूसरे के घर में भोजन करना निषेध माना गया है।
श्राद्ध में क्रिया और वाक्य की शुद्धता बहुत जरूरी है।
संयुक्त परिवार हो तो श्राद्ध ज्येष्ठ पुत्र द्वारा एक ही स्थान पर सम्पन्न होना चाहिए।
यदि पुत्र अलग-अलग रहते हों तो श्राद्ध भी सभी को अलग – अलग करना चाहिए।
श्राद्ध करने का अधिकार इनमें से कोई एक – क्रमशः पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र, दौहित्र (पुत्री का पुत्र), पत्नी, भाई, भतीजा, पिता, माता, पुत्रवधू, बहन, भानजा, वंशज को है।
हेमाद्रि के अनुसार श्राद्ध में पिता की पिण्ड दान आदि सम्पूर्ण क्रिया पुत्र को ही करनी चाहिए। पुत्र के अभाव में पत्नी करें और पत्नी के अभाव में सहोदर भाई को करनी चाहिए।
यदि गया श्राद्ध कर दिया हो तो मृत्यु तिथि व श्राद्ध पक्ष में तिथि पर धूप नहीं देवें व पिण्डदान ना करें। उस दिन सिर्फ तर्पण करें, गाय और ब्राह्मण को श्राद्ध निमित्त भोजन कराएं।
गया श्राद्ध सभी पुत्र (छोटे-बड़े) कर सकते हैं।
बद्रीनाथ में ब्रह्म कपाली नहीं कराई हो तो गयाजी में एक बार नहीं, अनेक बार श्राद्ध कर सकते हैं।
गया श्राद्ध कराने के बाद ही बद्रीनाथ तीर्थ में ब्रह्म कपाली कराएं। यदि बद्रीनाथ में पहले ब्रह्म कपाली करा दी हो तो फिर गयाजी में श्राद्ध नहीं करना चाहिए।
घर की किसी भी स्त्री को श्राद्ध के निमित्त भोजन करने वाले ब्राह्मणों के उच्छिष्ट (झूठे) पात्रों ( थाली) को नहीं उठाना चाहिए। श्राद्धकर्ता ही उन पात्रों को उठाए।
श्राद्ध में ब्राह्मणों को सिर ढककर (पगड़ी, टोपी आदि) श्राद्ध का भोजन नहीं करना चाहिए।
जिस श्राद्ध में क्रोध और उतावलापन होता है, वह निष्फल हो जाता है।
श्राद्ध में देशी गाय व उसका दूध, दही, घी का बहुत अधिक महत्त्व है।
यदि श्राद्ध वाले दिन घर में सूतक हो तो गौशाला जाकर दक्षिण दिशा की ओर मुंह कर अपने दोनों हाथ आकाश में ऊपर उठा कर सम्बंधित पितृदेव का नाम लेकर उनके निमित्त गाय को घास देने का संकल्प करें। फिर यथाशक्ति घास गाय को खिलाने से पितृ प्रसन्न हो जाते हैं।
श्राद्ध में चन्दन, खस, कर्पूर सहित सफेद चन्दन ही पितृ कार्य के लिए प्रशस्त हैं।
अन्य पुरानी लकड़ियों के चन्दन उपयोग में नहीं लेना चाहिए। कस्तूरी, लाल चन्दन, गोरोचन, सल्लक तथा पूतिक आदि निषिद्ध हैं।
पितरों को सदैव तर्जनी उंगली से ही चन्दन देना चाहिए।
श्राद्ध में कदम्ब, केवड़ा, मौलसिरी, बेलपत्र, करवीर, लाल तथा काले रंग के सभी फूल, उग्र गन्ध वाले और गन्ध रहित सभी फूल वर्जित हैं।
ब्राह्मण के यहां श्राद्ध के निमित्त भोजन करने वाले ब्राह्मण द्वारा श्राद्ध समाप्ति के बाद अस्तु स्वधा बोलना चाहिए। इसी तरह क्षत्रिय के यहां पितर: प्रीयन्ताम् और वैश्य के यहां अक्षय्य मस्तु शब्द का उच्चारण करना चाहिए, तभी श्राद्ध सम्पूर्ण होता है।
एकादशी होने से श्राद्ध में चावल की वजाय साबूदाना या अन्य फलियारी वस्तु की खीर बनाना चाहिए।
एकादशी पर श्राद्ध निमित्त फलाहारी भोजन बनाना चाहिए।
श्राद्ध समाप्ति पश्चात ब्राह्मण को घर की सीमा तक पहुंचाने के लिए नहीं जाना चाहिए।
अशौच ( सूतक) में यदि श्राद्ध आ जाए तो तर्पण, ब्राह्मण भोजन तथा व्रत नहीं करना चाहिए। सिर्फ गाय को पितृ निमित्त घास डालना चाहिए।
ब्राह्मण उपलब्ध ना हो तो कम से कम गो ग्रास निकालकर गाय को श्राद्ध के निमित्त खिला देना चाहिए।
श्राद्ध में ब्राह्मणों को बैठाकर पैर धोना चाहिए। खड़े होकर पैर धोने पर पितर निराश होकर चले जाते हैं।
सात्विक अन्न – फलों से पितरों की सर्वोत्तम तृप्ति होती है।
श्राद्ध में अग्नि पर दूषित गुग्गल, बुरा गोंद और सिर्फ घी डालना निषिद्ध है। घी के साथ श्राद्ध निमित्त बनाए गए भोजन की आहुति देना चाहिए।
श्राद्ध के निमित्त भोजन करने वाले ब्राह्मणों को भोजन करते समय मौन रहना चाहिए।
पुत्र को कम से कम वर्ष में दो बार श्राद्ध अवश्य करना चाहिए।
जिस दिन व्यक्ति की मृत्यु होती है उस तिथि पर वार्षिक श्राद्ध तथा दूसरा पितृपक्ष में श्राद्ध अवश्य करना चाहिए।
श्राद्ध के दिन पांच स्थानों पर श्राद्ध के निमित्त बनी समस्त थोड़ी – थोड़ी वस्तु दो – दो पूरी के साथ पत्ते पर रखकर निकालना चाहिए।
एक भाग गाय को, दूसरा भाग श्वान ( कुत्ते ) को, तीसरा भाग कौवे को, चौथा भाग देवताओं को और पांचवां भाग चींटियों को दे दें।
10 हजार निरक्षर ब्राह्मण भोजन करते हैं, वहां यदि वेदों का ज्ञाता एक ही ब्राह्मण श्राद्ध निमित्त भोजन करके संतुष्ट हो जाए तो उन 10 लाख ब्राह्मणों के बराबर फल को देता है।(मनुस्मृति 3/131)
श्राद्ध करने के पूर्व क्षौरकर्म नहीं करना या कराना चाहिए।
श्राद्ध करने के पूर्व कपड़े भी नहीं धोना चाहिए।
तर्पण में दोनों हाथों को संयुक्त कर जल देना चाहिए।
दूसरे की भूमि पर श्राद्ध नहीं करना चाहिए।
परिस्थितिवश घर से बाहर यदि श्राद्ध करना हो तो जङ्गल, पर्वत, पुण्य तीर्थ, देव मन्दिर में श्राद्ध कर सकते हैं, क्योंकि इन पर किसी का स्वामित्व नहीं होता है।
देव कार्य में तो ब्राह्मणों की परीक्षा न करें, परन्तु पितृकार्य में तो प्रयत्न पूर्वक ब्राह्मण की परीक्षा करें। (मनु स्मृति, शंख स्मृति, व्याघ्रपाद स्मृति, स्कन्द पुराण)
श्राद्ध में ब्राह्मण की उपस्थिति आवश्यक है।
श्राद्ध में यदि ब्राह्मण भोजन कराना सम्भव ना हो तो सूखे अन्न, घृत, चीनी, नमक आदि षडरस वस्तुओं को दक्षिणा सहित श्राद्ध भोजन के निमित्त किसी वेदज्ञाता ब्राह्मण को दे देना चाहिए।
परिस्थितिवश यदि वेदज्ञाता ब्राह्मण न प्राप्त हो तो कम से कम गो ग्रास निकालकर गायों को इस निमित्त खिला देना चाहिए।
श्राद्ध के समय रेशमी, नेपाली कम्बल, ऊन, काष्ठ, तृण, पर्ण , कुश आदि के आसन श्रेष्ठ माने गए हैं।
काष्ठ आसनों ( लकड़ी के आसन) में शमी, काश्मीरी, शल्ल, कदम्ब, जामुन, आम, मौलसिरी एवं वरुण के आसन श्रेष्ठ हैं।
किसी भी आसन में लोहे की कील नहीं होनी चाहिए।
जहां तक हो सके, आसन का रंग सफेद हो।
जिनकी मृत्यु तिथि ज्ञात नहीं है, उनका अमावस्या के दिन श्राद्ध करना चाहिए।
अमावस्या को समस्त पितरों के नाम पर तर्पण भी करना चाहिए।
जिनके परिवार में कोई मातृशक्ति सती हुई हो तो अमावस्या के दिन सती के निमित्त श्राद्ध करना चाहिए।
देव कार्यादपि सदा पितृकार्यं विशिष्यते।
देवताभ्यो हि पूर्वं पितृणामाप्यायनं वरम्।।
(हेमाद्रि में वायु तथा ब्रह्मवैवर्त का वचन)
अर्थात् – देव कार्य की अपेक्षा पितृ कार्य की विशेषता मानी गई है। अतः देव कार्य से पूर्व पितरों को तृप्त करना चाहिए।
वृद्धिकाल में पुत्र जन्म तथा विवाह आदि मांगलिक कार्य में जो श्राद्ध किया जाता है, उसे वृद्धिश्राद्ध (नान्दी श्राद्ध) कहते हैं।
इस नान्दी श्राद्ध का स्वरूप हम लोगों ने बदल दिया है। जब भी विवाह आदि माङ्गलिक कार्य होते हैं, तब हम नान्दी श्राद्ध न करते हुए मात्र पितरों के निमित्त धन और वस्त्र लेकर बहन – बेटियों, ब्राह्मण को दे देते हैं।
कूर्म पुराण, याज्ञवल्क्य स्मृति, ब्रह्मोक्त याज्ञवल्क्य संहिता, महाभारत आदि में चतुर्दशी के दिन श्राद्ध नहीं करने का स्पष्ट उल्लेख है।
चतुर्दशी तिथि का श्राद्ध अमावस्या के दिन करना चाहिए।
चतुर्दशी के दिन सिर्फ युद्ध में शहीद हुए सैनिक, दुर्घटना से, शास्त्राघात से मृत हुए व्यक्ति का श्राद्ध होता है।
शुक्ल पक्ष की अपेक्षा कृष्ण पक्ष और पूर्वाह्न की अपेक्षा कुतप वेला का समय श्राद्ध के लिए श्रेष्ठ माना जाता है।
श्राद्ध एकान्त में और गुप्त रूप से करना चाहिए।
श्राद्ध के भोजन पर रज:स्वला स्त्री और श्वान की दृष्टि नहीं पड़ना चाहिए।
जिसके घर में श्वान होते हैं, उसके घर में पितृ प्रवेश नहीं करते हैं। (कूर्मपुराण,औशन स्मृति)