“मन का आ-भार”- समीक्षा तैलंग

Shraddha Pancholi
Updated on:
Samiksha Telang

समीक्षा तैलंग।  “मन का आ-भार”

कभी टूटे हुए तारे को देखा है किसी ने? देखा नहीं! लेकिन उसकी विश जरूर मांगते देखा होगा। हमारी फिल्मों में अक्सर टूटता हुआ तारा दिखाया जाता है। उम्मीद बनकर कोई आए तो किसे बुरा लगता है! उम्मीद हरेक के जीने का सहारा होती है। उसी तरह मन को न कोई देख पाता है और न समझ पाता है। हरेक का मन भी अलग-अलग होता है। क्या आकृति होगी इस मन की, कौन जाने?

जब बोझ बढता है तो यही मन जाने कितने मनों भारी हो जाता है। शरीर के वजन से उसकी तुलना बेमानी है। भारी मन तलाश करता है हल्का होने का। उस टूटते हुए तारे जैसा ही वो भी भारमुक्त हो जाना चाहता है। हल्का होकर उड़ना चाहता है लंबी उड़ान, उन सारस की तरह जो मीलों दूरी तय करते हैं खुद को जीवित रखने के लिए। इस मन को भी हल्का होना पड़ता है जिससे शरीर जीवित रह सके।

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मन का बोझ कोई उठाना नहीं चाहता लेकिन कोई खास अपना जो शायद सुन ले! कह दे कि जी ले अपनी जिंदगी!। मन ढूंढता है ऐसा आसरा जो उसकी परवाह करे। बोझिल जिंदगी कोई ढोना नहीं चाहता। इसीलिए कहावत भी है कि मन चंगा तो कठौती में गंगा।

मन उतना ही तो पवित्र है जितनी गंगा। गंगा में पापी और साधु सभी गोते लगाते हैं। फिर भी वो भार नहीं लेती खुद पर। यदि भार ले! तो प्राणी के मुक्ति का मार्ग बंद हो जाए। मन भी उसी गंगा का एक स्थल है। वो स्थल भले ही उफनते पानी से भरा हो लेकिन उसकी तलहट पर शांति होती है। वही शांति उसे उसकी सीमा का उल्लंघन नहीं करने देती। लेकिन जब अंदर तक वह हिल जाती है तब वह सारी हदें तोड़ती हुई अपने क्षेत्र में आने वाले को जलमग्न करती चलती है। कोई तब भी नहीं समझ पाता उसके उल्लंघन की व्यथा को। लेकिन उसके बाद वो ऊपर से अंदर तक पूरी तरह शांत हो चुकी होती है। नये जीवन की राह पर आगे, और आगे चल पड़ती है। यही मन का भार वो उल्लंघन के साथ त्याग देती है।

धरती का मन जब अशांत होता है, बोझ से दबा होता है तभी प्रलय आता है। प्रलय न आए इसके लिए कोई कुछ प्रयास भी नहीं करता। किसी स्त्री के मन का बोझ भी उतना ही गहरा होता है जितना की धरती का गर्भ। जब अति होती है तो सीमा लांघना उसका भी धर्म हो जाता है। आखिर उसे भी खुश रहने और जीवन में आगे बढ़ने का हक है।