श्रवण गर्ग
लोगों की यह जानने की भारी उत्सुकता है कि बंगाल चुनावों के नतीजे क्या होंगे ? ममता बनर्जी हारेंगी या जीत जाएँगी ? सवाल वास्तव में उलटा होना चाहिए। वह यह कि बंगाल में नरेंद्र मोदी चुनाव जीत पाएँगे या नहीं? बंगाल में चुनाव ममता और मोदी के बीच हो रहा है। वहाँ पार्टियाँ गौण हैं। किसी भी राज्य में ऐसा पहली बार हो रहा है कि एक प्रधानमंत्री किसी मुख्य मंत्री के ख़िलाफ़ चुनाव का नेतृत्व कर रहा हो।
अगर भाजपा बंगाल में वर्ष 2016 की अपनी तीन सीटों की संख्या को बढ़ाकर (अमित शाह के मुताबिक़) दो सौ पार पहुँचा देगी तो भारत के संसदीय इतिहास का सबसे बड़ा अजूबा हो जाएगा। ऐसा हो गया तो फिर मान लेना होगा कि भाजपा अगले साल न सिर्फ़ उत्तर प्रदेश में 2017 को दोहराएगी, साल 2024 में लोक सभा की साढ़े चार सौ सीटें प्राप्त करना चाहेगी। भाजपा ने बंगाल के चुनावों को जिस हाई पिच पर लाकर 2014 के लोक सभा चुनावों जैसी सनसनी पैदा कर दी है उसमें अब ज़्यादा महत्वपूर्ण मोदी हो गए हैं।
ज़ाहिर यह भी हो गया है कि बंगाल के चुनाव परिणाम जिस भी तरह के निकलें, दो मई के बाद देश में विपक्ष की राजनीति भी एक नई करवट ले सकती है। इस नई करवट का नया आयाम यह होगा कि अभी तक केवल उत्तर भारत के राजनीतिक दाव-पेचों पर ही केंद्रित रहने वाली केंद्र की राजनीति में अब दक्षिण की सक्रिय भागीदारी भी सुनिश्चित होने वाली है।वे तमाम लोग, जो हाल के सालों में विपक्ष के नेतृत्व की तलाश राहुल गांधी, मायावती, अखिलेश यादव आदि में ही कर-करके थके जा रहे थे, विधान सभा चुनावों के दौरान उत्पन्न हुए घटनाक्रमों में कुछ नई संभावनाएं ढूँढ सकते हैं।
इतना स्पष्ट है कि पाँच राज्यों में चुनावों बाद जिस नए विपक्ष का उदय सम्भावित है उसका नेतृत्व कांग्रेस नहीं कर पाएगी। उसके पीछे के कारण भी सबको पता हैं। ग़ैर-भाजपाई विपक्ष में ऐसी कई पार्टियाँ हैं कांग्रेस जिनके ख़िलाफ़ चुनाव लड़ती रहती है। मसलन बंगाल और केरल में अभी ऐसा ही हो रहा है। कहा यह भी जा सकता है कि सामूहिक नेतृत्व वाला कोई विपक्ष वर्ष 1977 की तरह अगले साल उत्तर प्रदेश में होने वाले विधान सभा चुनावों के पहले आकार ग्रहण कर ले। ममता बनर्जी ही नहीं, उद्धव ठाकरे, पी विजयन, एम के स्टालिन, जगन मोहन रेड्डी, के. चंद्रशेखर राव, अमरिंदर सिंह, हेमंत सोरेन, अरविंद केजरीवाल , तेजस्वी यादव, महबूबा मुफ़्ती आदि कई मुख्यमंत्री और नेता इस समय मोदी के साथ टकराव की मुद्रा में हैं।
नंदीग्राम में होने वाले दूसरे चरण के मतदान के पहले ही अगर ममता ने सभी प्रमुख विपक्षी नेताओं को चिट्ठी लिखकर भाजपा के ख़िलाफ़ एकजुट होने का आह्वान कर दिया, तो उसके पीछे कोई बड़ा कारण होना चाहिए। ऐसी कोई पहल ममता ने न तो 2016 के विधान सभा चुनावों और न ही 2019 के लोक सभा चुनावों के दौरान या बाद में की थी। पिछले लोक सभा चुनावों में तो ममता की ज़मीन ही भाजपा ने खिसका दी थी। भाजपा ने लोक सभा की कुल 42 में से 18 सीटें प्राप्त कर अपना वोट शेयर चार गुना कर लिया था। यह एक अलग मुद्दा है कि ममता ने उसके बाद भी कोई सबक़ नहीं सीखा। विपक्षी नेताओं को लिखे पत्र में ममता ने भाजपा पर देश में एक-दलीय शासन व्यवस्था क़ायम करने का आरोप लगाया है।
बंगाल चुनावों से मुक्त होते ही ममता बनर्जी भाजपा के ख़िलाफ़ विपक्षी राज्य सरकारों और जनता के बीच बढ़ रही नाराज़गी को किसी बड़े आंदोलन में परिवर्तित करने के काम में जुटने का इरादा रखती हैं। राज्य में द्वितीय चरण के मतदान के पहले ही उन्होंने घोषणा भी की कि :’अभी एक पैर पर बंगाल जीतूँगी और फिर दो पैरों पर दिल्ली।’ पर सवाल यह है कि तृणमूल अगर चुनावों के बाद बंगाल में सरकार नहीं बना पाती है तो क्या ममता के लिए बंगाल से बाहर निकल पाना सम्भव हो पाएगा ? वैसी स्थिति में तो बची-खुची तृणमूल भी समाप्त कर दी जाएगी। एक क्षेत्रीय पार्टी तृणमूल को मूल से समाप्त करना भाजपा के लिए इस समय पहली राष्ट्रीय ज़रूरत बन गई है। कांग्रेस-मुक्त भारत अभियान पीछे छूट गया है।
इस बात पर थोड़ा आश्चर्य व्यक्त किया जा सकता है कि राहुल और प्रियंका गांधी ने बंगाल में अपनी पार्टी के प्रत्याशियों के पक्ष में असम, केरल और तमिलनाडु की तरह चुनाव प्रचार क्यों नहीं किया। कांग्रेस बंगाल में 92 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। बाक़ी सीटें संयुक्त मोर्चे के घटकों -वाम पार्टियों और आइ एस एफ (इंडियन सेक्युलर फ़्रंट )-को दी गईं है। दोनों ही नेता चार अप्रैल की शाम ही बाक़ी राज्यों के चुनाव प्रचार से मुक्त भी हो गए थे।
बंगाल में अभी भी पाँच चरणों का मतदान बाक़ी है।देखना दिलचस्प होगा कि राहुल और प्रियंका बंगाल में प्रवेश करते हैं या नहीं। कांग्रेस को पिछले विधान सभा चुनाव में 44 सीटें प्राप्त हुईं थीं। चुनाव परिणामों के बाद ही पता चल सकेगा कि कांग्रेस बंगाल के चुनावों में वास्तव में किसे फ़ायदा पहुँचाने के लिए मैदान में थी। यह भी गौर करने लायक़ है कि प्रधानमंत्री अथवा शाह ने बंगाल में अपने चुनाव प्रचार के दौरान ज़्यादातर हमले ममता पर ही किए।
भाजपा के ख़िलाफ़ विपक्षी एकता के सवाल को लेकर लिखी गई ममता की चिट्ठी पर आम आदमी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल ,राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी , नेशनल कांफ्रेंस ,सपा आदि ने सकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त की है पर कांग्रेस अभी मौन है। याद किया जा सकता है कि पिछले साल सोनिया गांधी द्वारा बुलाई गई विपक्षी नेताओं की बैठक में ममता ने भाग नहीं लिया था।
दो मई के बाद विपक्ष की राजनीति में जो भी परिवर्तन आए, सम्भव है उसमें अधिक नुक़सान कांग्रेस का ही हो। वह इस मायने में कि बदली हुई परिस्थितियों में विपक्षी एकता की धुरी और उसका मुख्यालय बदल सकता है। समझना मुश्किल नहीं है कि बंगाल फ़तह को भाजपा ने अपना राष्ट्रीय मिशन क्यों बना रखा है! ममता को किसी भी क़ीमत पर दिल्ली का रुख़ नहीं करने देना है! क्या ऐसा सम्भव हो पाएगा ? बंगाल में अब सब कुछ सम्भव है।