जो अस्पताल बिकाऊ थे, वो टिकाऊ हो गए…

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ग्रेटर कैलाश, अरबिंदो, सिनर्जी अस्पताल के कोरोना के पहले बाजार में सौदे थे

राजेश राठौर

इंदौर : डेढ़ साल पहले जब कोरोना नहीं आया था, तब शहर के नामचीन अस्पताल बिकने के लिए बाजार में सौदे थे। अब ये ही अस्पताल वाले न केवल कर्जे से मुक्त हो गए हैं, बल्कि टिकाऊ हो गए हैं। हम बात कर रहे हैं इंदौर के उन अस्पतालों की जो बाजार में बिकने के लिए चर्चा में थे। सबसे पहले ग्रेटर कैलाश नर्सिंग होम की बात करते हैं। लगभग सवा सौ से डेढ़ सौ करोड़ के बीच में ये अस्पताल बिकने की चर्चा थी। अस्पताल के डॉक्टरों को वेतन और कमीशन नहीं मिल पा रहा था। कई खरीददार अस्पताल देख चुके थे।

इस अस्पताल पर बैंक और बाजार का कर्जा लगभग पचास करोड़ से ज्यादा का था। इसके बाद कोरोना काल आया और इस अस्पताल को संजीवनी मिल गई। चेक, चिट्ठी के आधार पर बाजार से लिया पैसा भी चुका दिया और बैंक की किस्तें भी आधी से ज्यादा चुक गईं, क्योंकि दो बार की कोरोना लहर में इस अस्पताल को काफी पैसा मिला। दूसरा बड़ा अस्पताल अरबिंदो है, जिसको बेचने के लिए लगभग बारह सौ करोड़ रुपए में रिलायंस समूह को देने की चर्चा अंतिम दौर में थी। यहां पर भी डॉक्टरों का पैसा नहीं मिल रहा था। अरबिंदो के लिए भी कोरोना कहर फायदेमंद साबित हुआ। इस अस्पताल का नाम मध्यप्रदेश के सबसे आगे पायदान पर है, जिसे सरकारी योजनाओं में इलाज करने पर लगभग सत्तर करोड़ रुपए से ज्यादा का पैसा मिला। मध्यप्रदेश के जिन निजी अस्पतालों को लगभग 237 करोड़ रुपए मिले हैं, उसमें इस अस्पताल का नाम सबसे ऊपर है। इस अस्पताल में संपन्न परिवार के मरीज भी बड़ी संख्या में भर्ती हुए। तीसरे नंबर पर सिनर्जी अस्पताल है। इसके संचालक डॉ. सुबोध जैन ने बाकी भागीदारों को कुछ पैसा दे दिया था। पैसों को लेकर विवाद भी चला। मामला थाने तक भी पहुंचा था। चार करोड़ रुपए से ज्यादा का यह अस्पताल कोरोना काल के कारण बिकने से बच गया। अस्पताल में भर्ती हुए मरीजों ने लाखों रुपए इस अस्पताल को दिए। डॉक्टरों ने मिलकर ये अस्पताल शुरू किया था। बाद में लगातार झगड़े होते रहे। एप्पल अस्पताल की बात करें तो उसे भी डॉक्टरों ने मिलकर शुरू किया था। बाद में झगड़े होने पर अमित सांवेर ने खरीद लिया था।

कोरोना काल के पहले यह अस्पताल भी बिकाऊ था, लेकिन कोरोना लहर ने इसे भी बिकने से रोक दिया। इसके अलावा कोरोना काल के पहले गीता भवन चौराहे के पास बना विशेष अस्पताल लगभग साठ करोड़ रुपए में बिकने की चर्चा थी। अस्पताल के मालिक ने रिंगरोड पर नया विशेष अस्पताल बना लिया था। यह अस्पताल चालू कंडीशन में बिक रहा था। बाद में इस अस्पताल के मालिक को कोरोना काल में संजीवनी मिल गई। पुराने अस्पताल का सारा सामान लेकर नए अस्पताल में चले गए। इसी बीच ज्यूपिटर ग्रुप से इनके नए अस्पताल का अनुबंध हुआ। उसी बीच कोरोना लहर ने अस्पताल को आर्थिक रूप से मजबूती दे दी। पुराने विशेष अस्पताल की बिल्डिंग का सौदा अभी भी लगभग पैंतालीस करोड़ रुपए में बाजार में है। इसके अलावा गोकुलदास अस्पताल की आर्थिक हालत भी पहले से बेहतर हो गई है। ये सभी वो अस्पताल हैं, जो कोरोना काल के पहले आर्थिक रूप से कमजोर हो गए थे, लेकिन डेढ़ साल में इन अस्पतालों में मरीजों की भर्ती कराने के लिए बेड नहीं मिल पा रहे थे।

इसके अलावा गली-मोहल्ले के अस्पताल भी ठीक हालत में आ गए। कई गली-मोहल्ले के अस्पतालों के गलियारों में मरीज भर्ती थे। लाखों रुपए के बिल बने और इन अस्पतालों की रीढ़ की हड्डी मजबूत हो गई। सरकारी योजनाओं में इलाज कराने वालों में इंडेक्स का नाम भी है, जिनको सरकार से ही लगभग पैंतालीस करोड़ रुपए मिला है। भोपाल के चिरायु अस्पताल की आर्थिक हालत भी मजबूत हो गई है। यहां पर सरकारी योजनाओं में इलाज कराने पर लगभग पचास करोड़ रुपए सरकार से ही मिला है। अस्पतालों की मजबूती का सबसे बड़ा कारण ये रहा कि इनको प्रधानमंत्री आयुष्मान योजना और बीमा कंपनियों से ही काफी पैसा मिला है। ट्रस्ट वाले अस्पतालों की बात करें तो गुमास्ता नगर में बने अरिहंत की आर्थिक स्थिति भी मजबूत हुई है। अब इन सब अस्पताल वालों ने तीसरी कोरोना लहर की संभावना के चलते पर्याप्त इंतजाम जुटा लिए हैं। राजश्री, अपोलो जैसे निजी अस्पताल में तो अब वैक्सीन के ही लगभग साढ़े आठ सौ रुपए लिए जा रहे हैं।