समान नागरिक संहिता की चुनौतियां कम नहीं

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राजेश बादल

इन दिनों भारत के सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता लागू करने की बहस चल पड़ी है। यह बहस दिल्ली उच्च न्यायालय की एक टिप्पणी के बाद आई है। न्यायालय ने कहा है कि संविधान की धारा 44 की मंशा के मुताबिक़ सारे देश वासियों के लिए समान संहिता पर अमल होना चाहिए। यह धारा कहती है,”राज्य देश के सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता के निर्माण का प्रयास करेगी”। जब संविधान सभा में इस पर बहस हो रही थी तो वह काफी उत्तेजना से भरी थी।

पचहत्तर साल बाद भी अगर इस मसले पर संसद में चर्चा हो जाए तो यक़ीन मानिए कि वह भी काफी हंगामाख़ेज़ रहेगी। भारत जैसे विविधताओं से भरे मुल्क में रहते हुए अपने अपने प्रतीकों को छोड़ना किसी भी धर्म,जाति या संप्रदाय के लिए आसान नहीं है। बावजूद इसके कि भारत के प्रति देशभक्ति में कोई कमी नही है। फिर क्या कारण है कि संविधान की मंशा होते हुए भी सभी धर्मों के अनुयाइयों के लिए समान संहिता तैयार करना इतना जटिल और उलझन भरा है।

इस मुश्किल का सामना संविधान सभा ने भी किया था। तभी तो धारा 44 में राज्य की ओर से संहिता निर्माण के सिर्फ़ प्रयास की बात कही गई है। क्योंकि वाकई में यह बहुत कठिन था।इस गुत्थी को समझने के लिए हमें संविधान सभा के कुछ पन्नों को पलटना पड़ेगा। दरअसल अँगरेज़ों ने भी ग़ुलाम हिन्दुस्तान में समान नागरिक संहिता का प्रयास किया था। बाद में वह सिर्फ़ हिंदुओं के लिए बन गया। इसके लिए1941में बीएन राव की अगुआई में समिति गठित की गई थी।

समिति ने देश भर में दौरे के बाद 1946 में हिंदू निजी क़ानून का एक मसविदा तैयार किया। इस मसविदे को 1948 में संविधान सभा ने एक और कमेटी के सामने पेश किया। इसके अध्यक्ष ख़ुद क़ानून मंत्री डॉक्टर भीमराव आंबेडकर थे। उन्होंने इसका बारीक़ अध्ययन किया।इसमें सिखों,बौद्धों,जैनियों और हिंदुओं को शामिल किया गया था। पर मुस्लिमों ,ईसाइयों और पारसियों को किस आधार पर छोड़ा गया था इसका उत्तर बहुत साफ़ नहीं है।

यह ज़रूर है कि मुस्लिम समुदाय समान संहिता के सख़्त ख़िलाफ़ था।इसके अलावा संविधान सभा के अध्यक्ष डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ही इसके पक्ष में नहीं थे। विरोध इतना व्यापक हुआ कि जवाहरलाल नेहरू और भीमराव आंबेडकर अकेले पड़ गए। नेहरू और राजेंद्र प्रसाद के बीच लंबा पत्र व्यवहार हुआ। यह इतना तीखा हो गया कि सरदार पटेल को सीधे सीधे राजेंद्र प्रसाद से कहना पड़ा कि वे अब बस करें। आने वाले दिनों में राष्ट्रपति चुनाव भी होगा और इसका खामियाज़ा उन्हें उठाना पड़ सकता है।

इसके बाद ही वे चुप हुए और बाद में राष्ट्रपति चुने गए। संविधान सभा ने जब संविधान सभा पर मोहर लगा दी तो एक कामचलाऊ संसद चुनाव तक के लिए गठित की गई। इस संसद में भी प्रस्तावित समान संहिता पर गरमा गरम बहस हुई।संसद के बाहर सड़कों पर लोग उतर आए। हालाँकि राष्ट्रपति बनने के बाद भी राजेंद्र प्रसाद इसके खिलाफ थे। उनका तर्क़ था कि यह निर्वाचित संसद नहीं है।

इसके अधिकार सीमित हैं। बात सच थी। नौबत यहाँ तक पहुँची कि नेहरूजी ने हथियार डाल दिए। उनके इस रूप को देखकर दुखी आंबेडकर ने मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया। बाद में दस साल तक भारी रस्साकशी के बाद आंबेडकर का हिंदू कोड बिल पास तो हुआ मगर उसके उसके टुकड़े टुकड़े हो गए थे। एक बार नेहरू से पूछा गया कि वे पूरे देश में तत्काल समान नागरिक संहिता लागू क्यों नहीं करते।

उनके पास तो बहुमत से चुनी सरकार है। नेहरू जी का उत्तर था,”मैं समान संहिता के पक्ष में हूँ,लेकिन मुझे नहीं लगता कि वर्तमान हालात इसके अनुकूल हैं। मैं इसके लिए माहौल बनाना चाहता हूँ। हिंदू कोड बिल उसी दिशा में क़दम है। वैसे तो कहानी लंबी है पर इस पृष्ठभूमि से कई संकेत मिलते हैं। कहा जा सकता है कि नेहरू के बाद किसी सरकार या प्रधानमंत्री ने इस नाज़ुक और संवेदनशील मसले पर गंभीरतापूर्वक काम नहीं किया।

नेहरू जिस माहौल बनाने की बात कर रहे थे,उस दिशा में कोई आगे नहीं बढ़ा। सिर्फ़ चुनाव में बहुमत मिलने और ऐसे मुद्दों पर कैबिनेट में फ़ैसला लेने से ही बात नहीं बनती। उसके लिए राष्ट्र को भावनात्मक और मानसिक रूप से तैयार करना होता है। बहुमत तो नेहरूजी के पास अपार था,पर वे कभी जन भावनाओं की उपेक्षा नहीं करना चाहते थे। मौजूदा सरकार के लिए यह अनुभवजन्य संदेश है।

उसे यहाँ से अवाम के सामने नई उदार शुरुआत करनी होगी। जिस देश में पड़ोसी पीर अली के घर का धुँआ सूंघ लेने से कान्यकुब्ज़ रवीन्द्रनाथ टैगोर के पूर्वजों को पिराली ब्राह्मण कहकर समाज शादी ब्याह के रिश्ते तोड़ ले,महात्मा गांधी समंदर में यात्रा करें तो उनका सामाजिक बहिष्कार हो जाए ,दो समुदायों में एक दूसरे के लिए पीने पिलाने के बर्तन अलग अलग रखे जाते हों तो एक क़ानून बनाकर समान संहिता लागू करना कितना कठिन होगा,हम समझ सकते हैं।

भीख मांगने,दहेज़ मांगने और बाल विवाह रोकने जैसे क़ानूनों पर तो अमल हम कर नहीं पाए ?यह आदर्श है कि समान संहिता हो,मगर हिन्दुस्तान जैसा विराट राष्ट्र यदि एक सूत्र में बंधा है तो उसके पीछे यही कारण है कि हम सबने अपने रीति रिवाज़ों,मान्यताओं,धारणाओं और काफी हद तक कुरूपताओं के संग जीना सीख लिया है। नेहरूजी के शब्दों में अगर माहौल के बिना संहिता बन गई तो सामाजिक अराजकता उत्पन्न हो जाएगी। जो लोग यूरोप या पश्चिम के देशों का हवाला देते हैं,उन्हें अतीत भी देखना होगा। शताब्दियों तक कुचली गई अवाम की मानसिकता को पढ़ना होगा।

यह भी ध्यान में रखना होगा कि उन देशों में एक धर्म ,एक भाषा,कम आबादी,उच्च साक्षरता और संपन्नता सब कुछ समान है। वास्तव में हिन्दुस्तान तो अपने आप में अनेक देश समेटे हुए है। सार की बात यह कि जब हम अपनी विविधता में एकता पर गर्व कर सकते हैं तो सारे धर्म और जातियाँ मौजूदा हाल में क्यों नहीं जी सकते। दूर करना है तो हर धर्म,जाति और संप्रदाय अपने अंदर के दोषों को दूर करे। समान संहिता के लिए तो अभी वर्षों तक ज़मीन तैयार करनी होगी।उसके बाद ही आगे बढ़ सकते हैं।