तालियां उपलब्धियों पर पिटी जाए या सिर्फ जाति पर

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राजेश ज्वेल

5 साला कार्यकाल समाप्ति अवसर पर राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद(Ramnath Kovind)की उपलब्धियों पर क्या चर्चा नहीं की जाना चाहिए? इस बात की समीक्षा भी हो कि एक दलित राष्ट्रपति से दलित समाज का कितना जमीनी स्तर पर उत्थान हुआ? ये बात तो स्वागत योग्य है कि पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति बनने के करीब है. एनडीए ने द्रोपदी मुर्मु को अपना राष्ट्रपति प्रत्याशी घोषित किया और यह तय है कि वे इस पद पर सुशोभित भी हो जाएंगी. देश के टैक्स पेयर का करोड़ों-अरबों का धन इन माननियों की सेवा-चाकरी पर खर्च होता आया है.

देश की सबसे भव्य इमारत में राजा-महाराजाओं की शान -शौकत से रहने वाले अब तक के अधिकांश राष्ट्रपति रबर स्टाम्प ही साबित हुए हैं. कांग्रेस ने यह परम्परा शुरू की और पार्टी विथ डिफरेंस का दावा करने वाली भाजपा ने भी इस लीक को नहीं छोड़ा. अब्दुल कलाम जैसे कितने राष्ट्रपति देश को मिले. सोशल मीडिया पर वाह-वाही करने और ताली बजाने की बजाय इस बात पर चिंतन-मनन जरूरी है कि इन राष्ट्रपतियों ने अपनी क्या अलग और स्पष्ट विचारधारा , सौगात देश को दी और उस समाज विशेष के लिए भी क्या उपलब्धियां अर्जित की जिसके आधार पर ये माननीय बनाए गए?

धर्म और जाति ने पहले से ही देश के सिस्टम का कबाड़ा किया हुआ है और अब महत्वपूर्ण संवैधानिक पद भी इसी आधार पर भरे जाने लगे. दलितों-आदिवासियों की राजनीति करने वाले झोपड़ी से महल तक पहुंच गए. मायावती, पासवान जैसे कई उदाहरण मिल जाएंगे. मगर इस वर्ग की स्थिति आज भी वही है. अब आदिवासी महिला राष्ट्रपति बनने से इस वर्ग के लोगों को कितना फायदा होगा ये जग जाहिर है. बस वोट बैंक मजबूती का ही दांव है. राष्ट्रपति से गई गुजरी स्थिति राज्यपालों की हो गई है जिनका मुख्य काम अब विपक्षी सरकारों को गिराने और अपनी सरकार बनाने का है.

उस संविधान की भी झूठी शपथ लेते है जिसमें सर्वधर्म समभाव और किसी के साथ कोई भेदभाव न करने की बात स्पष्ट लिखी गई है. बावजूद हर तरह के चुनाव में टिकट वितरण से लेकर महामहिम बनाए जाने तक धर्म- जाति को ही प्रमुख आधार बनाया जाता है और फिर तयशुदा एजेंडे के मुताबिक उसका ढोल पीटते हैं. क्या हम उम्मीद करें कि द्रोपदी मुर्मु भी कोविंद जी की तरह रबर स्टाम्प साबित नहीं होंगी? मुझे तो कोई उम्मीद नज़र नहीं आतीं. आप सबका का पता नहीं!