सावन माह का आगमन होते ही देशभर के शिवभक्तों में उमंग की लहर दौड़ जाती है. लाखों श्रद्धालु गंगाजल से भरी कांवड़ लेकर सैकड़ों किलोमीटर पैदल यात्रा करते हैं. ये केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि आस्था, तपस्या और अनुशासन की चरम परीक्षा मानी जाती है. लेकिन क्या आपने कभी सोचा है – कांवड़ को हमेशा कंधे पर ही क्यों उठाया जाता है? और क्यों इसे जमीन पर रखना पाप माना जाता है?
कांवड़ यात्रा का महत्व
कांवड़ यात्रा वह पवित्र परंपरा है जिसमें भक्तजन गंगा नदी से जल भरकर शिवलिंग का अभिषेक करने के लिए अपने गांव या शहर की ओर रवाना होते हैं. इसे शिव को प्रसन्न करने का सर्वोच्च उपाय माना गया है.
क्यों नहीं रखा जाता कांवड़ को जमीन पर?
गंगाजल को देवत्व प्राप्त है, यह केवल जल नहीं बल्कि ‘पवित्र अमृत’ है. इसे जमीन पर रखने से इसका शुद्ध स्वरूप नष्ट हो सकता है. जमीन पर रखने से नकारात्मक ऊर्जा कांवड़ में प्रवेश कर सकती है, जिससे उसका पुण्य प्रभाव समाप्त हो जाता है. यह शिव की अनदेखी या अपमान की श्रेणी में आता है, जो महापाप कहा गया है.
कांवड़ को कंधे पर क्यों उठाते हैं?
शिव भक्ति का भार भक्त खुद अपने ऊपर लेते हैं, इसका प्रतीक है कांवड़ को कंधे पर रखना यह विनम्रता और समर्पण का भाव है – जैसे कोई सेवक अपने प्रभु के लिए कुछ भी उठाकर लाता है.
शास्त्रों में कहा गया है – “भक्ति बिना जो करे अभिषेक, फल नहीं मिलता शिव का विशेष.” कांवड़ का संतुलन बनाए रखना एक मन और शरीर का योग है. ये यात्रा तन और मन दोनों की परीक्षा लेती है.
पौराणिक मान्यता
एक कथा के अनुसार, भगवान परशुराम ने शिव भक्ति हेतु हिमालय से गंगा जल लाकर कांवड़ के माध्यम से ही अभिषेक किया था. उन्होंने कांवड़ को न कभी जमीन पर रखा, न किसी को सौंपा. तब से यह परंपरा चली आ रही है कि कांवड़ केवल भक्त के कंधे पर ही रहती है, और यदि थकावट हो तो उसे कांवड़ विश्राम स्टैंड पर रखा जाता है, ज़मीन पर नहीं.
क्या है कांवड़ यात्रा के अन्य नियम?
कांवड़ में गंगाजल भरते समय पूरी श्रद्धा से मंत्रोच्चारण किया जाता है. यात्रा के दौरान मांसाहार, तम्बाकू, शराब आदि का सेवन पूर्णतः वर्जित है. किसी को अपशब्द या गाली देना भी वर्जित माना गया है – ये भक्ति यात्रा है, क्रोध नहीं. भक्ति गीत, हर हर महादेव का जयकारा और शिव नाम का जाप ही ऊर्जा का स्रोत बनते हैं.