दीपावली पर्व पर धार जिले के बाग में पुरातन बाघेष्वरी देवी मंदिर से लाई गई एक ज्योत से अपने घरों को रोशन करने की परंपरा आज भी कायम हैं। यहां महालक्ष्मी पूजन के दिन शाम को लोग दियासलाई से दीप नहीं
जलाते बल्कि ‘‘मेर मेरिया‘‘ से ज्योत लेने के बाद ही नगर रोशन होता हैं।
दीपावली पर्व पर बड़े शहरों सहित जहां विद्युत साज-सज्जा से भवनों को सजाने का
प्रचलन है, वहीं बाग जैसे छोटे कस्बे में वर्षो से माता मंदिर से लाई गई
ज्योत से अपने घरों को रोशन करने की परंपरा बनी हुई हैं। मिट्टी के दीपमालाओं को प्रज्वलित
करते हैं। सभी घरों में लक्ष्मी पूजन करने से
पहले दीप रोशन करने की यह परंपरा बीते कई वर्षो से अनवरत चली आ
रही हैं। महाभारतकालीन बाघेष्वरी देवी
मंदिर से लाखों लोगों की आस्थाएं
जुड़ी हैं। निमाड़ के 184 ग्रामों की कुलदेवी के रुप में मां बाघेष्वरी की प्रसिद्धि हैं। शाम ढलते ही बाग के बाशिंदे टकटकी लगाए ‘मेर मेरिया‘ के आने का इंतजार करते हैं। इस कार्य का निर्वाह बाघेष्वरी मंदिर के नीचे स्थित भेरु मंदिर का पुजारी करता हैं। मानकर समाज का यह पुजारी
बाघेष्वरी मंदिर से ‘‘मेर मेरिया‘‘ में
ज्योत लेकर नगर में पैदल निकलता हैंऔर घर-घर रोषनी बांटते हुए आगे बढ़ता
जाता हैं। बताते हैं कि मानकर समाज में
ग्यारह पीढ़ियों से यह परंपरा चली आ रही हैं। आदिवासी बोली में ‘‘मेर‘‘ का
अभिप्राय फसल से हैं। नई फसलों के आने पर अपनी फसल दूसरों को देना ही ‘‘मेर मेरिया‘‘ हैं। लेकिन यहां प्रयुक्त शब्द का अर्थ एक ज्योत से पूरे नगर को जगमगाना हैं। वर्षो से परिपाटी चली आ रही हैं कि बाघेष्वरी माता मंदिर में देवी की पूजाअर्चना के साथ अखंड ज्योत से मंदिर में स्थित दीपस्तंभ पर दीपमाला
प्रज्वलित की जाती हैं। फिर इन्ही दीपमाला से ज्वाला लेकर पुजारी ‘‘मेर मेरिया‘‘ लेकर निकलता हैं। ‘‘मेर मेरिया‘‘ लोकी या ककड़ी का
सूखा खोल होता हैं।इसके उपर गोबर के साथ मिट्टी का लेप लगाकर तुमड़ीनुमा
शक्ल दी जाती हैं। इसी के अंदर कपड़े से बनी बत्ती को जलाकर रखी जाती हैं। अपने घरों के सामने से गुजरते ‘‘मेर मेरिया‘‘ से अग्नि लेने से पहले लोग इसमे तेल डालते हैं।
ऐसा माना जाता हैं कि देवी मंदिर से रोशनी लेने पर घर में लक्ष्मी आती हैं। बाघेष्वरी माता मंदिर से निकलने
वाली इस रोशनी के लिए लक्ष्मी पूजन के दिन लोग टकटकी लगाए इंतजार करते हैं।