सबकी अपनी दक्षिणा

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By Mohit DevkarPublished On: August 6, 2020

अमितमंडलोई

भूमिपूजन करा रहे पुरोहित ने समाप्ति की बेला में कहा- यज्ञ की पत्नी दक्षिणा है। यज्ञ और दक्षिणा के मिलन से फल की प्राप्ति होती है। उन्हें इस अवसर का पुरोहित्य मिला, इससे बड़ी दक्षिणा क्या हो सकती है। इसके पहले भी वे गदगद स्वर में ऐसे ही वाक्य दोहरा चुके थे। अपने भाग्य की सराहना करते हुए कहते रहे, ऐसा अवसर किसे मिलता है। इतनी बड़ी विभूतियां यजमान के रूप में उपस्थित हैं और ऐसा ऐतिहासिक क्षण है, जिसकी प्रतीक्षा सदियों से की जा रही थी। पुरोहित विधि पूर्ण करा चुके थे, लेकिन उनके कहे गए शब्दों की प्रतिध्वनि देर तक वहां सुनाई देती रही।

सबकी अपनी दक्षिणा

किसी ने इसे पांच सदी का संघर्ष बताया, उसमें आक्रमणों के कई अध्याय छुपे थे। विद्रोह का बारूद महक रहा था। चीखें भी थीं, खूनी अट्‌टाहास भी और मातमी क्रंदन भी। कितने पन्ने पलट गए इस एक वाक्य में। पांचों सदियां जैसे सामने खड़ी होकर अपना ह्दय चीरकर दिखाने लगीं। पीढ़ियां पगड़ी बांधने लगी। किसी के नकाब भी उतरे और किसी के तख्तों ताज जमीन पर आ गए। पांच सौ साल कम नहीं होते। एक-एक कर बरस-बरस की पुतलियां अपनी कहानी सुनाने लगीं हो जैसे। हालांकि एक ही क्षण मिला उन्हें अपनी बात कहने का, लेकिन सदियों का दर्द सीने में छुपाए बैठी थीं, उनके लिए ये पल भी किसी सदी से कम नहीं।

फिर उन्हीं पन्नों में बंटवारे होने लगे। किसी ने कहा, इस क्षण का आभास तीन बरस पहले दीपोत्सव के रूप में हो गया था। दिवाली को अयोध्या से जोड़ने के कारज ने अनुभूति करा दी थी कि महोत्सव अब नजदीक ही है, अधिक दूर उसके लिए जाना नहीं होगा। अच्छी बात यह है कि यह सब संवैधान सम्मत तौर-तरीकों से हो रहा है। सर्वसम्मति से हो रहा है। और स्वाभाविक था, यह कहा जाना कि इसके लिए नेतृत्व की कुशलता के अलावा कुछ और कारगर नहीं हो सकता था।

कोई इसे 20-30 बरस पीछे लेकर गया। दोहराया कि कह दिया गया था कि यह काम आसान नहीं है। इसके लिए लंबा संघर्ष करना होगा। हम सबने वह संघर्ष किया और आज इस ऐतिहासिक दिन के साक्षी बनने का सौभाग्य मिला है। अच्छा यह है कि उन्होंने सभी की सहभागिता स्वीकार की। सबको याद किया जो उस वक्त थे, अब नहीं है। उन्हें भी जो आ सकते थे, लेकिन परिस्थतियों के कारण आ नहीं सके। उन्हें भी जो आमंत्रित नहीं किए जा सके। कुछ की उपस्थिति स्थूल रूप से गिनी गई कुछ की उपस्थिति को सूक्ष्मरूप में मान्यता दी गई। हाजिरी सब की लगी।

राम के गौरव का बखान हुआ। किस-किस भाषा में कहां-कहां, कैसी-कैसी रामायण है, उनमें राम के चरित्र को किस तरह उद्घाटित किया गया है। राम की संस्कृति, आदर्श और मयार्दा का भान कराया गया। यह भी याद दिलाया गया कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले से लेकर अब तक कैसे हम सभी भारतवंशियों ने भी उस मर्यादा का कैसे पूरा ध्यान रखा है। गिलहरी से लेकर कारसेवकों तक के योगदान का स्मरण किया गया। कुछ नाम रह गए, जिन्हें सुनने की अपेक्षा कई लोगों को हो सकती है। धन्यवाद और आभार भी किसी यज्ञ का बड़ा फल हो सकता है। सीख और सबक हो सकता है।

अंत में सबसे अच्छा वही संदेश है कि राम सबके हैं और राम सबमें हैं। राम करे, हम सब इन पंक्तियों को आत्मसात कर पाएं और इनका अनुसरण कर पाएं। अपने भीतर भी राम को बसा पाएं और दूसरों के भीतर भी राम के दर्शन कर पाएं। अगर ऐसा हो सका तो पांच सदियों का यह संघर्ष व्यर्थ नहीं जाएगा। और न व्यर्थ जाएगी इतिहास में दफन अनगिनत कुर्बानियां। तभी राम का जन्मभूमि पर लौटना सार्थक होगा, वहां रामलला के विराजमान होने से पहले रामलला हमारे दिलों में विराजे। जयश्री राम।