अजय बोकिल। शरद यादव का संपूर्ण राजनीतिक जीवन देखें तो उनका ज्यादातर वक्त अपनी पक्की जमीन तलाशने में ही बीता। हालांकि इतिहास शरद यादव को इसलिए तो याद रखेगा ही कि उन्होंने उस सामाजिक न्याय की बुनियाद रखी, जिसका देश की राजनीति को अर्से से इंतजार था।
शरद यादव को भारत के राजनीतिक सामाजिक इतिहास मुख्यत: समाजवाद की उस धारा को निर्णायण मोड़ देने के लिए याद किया जाएगा। शरद यादव को भारत के राजनीतिक सामाजिक इतिहास में मुख्यत: समाजवाद की उस धारा को निर्णायक मोड़ देने के लिए याद किया जाएगा, जिसमें सामाजिक न्याय का मुद्दा आर्थिक समता से कहीं ज्यादा अहम था। समाजवादी चिंतक डाॅ. राममनोहर लोहिया कहा करते थे, कि भारत में वर्ग संघर्ष वास्तव में जाति संघर्ष के रूप में है। यानी जब तक जातिवाद नहीं मिटेगा, तब तक देश में आर्थिक समानता केवल सपना है।
हालांकि इस विचार में भी कई खामियां हैं, लेकिन भारतीय समाज व्यवस्था को लेकर यह एक बुनियादी अवलोकन है। शरद यादव कट्टर समाजवादी थे, जिनमें कुछ हद तक सुविधावाद भी शामिल था।
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राजनीतिक जीवन के उतार-चढ़ाव
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शरद यादव का पूरा राजनीतिक जीवन उतार-चढ़ाव से भरा रहा है। मसलन उनका जन्म मप्र. की धरती पर होशंगाबाद जिले के उस बाबई गांव में हुआ, जिसे दादा माखनलाल चतुर्वेदी का गांव कहा जाता है। शिक्षा उन्होंने जबलपुर इंजीनियरिंग काॅलेज में प्राप्त की। लोहिया के बाद वो समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण के अनुयायी हुए और संपूर्ण क्रांति आंदोलन में खुलकर भाग लिया। इस वजह से जेल भी गए।
उस वक्त देश की सबसे ताकतवर राजनीतिक दल कांग्रेस तथा उसकी नेता इंदिरा गांधी की अधिनायकवादी कार्यशैली के खिलाफ शरद पुरजोर तरीके से उठ खड़े हुए थे। विपक्षी एकता की पहली इबारत जबलपुर में 1974 के लोकसभा उपचुनाव में तब लिखी गई थी, जब जेपी ने विपक्ष के संयुक्त उम्मीदवार के रूप में शरद यादव को चुनाव में उतारा। जबकि कांग्रेस ने पार्टी के दिग्गज नेता और जबलपुर की एक बड़ी हस्ती सेठ गोविंददास के निधन के बाद उनके पुत्र रवि मोहन दास को टिकट दिया था।
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उस चुनाव में युवाओं ने शरद यादव के पक्ष में जबरदस्त प्रचार किया। इसे धनबल के मुकाबले जनबल की जीत बताया गया। उस टोली में मेरे स्कूल के कुछ सहपाठी भी थे, जो उन दिनों जबलपुर इंजीनियरिंग काॅलेज में पढ़ रहे थे। शरद की जीत, देश में राजनीतिक बदलाव का शंखनाद माना गया। हालांकि बाद में शरद यादव ने उसूलों की खातिर लोकसभा से इस्तीफा दे दिया, उसके पीछे कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा इमरजेंसी के दौरान लोकसभा चुनाव कराने की जगह उसका कार्यकाल एक साल बढ़ा देना था।
आपातकाल हटने और उसके बाद हुए आम चुनावों में विरोधाभासों से भरी जनता पार्टी के दिल्ली में सत्तासीन होने के बाद शरद राष्ट्रीय राजनीति में चमकने लगे। लेकिन सीधी सत्ता से दूर ही रहे। इसी दौरान पिछड़े वर्गों को राजनीति में समुचित प्रतिनिधित्व और अगड़ी जातियों के वर्चस्व को चुनौती देने की शुरुआत हो चुकी थी। क्योंकि पिछड़ी जातियों की महत्वाकांक्षा आर्थिक समानता से ज्यादा सामाजिक समानता हासिल करने में ज्यादा रही हैl
पिछड़े वर्गों के लिए लड़ी लड़ाई
जैसा कि डर था, जनता पार्टी की सरकार बड़े नेताओं की महत्वाकांक्षा की शिकार होकर जल्द ही गिर गई। इस बीच शरद यादव राजनीति में पिछड़ों के समान अधिकार को लेकर काम करते रहे। उन्होंने अपनी राजनीतिक जमीन मध्यप्रदेश से बदलकर उत्तरप्रदेश व बिहार में तलाशनी शुरू कर दी। इसका कारण शायद यह था कि मप्र. में अभी भी जातिवादी राजनीति वह आकार नहीं ले पाई है, जो यूपी बिहार में संभव हुआ। क्योंकि मप्र की जनसांख्यिकी पर मिश्रित है। इसलिए किसी एक जाति के समर्थन के भरोसे न तो सत्ता हासिल की जा सकती थी और न ही निरंतर सत्ता में रहा जा सकता था। शरद जिस राजनीति की दिशा में आगे बढ़ना चाहते थे, उसके लिए मप्र. मुफीद नहीं था।
बाद में शरद यूपी छोड़कर बिहार चले गए, जहां उनके सजातीयों का नेता बनना उनके लिए ज्यादा आसान था। उन्होंने अपने लोकसभा चुनाव क्षेत्र में वो मधेपुरा चुना, जहां यादव बहुसंख्यक हैं। वहां यह नारा मशहूर रहा है’ “रोम पोप का, मधेपुरा गोप का।”
शरद यादव का संपूर्ण राजनीतिक जीवन देखें तो उनका ज्यादातर वक्त अपनी पक्की जमीन तलाशने में ही बीता।
मंडल आयोग की रिपोर्ट का राजनीति पर असर
शरद यादव के राजनीतिक जीवन का चरम बिंदु 1989 में तत्कालीन वीपी सिंह सरकार में मंत्री रहते हुए पिछड़ों को नौकरी व शिक्षा में आरक्षण की सिफारिश करने वाली ‘मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करवाना था।‘ कहते हैं कि वीपी सिंह इस रिपोर्ट से होने वाली सामाजिक उथल-पुथल की संभावना के मद्दे नजर इसे लागू करने के पक्ष में नहीं थे। लेकिन उनके मंत्रिमंडल के दो युवा सहयोगियों शरद यादव और राम विलास पासवान ने इसे उन पर दबाव डालकर लागू करवाया, यह मानकर कि इससे कांग्रेस कमजोर हो सकती है।
इस रिपोर्ट के लागू होने की घोषणा के बाद ही देश की राजनीति में भूचाल आ गया। मंडल आयोग की रिपोर्ट के बाद हिंदू समाज के और विभाजित होने की आशंका के बीच भाजपा और संघ ने राममंदिर आंदोलन को खड़ा किया। समूची सियासत मंडल बनाम कमंडल में सिमट गई। इसका आगे चलकर परिणाम यह हुआ कि पिछड़ी जातियों को नौकरियों और शिक्षा में बहुप्रतीक्षित आरक्षण तो मिला, लेकिन यह लक्ष्य काफी हद तक पूरा होने के बाद अधिकांश पिछड़ी जातियां भगवा रंग में रंग गईं।
उधर शरद यादव के दूसरे समाजवादी साथियों लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह और नीतीश कुमार ने क्षेत्रीय राजनीति को साधते हुए जातिवादी राजनीति में ही अपना लाभ देखा और बाद में उन्हीं शरद यादव को लगभग हाशिए पर ढकेल दिया, जिनको वो समाजवादी आंदोलन में अपना बड़ा भाई मानते थे।
यह भी विडम्बना ही है कि मंडल राजनीति का खूंटा गाड़ने के बाद शरद उसी अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में मंत्री रहे, जिसके सत्ता में आने के पीछे अटलजी के व्यक्तित्व के साथ-साथ कमंडल का भी बड़ा करिश्मा था।
जमीन तलाशते रहे शरद यादव
शरद यादव का संपूर्ण राजनीतिक जीवन देखें तो उनका ज्यादातर वक्त अपनी पक्की जमीन तलाशने में ही बीता। कोई भी सीट ऐसी नहीं थी, जिसे वो दावे के साथ अपना कह सकते थे। राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा के चलते वो क्षेत्रीय नेता भी नहीं बन सकते थे, जैसा कि लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव या नीतीश कुमार ने किया। क्योंकि इन सबके लिए समाजवाद जाति धर्म में लिपटा सत्तावाद ही था।
उधर देश में कमंडल राजनीति का दूसरा चरण शरद यादव जैसे नेताओं के राजनीतिक गुमनामी में जाने का कारण बना। आर्थिक उदारीकरण के बाद देश में एक उपभोगवादी और धार्मिक आग्रहों में लिपटा तबका आकार ले रहा था। यूपीए 2 सरकार के जाते-जाते कमंडल राजनीति की जमीन पुख्ता हो चुकी थी। हिंदू समाज में जातीय विभाजन धार्मिक विभाजन के आगे कमजोर पड़ चुका था ( यह बात अलग है कि कुछ क्षेत्रीय नेता अब हिंदुत्व के खिलाफ फिर उसी जाति राजनीति को हवा देने में लगे हैं, इसके नतीजे क्या होंगे, यह आगे पता चलेगा)।
संघ द्वारा 2013 में नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित करने के बाद शरद यादव ने एनडीए संयोजक पद से इस्तीफा दे दिया तो उधर बिहार में नीतीश कुमार में सत्तारूढ़ जदयू ने भाजपा गठबंधन को तोड़ दिया। तमाम विपक्षी नेताओं के पूर्वानुमानों को तगड़ा झटका देते हुए लोकसभा चुनावों में भाजपा ने मोदी के नेतृत्व में अपने दम पर ही बहुमत हासिल कर ली, हालांकि सरकार उसने सहयोगी दलों को साथ लेकर एनडीए की बनाई।
मोदी युग में कमजोर पड़ गई थी राजनीति
मोदी युग में कट्टर हिंदुत्व की राजनीति में शरद यादव जैसे नेताओं की खास जगह नहीं बची। दरसअल मोदी के पीएम बनने के साथ देश में ओबीसी के राजनीतिक वर्चस्व की आकांक्षा का वह चक्र पूरा हो गया था, जिसे शरद यादव ने मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करवा कर शुरू किया था। 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी ने खुलकर बताया कि वो पिछड़े वर्ग से हैं।
मोदी के पीएम बनने और फिर 2019 के लोकसभा चुनाव में और ज्यादा ताकत के साथ सत्ता में लौटने का अर्थ यही था कि शरद अपने ही खेल में मात खा गए थे। कमंडल ने मंडल को अपने भीतर समेट लिया था। यह बात निर्विवाद है कि मोदी के पीछे आज देश की बहुसंख्यक पिछड़ी जातियों का समर्थन है और आगे भी इसमें खास फर्क पड़ने वाला नहीं है। कहते हैं कि शरद यादव अपनी अस्वस्थता के बावजूद कोशिश में थे कि मोदी के हिंदुत्व के खिलाफ वो विपक्षी दलों को एक करें। लेकिन यह काम उतना आसान नहीं है। क्योंकि 21वीं सदी में राजनीति के आयाम बदल गए हैं।
बहरहाल इतिहास शरद यादव को इसलिए तो याद रखेगा ही कि उन्होंने उस सामाजिक न्याय की बुनियाद रखी, जिसका देश की राजनीति को अर्से से इंतजार था।