भारत और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के संगठन (ASEAN) के बीच 2009 में हुआ फ्री ट्रेड एग्रीमेंट (FTA) अब खतरे में है। लंबे समय से इस समझौते की समीक्षा की मांग की जा रही थी, लेकिन अब तक बात नहीं बन पाई है। नौ दौर की बातचीत के बाद भी जब कोई ठोस हल नहीं निकला, तो भारत ने संकेत दिए हैं कि अगर अगला यानी 10वां दौर भी बेनतीजा रहा, तो यह समझौता रद्द किया जा सकता है। देश का घरेलू उद्योग इस पर लगातार दबाव बना रहा है।
एकतरफा समझौते से भारत को हुआ नुकसान

मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, भारत और आसियान के बीच जो फ्री ट्रेड एग्रीमेंट हुआ था, वह भारत के लिए ज़्यादा नुकसानदायक साबित हुआ। समझौते के तहत भारत ने कई उत्पादों पर आयात शुल्क कम किया, जिससे आसियान देशों से सस्ते माल का आयात बढ़ गया। इसका सीधा असर भारतीय घरेलू उद्योग पर पड़ा। खासकर इलेक्ट्रॉनिक्स, स्टील, केमिकल्स और टेक्सटाइल जैसे क्षेत्रों में स्थानीय निर्माताओं को तगड़ा झटका लगा। आरोप है कि इस समझौते का चीन ने भी अप्रत्यक्ष फायदा उठाया और आसियान देशों के ज़रिए भारत में भारी मात्रा में चीनी सामान डंप किया गया।
10वें दौर की बातचीत है आखिरी उम्मीद
भारत और आसियान देशों के बीच अब तक 9 बार इस समझौते की समीक्षा को लेकर बातचीत हो चुकी है। लेकिन हर बार सिर्फ आश्वासन मिले हैं, ठोस बदलाव नहीं। अब 10वीं समीक्षा बैठक अगले महीने दिल्ली में होनी है, जिसे दोनों पक्षों के लिए निर्णायक माना जा रहा है। अगर इस बार भी समीक्षा प्रक्रिया में ठोस प्रगति नहीं हुई, तो भारत यह समझौता खत्म कर सकता है। उद्योग जगत की भी यही मांग है कि बिना संतुलन के ऐसे समझौतों को आगे बढ़ाना देशहित में नहीं है।
समझौते की वजह से बढ़ा व्यापार घाटा
FTA लागू होने के बाद भारत का व्यापार घाटा आसियान देशों के साथ लगातार बढ़ता गया। भारत जहां ज्यादा आयात करने लगा, वहीं निर्यात में वैसी तेजी नहीं आई। इस असंतुलन ने भारतीय अर्थव्यवस्था और उत्पादन क्षेत्र को प्रभावित किया। कई उद्योग संगठन सरकार से मांग कर चुके हैं कि या तो समझौते में संतुलन लाया जाए या फिर इसे रद्द कर दिया जाए।
2025 तक ठोस परिणाम का लक्ष्य, लेकिन समय कम
एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि आसियान और भारत दोनों ही अब समीक्षा प्रक्रिया को तेज करने पर सहमत हैं। अधिकारी ने कहा, “दोनों पक्ष चाहते हैं कि 2025 तक ठोस परिणाम निकले, जिससे व्यापार संतुलित और पारदर्शी हो सके।”
हालांकि, अब दो साल से ज्यादा समय बीत चुका है और घरेलू दबाव बढ़ता जा रहा है। इसलिए सरकार की ओर से यह साफ संकेत है कि इस बार अगर नतीजा नहीं निकला, तो भारत को समझौता रद्द करने पर मजबूर होना पड़ सकता है।