अनिल त्रिवेदी
मनुष्य अपने विचारों को अपना मौलिक गुण मानता हैं।मानवीय सभ्यता का विस्तार मनुष्य के अंतहीन विचार प्रवाहों से हुआ ऐसा माना जा सकता हैं।हांलाकि इस मान लेने पर भी सब सहमत हो यह जरूरी नहीं।फिर भी विचारों का जो सहज प्रवाह हैं वह सहमति,असहमति या सर्वसम्मति का इंतजार नहीं करता वह सनातन स्वरूप में प्रवाह मान ही रहता हैं।विचारों का सनातन प्रवाह ही हमें नित नये विचारों से निरन्तर साक्षात्कार करवाते रहता हैं।इसी से विचार के इस प्राकृत स्वरुप को कोई व्यक्ति,समूह,संगठन,समाज,राज या कोई अन्य साकार निराकार शक्ति न तो बांध पायी हैं न खत्म कर सकती हैं।मनुष्य डर सकता हैं,झुक सकता हैं,कारागार में बंद हो सकता हैं,बिक सकता है,निस्तेज हो सकता हैं यह हर मनुष्य की व्यक्तिगत वैचारिक क्षमताऔर प्रतिबद्धता पर निर्भर हैं ।पर विचार सूर्य की ऊर्जा से भी एक कदम आगे हैं विचार अंधेरे में भी मनुष्य को रास्ता दिखाता हैं।जन्म से नेत्रहीन मनुष्य को प्रकाश की अनुभूति या प्रत्यक्ष संकल्पना नहीं होती हैं।पर विचार मन की आंखों की तरह हैं ,जो नेत्र न होने पर देखना और ज्ञान न होने पर ज्ञान से साक्षात्कार करवाकर अज्ञानी को ज्ञानवान और अविचारी को भी विचार के प्रवाह से सरोबार बिना बताये सतत करता ही रहता हैं।मनुष्य अपनी व्यक्तिगत या सामूहिक सोच समझ के आधार पर विचार के किसी अंश का समर्थक या विरोधी हो सकता हैं पर विचार के अस्तित्व को नष्ट नहीं किया जासकता हैं।
विचार मूलत:केवल प्राकृत विचार ही है।पर मनुष्य ने विचारों में रूप रंग और भाति भाति के भेद और मेरे तेरे का भाव और न जाने कितने तरह के मत मतातन्तर को जन्म दे दिया ।इस तरह मनुष्य ने विचारों को अपने तक,अपने वैचारिक सहमना समूह,संगठन,समाज,धर्म दर्शन,आस्था संस्कार,संस्कृति के दायरे में बांधने की निरन्तर कोशिश की, जो आज भी जारी हैं।इस तरह विचार को व्यक्ति अपनी संपत्ति की तरह माने लगा। इसका नतीज़ा यह हुआ की मुक्त विचार हवा प्रकाश की तरह सर्व व्यापी स्वरूप में न रह मनुष्य के मन में सम्पत्ति भाव के स्वरूप में विकसित होने लगा और मनुष्यों के मन मस्तिष्क में विचारों के वर्चस्व का विस्तार होने लगा।इस तरह से मनुष्यता विचारों को लेकर सहज न रहकर नित नये मत मतान्तरों में बटने लगी।आज स्थिति यहां तक आ पहुंची है कि विचारों के आधार पर हम सब व्यापक होने के बजाय निरन्तर सिकुड़ रहे है।अब हम विचारों को सर्वकालिक समाधान के विस्तार के बजाय संगठन,समुदाय,पक्ष,धर्म,दर्शन,सरकार,देश विचारधारा के एक विचार के रूप में गोलबन्द करके आपस में एक दूसरे से समझ पूर्ण सहज संवाद करने तथा सीखते रहने के बजाय नित नये विवादों को जन्म देने लगे हैं।विचार एक दूसरे को मूलत:समझने,समझाने का अंतहीन सिलसिला हैं जिसने मानव सभ्यता ,संस्कृति और सामुहिकता की समझ का निरन्तर विस्तार किया।
मनुष्य के मन में विचार को कब्जे में कर अपना निजी विस्तार करने की भौतिक लालसायें बढ़ने लगी तो सारा परिदृश्य ही बदलने लगा।गाली और गोली के रूप में मनुष्य ने दो हथियारों को अपने जीवन व्यवहार में विचार पर कब्जा करने के लिये खोजा।गाली और गोली की खोज़ एक तरह से मनुष्यता में विचार के स्वभाविक विस्तार की सीधे सीधे हार हैं।वैसे देखा जाय तो गाली भी मनुष्य का एक तरह का विचार ही हैं।शायद शब्द को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने के विचार ने ही गाली को जन्म दिया हो।पर गाली का जन्म एक तरह से विचार की हार ही हैं।विचार संवाद और सभ्यता के विस्तार का साधन हैं।गाली की उत्पत्ति ने विवाद और असभ्यता का विस्तार किया हैं।गाली गोली से ज्यादा मारक हैं गोली से मनुष्य विशेष घायल होता या मरता है पर गाली से विचार सभ्यता ही हार जाती हैं।विचार की ताकत अनन्त है क्योंकि विचार मानवीय शक्तियों का विस्तार करता है,निर्भयता को मन में प्रतिष्ठित करता हैं।निर्भयता का विचार अनन्त से एकाकार होने का मार्ग हैं।इसीसे निर्भय मनुष्य न गाली से डरता हैं न गोली से।कानून ने भी गाली को लेकर व्यवस्था बनायी की गाली यदि सुनने वाले को बुरी लगे तो अपराध की श्रेणी में आयेगी।यदि कोई निरन्तर गाली देता हैं तो लोग उसे अनसुना करना ही समाधान मानते हैं।अपने आप में भयभीत या विचार की ताकत से डरा मनुष्य ही गाली या गोली का प्रयोग अपने लोभ लालच की पूर्ति के लिये करता हैं।आज तक की दुनिया में न तो गाली से कोई समधान हुआ हैं न गोली से।इसके बाद भी विचार की तेजस्विता से भयभीत लोग दिन रात गाली और गोली को ही समाधान समझते हैं।पर विचार हैं कि वह गाली और गोली से न तो धबराता है न ही उन्हें समूल नष्ट करने का विचार लाता हैं।बस गाली और गोली का प्रयोग ही नहीं करता यहीं विचार की जीवनी शक्ति है जो विचार को कायम रखती है।महात्मा गांधी के विचार को गोली नहीं मार पायी और गाली भी सत्य अहिंसा और अभय के विस्तार को रोकने में समर्थ नहीं हैं।जिन्होने गांधी को मात्र शरीर समझा विचार नहीं समझा वे गोली से विचार को मारने की भूल कर बैठे।गोली मारने के सात दशक बाद भी दिन रात गांधी के विचार को गाली देकर गोली और गाली दोनों की क्षणभंगुरता को ही पुष्ट कर रहे हैं।सुकरात और ईसा के साथ विचारों से भयभीत राज और समाज ने विचार को शरीर मानने की भूल की।गाली और गोली मनुष्य की विचार शक्ति की हार हैं।वैसे विचार जय पराजय से परे हैं।पर मनुष्य लोभ लालच और नफरत के अनन्त चक्र में विचार की ताकत को समझे बिना अपनी ताकत का विस्तार करने के लिये जीवन भर गाली और गोली के भंवर में भटकता रहता है की मैं यह पा लूंगा वह हांसिल कर लूंगा।भारत की विचार परम्परा में आदि शंकराचार्य ने निरन्तर विचार को देश भर में भ्रमण कर समझाने का कार्यकर भारत के विचार को लोकमानस में जीवन्त किया।
संत विनोबा का कहना था कि आपने मुझे गाली दी और मैने आपकी गाली लेली तो गाली सफल हो गयी पर आपकी गाली मैने ली ही नहीं तो आपकी गाली असफल हो गयी।निर्भयता का मूल यहीं हैं कि गाली देने वाले की गाली को लेना ही नहीं हैं।इसी में मनुष्य और विचार दोनों की अमरता हैं।
अनिल त्रिवेदी