जयराम शुक्ल
आज जब राजनीति में सुचिता रुई के धूहे में सुई ढूंढने जैसा है ऐसे में कैलाश जोशी (Kailash Joshi) जी का स्मरण करना किसी प्रभाती मंत्र का जाप करने जैसा है। मनुष्य उम्रजयी तो नहीं बन सकता पर उसका यश कालजयी होता है। जब भी मूल्यों के राजनीति की चर्चा होगी जोशीजी उसके केंद्र में होंगे। वे चौबीस कैरेट के प्रतिबद्ध नेता थे किसी हाल में विचारों से समझौता न करने वाले। उनका लंबा संसदीय जीवन निर्दाग, निर्विकार रहा।
वे सन् 77 में मध्यप्रदेश के प्रथम गैर मुख्यमंत्री बने..लेकिन यह मालूम होना चाहिए कि इस पद पर प्रतिष्ठित करने का श्रेय जनता पार्टी के जनसंघ घटक से ज्यादा सोशलिस्ट घटक को जाता है।आपातकाल के बाद जब जनता पार्टी की सरकार बनी तब प्रदेश की राजनीति में दो शख्स ऐसे थे जो इस नई सरकार के नियामक थे। पहले जनसंघ घटक के कुशाभाऊ ठाकरे और दूसरे सोशलिस्ट घटक के यमुनाप्रसाद शास्त्री।
320 सदस्यों वाली विधानसभा में जनतापार्टी के 230 विधायक चुनकर आए थे, जिनमें 150 जनसंघ घटक के थे। जनसंघ घटक के विधायकों की संख्या सोशलिस्टों से लगभग दुगुनी थी। स्वाभाविक तौर पर मुख्यमंत्री जनसंघ घटक से ही होना था। जनसंघ से निर्विवाद एक नाम सामने आया वह था वीरेन्द्र कुमार सखलेचा का। चूँकि सखलेचा गोविंदनारायण सिंह के नेतृत्व वाली संविद सरकार में उप मुख्यमंत्री रह चुके थे इसलिए उनका यह अधिकार बनता भी था।
सखलेचा का नाम आते ही यमुनाप्रसाद शास्त्री सक्रिय हो गए और वीटो प्रयोग कर दिया। सखलेचा कट्टर छवि की वजह से समाजवादियों को अखरते थे, दूसरे वे आपातकाल में माफीनामा भरकर 3 महीने में ही बाहर आ गए थे। जनसंघ घटक पर सखलेचा का वर्चस्व था। सखलेचा की उम्मीदवारी पर शास्त्री जी ने दो टूक कह दिया कि वे अपना उम्मीदवार उतारेंगे। अंततः विचार मंथन के बाद ठाकरे व शास्त्री के बीच कैलाश जोशी को लेकर सहमति बनी।
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लेकिन सखलेचा को लेकर एक ट्विस्ट तब आया जब जोशीजी को हटाकर सखलेचा को मुख्यमंत्री बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई। इस बार पेंच फँसाने वाले थे चंद्रमणि त्रिपाठी, जो बाद में भाजपा में शामिल होकर रीवा से लोकसभा सदस्य बने। 77 में त्रिपाठी रीवा की गुढ़ विधानसभा से जनता पार्टी की टिकट पर चुने गए थे। लोहियावादी चंद्रमणि राजनारायण के कट्टर समर्थक थे। उन्होंने समाजवादी युवजन सभा की ओर से सखलेचा के मुकाबले शरद यादव के चेले जबलपुर के कैलाश सोनकर को मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के तौरपर उतार दिया। दिलचस्प यह कि चंद्रमणि ने सोनकर के पहले एक विधायक अर्जुन सिंह घारू को तैय्यार किया। घारू को शास्त्री जी की पैरवी पर टिकट दी गई थी। वे सखलेचा मंत्रिमंत्रडल में संभवतः संसदीय सचिव भी रहे।
घारू की कहानी भी कम मजेदार नहीं। अर्जुन सिंह घारू पुलिस में सब इंस्पेक्टर थे। इमरजेंसी में ये किसी आरोप वश निलंबित हो गए। इमरजेंसी हटने के बाद जनता पार्टी की टिकट मिली और ये नेता बन गए। गजब यह कि जनता शासन में पूरे समय विधायक रहने के बाद फिर जब सरकार गिरी, कांग्रेस राज आया तबतक अदालत ने इन्हें उसी पद पर बहाल करने के आदेश दे दिए। जहां तक मुझे ग्यात है कि वे रिटायर भी पुलिस की नौकरी से हुए।
चंद्रमणि त्रिपाठी के अभिन्न साथी और उन दिनों समाजवादी युवजन सभा के प्रदेश महामंत्री डा. रमानिवास शुक्ल पूरे घटनाक्रम को बड़ी जीवंतता के साथ बताते हैं। शुक्ल के अनुसार चंद्रमणि के विधायक बनने के बाद हम लोग आशान्वित थे कि ये मंत्री बनेंगे। यह तो मालूम था शास्त्री जी चंद्रमणि की पैरवी नहीं करेंगे..सो हम लोग दिल्ली राजनारायण जी से पैरवी कराने पहुँचे। संयोग यह भी था कि दिल्ली में समाजवादी युवजन सभा का राष्ट्रीय अधिवेशन था। राजनारायण की इच्छा के चलते चंद्रमणि को समाजवादी युवजनसभा का अध्यक्ष चुन लिया गया।
अब तो यह स्पष्ट हो गया था कि चंद्रमणि मंत्री नहीं बन पाएंगे सो शरद यादव समर्थकों के साथ मिलकर यह तय किया गया कि सखलेचा के मुख्यमंत्री बनने का हरहाल पर विरोध किया जाए। दिल्ली से लौटे युवजन सभा से जुड़े विधायकों ने कैलाश सोनकर को सखलेचा के मुकाबले खड़ा कर दिया। नाम का प्रस्ताव बालाघाट के केडी देशमुख ने रखा जबकि उनके समर्थन में बोलने वालों में चंद्रमणि त्रिपाठी और विद्याभूषण ठाकुर (छत्तीसगढ़) थे। जब वोटिंग के परिणाम आए तब पूरा देश आश्चर्यचकित रह गया कि एक गुमनाम से विधायक कैलाश सोनकर को 34 वोट कैसे मिल गए। इससे ज्यादा तो कैलाश सोनकर चकराए कि इस लोकतंत्र में वे भी मुख्यमंत्री बन सकते हैं। बहरहाल हार के बाद भी भोपाल और जबलपुर में कैलाश सोनकर के जुलूस निकले।
कैलाश जोशी की छवि प्रारंभ से ही एक संत राजनेता की रही। वे अपने खिलाफ षणयंत्र को देखते/भाँपते हुए भी अनदेखी करते रहे। और एक दिन उन्हें स्थानापन्न करके वीरेन्द्र कुमार सखलेचा को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा दिया गया। देश में यह पहला प्रकरण था कि मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद कोई हटाने वाले की ही कैबिनेट का सदस्य बना हो। बिना ना नुकुर किए कैलाश जी सखलेचा मंत्रिमंत्रिमंडल में शामिल हुए। उनके लिए वैचारिक प्रतिबद्धता और आत्मानुशासन सर्वोपरि रहा। 1990 में वे पटवा मंत्रिमंडल में भी रहे। इस अधोगामी विलक्षण परंपरा को फिर बाबूलाल गौर ने भी निभाया मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद शिवराज मंत्रिमंत्रडल में शामिल होकर।
भाजपा में 77 के बाद से ही गुटबाजी रही। प्रदेश में कई बड़े क्षत्रप हुए और आज हैं भी, पर जोशीजी सदैव निरपेक्ष बने रहे..जो मिला यह भी सही, नहीं मिला वह भी सही। उन्होंने कभी अपने पट्ठे नहीं पाले जबकि प्रदेश भाजपा के भीतर वे सबसे ज्यादा सम्मानीय व जनाधार वाले नेता रहे। कभी भी उन्होंने स्वयं के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं खड़ा किया। 2014 में भी नहीं जब भोपाल लोकसभा सीट से उनकी टिकट काट दी गई। वे उफ तक नहीं बोले जबकि वे प्रायः सभी समितियों में थे।
जोशीजी पटवा की धारदार व्यंगवाणी से उलट विरोधियों के लिए भी मीठीवाणी का प्रयोग करते थे। महत्वपूर्ण बात यह कि सत्ता पक्ष सबसे ज्यादा दहशत सखलेचा और पटवा से नहीं अपितु कैलाश जोशी से खाता था। जोशीजी विचारों और संगठन के प्रति इतने प्रतिबद्ध थे कि उन्हें प्रभावित करना असंभव था। उस दौर में जब पटवाजी और अर्जुन सिंह की दोस्ती के चर्चे परवान पर थे तब जोशीजी चुरहट लाटरी, आसवनी कांड और केरवा प्रकरण को सुलगाने में लगे थे। वे विरोधियों को सेफस्पेश देने पर यकीन नहीं रखते थे। साफगोई इतनी की मुँहपर खरी-खरी कह दें।
जोशीजी 1998 में बागली से विधानसभा चुनाव हार गए। उनके संसदीय जीवन का यह पहला आघात था। पता नहीं क्यों वे इस बात को लेकर दृढ़मत थे कि उन्हें दिग्विजय सिंह ने व्यूहरचना करके चुनाव हरवाया है। मुझे जोशी जी साथ काम करने का एक अवसर मिला तो उन्हें और नजदीक से जाना।
तब श्रीनिवास तिवारी विधानसभा अध्यक्ष थे उन्होंने विधानसभा की एक समिति में कैलाश जोशी, जगदीशचंद्र जोशी, प्रभाष जोशी के साथ मुझे भी सदस्य नामांकित किया। इस समिति का काम विधि एवं विधायी विषयों पर लिखने वाले लेखकों को प्रोत्साहित करना था। डा. भीमराव अंबेडकर के नाम एक राष्ट्रीय पुरस्कार घोषित किया गया था यह समिति उसके लिए संतुस्ति देती थी।
जोशीजी अलग मिट्टी के बने थे, वे कभी किसी को नहीं बख्शते थे। मित्रता के बावजूद कई मुद्दों पर तिवारी जी को आड़े हाथों लेते रहे। 1998 में जब वे विधायक नहीं रह गए तब भी तिवारी जी ने सम्मान के साथ उन्हें विधानसभा की कई समितियों में रखा। मैंने तिवारी जी से इस संदर्भ में पूछा तो उनसे जो जवाब मिला वह राजनीतिक मूल्यों का उच्च आदर्श प्रस्तुत करता है। तिवारी जी ने कहा- जोशीजी विद्वान राजनेता हैं, सन् 62 से इस सदन में लगातार रहे हैं। इसबार सदन में उनका न होना अपूरणीय क्षति है। इसलिए मैं उन्हें विधानसभा समितियों के जरिये जोड़े रखना चाहता हूँ। इतना बड़ा नेता हारने के बाद यदि अवसाद में चला गया तो उसका एक गुनहगार मैं भी कहाउंगा। तिवारी जी ने जोशीजी के बंगले पर काम करने के लिए विधानसभा से कर्मचारी देकर रखे थे।
तिवारी जी अच्छे से जानते थे कि चुनाव कैसे हरवाए जाते हैं। जोशीजी इसी के शिकार हुए थे इस बार। पार्टी ने उन्हें एक बार दिग्विजय सिंह के गृहक्षेत्र राजगढ़ की लोकसभा की सीट पर उतार दिया था..उनके भाई लक्ष्मण सिंह के खिलाफ। संभव है दिग्गीराजा इसी की गाँठ बाँधे रहे हों। विधानसभा की समिति की बैठक के बाद स्पीकर कक्ष में सभी बैठे थे। सभी यानी स्पीकर साहब तीनों जोशी और मैं। प्रभाष जी ने हाटपीपल्या से कैलाश जी की हार का जिक्र छेड़ दिया। चर्चा चल ही रही थी कि दिग्विजय सिंह जी का प्रवेश हुआ। कैलाश जी उन्हें देखते ही तमतमा गए। बोले- इनसे पूछिए, इनसे..! कि मेरे हराने के लिए इन्होंने क्या-क्या नहीं किया..। दिग्विजय सिंह अपनी चिरपरिचित मुस्कान के साथ कैलाश जी के हमले झेलते रहे।
जोशीजी बेमतलब कुछ भी नहीं कहते थे लेकिन मतलब की बात कहने से चूकते भी नहीं थे बिना कोई चिंता के। पिछले चुनाव में उनका एक वीडियो वायरल हुआ जिसमें यह कहते हुए बताया गया कि चुनाव लड़ना हैं तो इतने करोड़ रुपए का जुगाड़ करो..। वीडियो चर्चाओं में आया तो जोशीजी ने उसका खंडन किये बगैर चैनल वालों से कहा कि चलो मैं फिर वही बात दोहराए देता हूँ। दरअसल मामला यह था कि कुछ टिकटार्थी जोशी जी के पास गए शिफारिश लगवाने। जोशीजी ने उनसे पूछा चुनाव लड़ने के लिए इत्ते करोड़ लाओ तब टिकट की बात करो। फिर उन्हें बताया कि चुनाव कितने मँहगे और तिकड़म भरे हो गए हैं…अपने भाजपा में भी..। वे साफगोई पसंद थे घुमाफिराकर कर बात करने में परहेज करने वाले।
एक वाकया है 2013 के चुनाव के समय का। मैं स्टारसमाचार का संस्करण निकालने भोपाल में था। अखबार धूमधाम से शुरू हुआ..। पर उसकी कोई प्रतिक्रिया मुझतक नहीं पहुँचती। रिपोर्टरों से मैंने कहा तुम लोग फालतू की मेहनत करते हो कोई तुम्हारा अखबार नहीं पढ़ता। दूसरे दिन बड़े सबेरे कैलाश जोशीजी का फोन आया। वे गुस्से में थे और बोले मैं क्या पढ़ रहा हूँ तुम्हारे अखबार में। कम से कम तुम तो मुझे जानते हो। मैं समझ गया कि उनकी प्रतिक्रिया उस तस्वीर को लेकर थी जिसमें वे भाजपा कार्यालय के दरवाजे पर चपरासी के लिए रखी कुर्सी में बैठे हुए थे..। मसला उसके कैप्शन को लेकर था जिसमें लिखा था–“बेटे की टिकट जो-जो न करवाए..!” इस तस्वीर का सीधा संदेश यह था कि वे बेटे दीपक जोशी की टिकट के लिए बैठे हैं। यद्यपि चपरासी की कुर्सी में उनका बैठना महज संयोग था, जोशीजी भाजपा की सभी प्रमुख समितियों में थे और दूर दूर तक यह संभावना नहीं थी कि दीपक जोशी की टिकट कट भी सकती है।
मैं सुबह ही जोशीजी के बंगले पहुँचा वे शांतचित्त बैठे थे। हाथ में वही अखबार था। मैंने कहा दादा इसे आपने अन्यथा लिया हो तो पहले पन्ने में खंडन छाप देंगे। जोशी ने कहा- शुक्ला जी तुम न होते तो मैं आज ही मुकदमा ठोक देता मानहानि का..। मैंने जवाब में कहा टिकट की मारामारी के सीजन में प्रदेश का भूतपूर्व मुख्यमंत्री यदि पार्टी दफ्तर के बाहर चपरासी की कुर्सी पर बैठा मिले तो खबर तो बनती ही है…। फिर जोशीजी ने माजरा बताया कि दरसअल पार्टी की टिकट कमेटी की ही महत्वपूर्ण बैठक में गए थे। पर तब तक अन्य पदाधिकारी आए नहीं थे सो सहज ही बाहर चपरासी की कुर्सी पर बैठकर अखबार पढ़ने लगे। प्रेस फोटग्राफर्स के लिए यह शानदार शाट था। जोशीजी वक्त के पाबंद थे, पार्टी मीटिंग्स में सबसे पहले पहुँचने वालों में..। उन्हें कभी इस बात का गुमान नहीं रहा कि वे भूतपूर्व मुख्यमंत्री और पार्टी के इतने बड़े नेता हैं। वे पटवाजी से उलट अपने गुरुत्व की कभी कोई परवाह नहीं की।
नियमित और संयमित दिनचर्या आत्मानुशासन के बावजूद उनके स्वास्थ्य को लेकर दुष्प्रचार ने उनके करियर का बड़ा नुकसान किया। 77 में मुख्यमंत्री पद से हटने का प्रमुख कारण यही बना। जबकि वास्तविकता यह नही नहीं थी। शेष जिंदगी में वे अपने स्वास्थ्य को लेकर बेहद सतर्क रहे। विधानसभा समिति की एक बैठक में किसी ने चुहुल की कि जोशीजी के दिपदिपाते चेहरे के पीछे का राज क्या है..? जोशीजी ने कहा प्रभास जी मैं हिमालय के शुद्ध शिलाजीत का नियमित प्रयोग करता हूँ.. फिर उन्होंने सभी को शिलाजीत के फायदे बताए, इस टिप्पणी के साथ कि कामशक्ति के साथ जोड़कर इस अमृततुल्य औषधि को बदनाम कर दिया गया। जोशीजी एक बार रीवा पार्टीमीटिंग में आए। रेल में उनसे भेंट हुई। देखा कि उनके एक हाथ में ताजा प्लास्टर बँधा था..। मैंने कहा दादा..ऐसी स्थिति में नहीं आना था जब हाथ में फ्रैक्चर है.., वे बोले घर में रहता तो ज्यादा ही तकलीफ होती यहाँ इस तकलीफ को भी कार्यकर्ताओं के बीच बाँट लेंगे।
जोशीजी को 2014 की टिकट से वंचित कर दिया गया जबकि वे चुनाव लड़ना चाहते थे। उनसे जब विकल्प पूछा तो उन्होंने जो नाम लिया वह सुनकर सब सन्न रह गए, वह नाम था आलोक संजर का…। आलोक एक बार पार्षद रह चुके थे उस समय वे कार्यालय मंत्री थे..। अपने एवज में आलोक संजर जैसे साधारण कार्यकर्ता की पैरवी सिर्फ कैलाश जोशी ही कर सकते थे..। वे वैचारिक प्रतिबद्धता और राजनीतिक सुचिता की पराकाष्ठा थे, सचमुच।