जयराम शुक्ल
हमारे विन्ध्यप्रदेश के ओरछा का तिलस्म मुझे हमेशा से खींचता रहा है। वहाँ बने आलीशान जहाँगीर महल के किस्से आज भी हवा में तैरते हैं। इस महल में जितने किस्से दफन हैं उतनी ही रूहें। ओरछा के राजा बीर सिंह देव ने जहाँगीर की दोस्ती निभाने के लिए अबुल फजल का किस तरह बेरहमी से कत्ल किया यह किस्सा बीबीसी हिन्दी के रेहान फजल ने कई इतिहासकारों के हवाले से लिख्खा है। यह किस्सा पढ़ना मुझ जिग्यासु के लिए बड़ा दिलचस्प रहा।
अबुल फजल अकबर के नौरत्नों में से एक थे। अबुल फजल न होते तो अकबर महज जलालुद्दीन बनकर रह जाते। अबुल फजल ने बादशाह जलालुद्दीन के झूठे-सच्चे किस्से गढ़कर उन्हें अकबर बनाया जिसका हिन्दी में अर्थ महान होता है..। जलालुद्दीन के पहले सिर्फ अल्लाह ही अकबर था- हम नमाज की तकरीर में अल्लाह- हू- अकबर आज भी सुनते हैं। वह अबुल फजल ही था जिसने जलालुद्दीन को अल्लाह की बराबरी में लाकर अकबर बना दिया। देसी इतिहासकार उसे अकबर महान(जबकि दोनों के शाब्दिक अर्थ एक ही हैं) लिखना शुरू किया..इससे पहले अँग्रेजों के लिए जलालुद्दीन ‘अकबर द ग्रेट’ बन ही चुके थे।
इतिहासकार अबुल फजल अकबर दरबार में लार्जर दैन लाइफ बन चुके थे..उनकी राय पत्थर में लिखी इबारत जैसे होने लगी। वे जहाँगीर को शराबी, नकारा और अय्याश कहने लगे थे..। तब जहाँगीर की दोस्ती बीर सिंह देव से हो चुकी थी। जहाँगीर ने अबुल फजल को रास्ते से हटाने के लिए बीर सिंह देव को अपना हथियार बनाया। फिर बीर सिंह ने कैसे अकबर के उस रत्न को हलाल किया आगे का यह किस्सा रेहान फजल की स्टोरी का अंशभाग …. अकबर और जहाँगीर के रिश्ते कभी सहज नहीं रहे। उनमें और कटुता तब आ गई जब जहाँगीर ने अकबर के बहुत करीबी और उनके जीवनीकार अबुल फ़ज़ल को ओरछा के राजा बीर सिंह देव के हाथों उस समय कत्ल करवा दिया था, जब वो दक्कन से आगरा की तरफ़ आ रहे थे।
इस हत्या का सबसे जीवंत वर्णन असद बेग ने अपने वृतांत ‘वाकए- असद बेग’ में किया है। बेग लिखते हैं, “बीर सिंह के हर सिपाही ने कवच पहन रखे थे। उनकी तलवारें और भाले हवा में बिजली की तरह चमक रहे थे। तेज़ भागते घोड़े पर सवार एक राजपूत ने अबुल फ़ज़ल पर बर्छे से इतनी तेज़ी से वार किया कि वो उनके शरीर के दूसरे हिस्से से बाहर निकल गया। फ़ज़ल नीचे गिरे और उनके शरीर से तेज़ी से ख़ून निकलने लगा। उनका ख़ुद का घोड़ा उन्हें रौंदता हुआ निकल गया। ताज्जुब है कि घोड़े के भार से उनकी मौत नहीं हुई। फ़ज़ल अभी जीवित थे कि बीर सिंह वहाँ पहुंच गए। वो उनकी बग़ल में बैठ गए. उन्होंने अपनी जेब से एक सफ़ेद कपड़ा निकाला और फ़ज़ल के जिस्म से निकल रहे ख़ून को पोंछने लगे।
इसी समय फ़ज़ल ने अपनी सारी ताक़त जुटाते हुए बुंदेला प्रमुख की ग़द्दारी के लिए उसे कोसा। बीर सिंह ने अपनी तलवार निकाली और एक झटके में अबुल फ़ज़ल का सिर उनके धड़ से अलग कर दिया।” ये तथ्य है कि अबुल फ़ज़ल की नज़र में जहाँगीर कोई बहुत ऊंची जगह नहीं रखते थे। लेकिन क्या सिर्फ़ यही वजह थी उनको मरवाने की? अनुभूति मौर्य बताती हैं, “एक राजनीतिक खेल चल रहा था कि गद्दी पर कौन बैठेगा। अकबर की शक्तियाँ क्षीण हो रही थी। वो अब थक रहे थे और जहाँगीर को अब लड़ाई करनी थी आने वाली पीढ़ी से।”
अनुभूति बताती हैं, “जब अकबर को अबुल फ़ज़ल के देहांत के बारे में ख़बर मिली तो वो मूर्छित हो गए। जहाँगीर इसके बारे में बिना किसी ग्लानि के अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि ये मैंने किया। और अंतत: जहाँगीर जब अबुल फ़ज़ल के बेटे से मिलते हैं तब भी उनके मन में कोई अपराध बोध नहीं रहता। वो साफ़ लिखते हैं कि मेरा उद्देश्य था बादशाह बनना। अगर अबुल फ़ज़ल वापस दरबार में पहुंचते तो मैं बादशाह नहीं बन पाता।” इस वफादारी (गद्दारी..?) के एवज में जहाँगीर ने बीर सिंह देव को अबुल फजल की तलवार देकर सम्मानित किया और 5000 हजार घुड़सवारों की मनसबदारी बख्शी..।