शहर का शौर्य याद दिलाती इक्यावन साल पहले इंदौर आई नर्मदा

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आज से ठीक 51 साल पहले, 23 अगस्त,1970 के दिन,इन्दौर में पीने के लिये नर्मदा का पानी लाने का निर्णय हुआ था। यह निर्णय एक ऐसे अद्भुत, अभूतपूर्व, आश्चर्यजनक और अहिंसक आंदोलन के बाद हुआ था, जिसमें शहर का बच्चा बच्चा शामिल था। पूरे पचास दिन चले इस आंदोलन में न कोई मुर्दाबाद, न कोई अभद्रता और सिरों के फूटने का तो सवाल ही नहीं। किसी की खिड़की का एक कांच भी नहीं फूटा था। यह वह आंदोलन था, जिसमें विशेषज्ञ, इंजीनियर्स, न्यायविद् और सामाजिक कार्यकर्ता पूरी स्वेच्छा से अपना काम कर रहे थे तो सामान्य नागरिक भी अपने योगदान में पीछे नहीं थे। उसी आंदोलन की उपलब्धि के इक्कावन साल पूरे होने पर उसकी याद करता हुआ यह लेख।

यह लेख उपलब्धि को सिर्फ याद ही नहीं कर रहा है, बल्कि उम्मीद भी कर रहा है कि अब वापस कुछ वैसे ही लोग, उसी आग के साथ आगे आएं, ताकि शहर की अभी भी अधूरी रह रही प्यास को बुझाया जा सके।

शहर का शौर्य याद दिलाती इक्कावन साल पहले इन्दौर आई नर्मदा

कमलेश पारे

इन्दौर शहर को नर्मदा का पानी पीते हुये अब पूरे इक्कावन साल हो गये हैं, क्योंकि, 23 अगस्त 1970 को एक लम्बे सविनय संघर्ष के बाद यह योजना स्वीकार हुई थी। जो लोग भी 1970 के बाद जन्मे हैं या 1970 में जिनकी समझ पूरी तरह से नहीं बन पाई थी, वे जान लें कि नर्मदा का पानी इन्दौर में एक लम्बे और पूर्ण अनुशासित,सविनय नागरिक संघर्ष के बाद आया है। एक पूरी पीढ़ी को इसके लिये ‘खपना’ पड़ा था।

जन-आन्दोलनों का इतिहास जब कभी भी और जहां कहीँ भी जब लिखा जायेगा, तब इन्दौर का “नर्मदा आन्दोलन” अलग से दिखेगा। यह वह आन्दोलन था, जिसमें पहले दिन से आखिरी दिन तक पूरा शहर शामिल था, बच्चे-बच्चे की जबान पर सिर्फ पानी की मांग थी,लेकिन कोई अभद्र नारा नहीँ,किसी की मुर्दाबाद नहीं,किसी का कांच नहीं फूटा, और सिर फूटने का तो सवाल ही नहीं था। 1970 में इन्दौर की जनसंख्या लगभग 6 लाख थी। उपलब्ध जल स्त्रोत सिर्फ 4 लाख लोगों की जरुरत ही बड़ी मुश्किल से पूरी कर सकते थे।

यह बात हम सिर्फ शहर के रहवासियों की कर रहे हैं। अपने उद्योगों,व्यापार,चिकित्सा व शिक्षा सुविधाओं के कारण प्रतिदिन हर समय एक लाख लोग बाहर से आकर अस्थायी रूप से शहर में बने ही रहते थे। उनकी पानी की आपूर्ति अपनी जगह थी। जरुरत और जनसंख्या के मान से कमोबेश स्थिति आज भी वही है, और चार से पांच लाख की “फ्लोटिग पापुलेशन” आज भी शहर पर हर क्षण बनी ही रहती है।

ऐसी स्थिति में पानी की त्राहि-त्राहि मचना स्वाभाविक ही था। शहर बूंद-बूंद पानी को तरस गया था । तब के राजनीतिक दलों ने अपने हिसाब से आन्दोलन,धरने,प्रदर्शन और जो भी सम्भव रहा होगा, वह प्रयास किया ही होगा, किन्तु स्थितियाँ नहीं सुधरी । “आउट ऑफ बॉक्स” सोचने वालों की तब भी कोई कमी नहीं थी। कुछ समाजसेवियों,बुद्धिजीवियों,पत्रकारों,पुराने प्रशासकों और इन्जीनियरों ने सोचा कि क्यों न इन्दौर के लिये नर्मदा से पानी लाया जाय । इन्दौर से दूर बैठे कुछ लोगों को तो आज भी यह विचार अविश्वसनीय,अव्यावहारिक,खर्चीला और मजाक़ लगता है, तो तब भी लगा ही होगा।

इन्दौर से नर्मदा की दूरी 70 किलोमीटर के आसपास है। ऊपर से नर्मदा और इन्दौर के बीच विन्ध्याचल की पर्वत माला भी है। इनके बीच एक घना वन क्षेत्र। यानी, जितनी बाधाएं गंगाजी को जमीन पर लाने में नहीं हुई होगी,उससे ज्यादा बाधाएं नर्मदाजी को इन्दौर लाने में देखी और दिखाई जा रही थी। लेकिन, शहर के कुछ युवाओं को यह बात “जुनून” की तरह छा गई कि “यह हो सकता है”, ”यह भी मुमकिन है”। तब, शहर के तब के युवा बुद्धिजीवियों मुकुंद कुलकर्णी, महेन्द्र महाजन और चंद्रप्रभाष शेखर ने 14 लोगों की एक समिति बनाकर अपनी संस्था “अभ्यास मंडल”, जो तब भी गैर-राजनीतिक थी, व आज भी है,के तत्वावधान में तब के सभी सक्रिय युवा व छात्र नेताओं को अपने साथ लिया, और इस विषय के जानकारों को भी अपने साथ जोड़ा। अकेले विशेषज्ञों को ही नहीं, पुराने अनुभवी प्रशासकों को भी अपने से सहमत किया।

इस मामले में सहमति का आलम यह था कि पूरे अंचल में बहुत-बहुत ढूँढने से एक-दो लोग इस बात से असहमत मिलते थे। हां,एक साथ सहमत लोगों का इतना बड़ा समूह देखकर, कुछ राजनीतिक लोगों ने अपने अस्तित्व का खतरा जरूर महसूस किया,किन्तु वे भी बाद में शहर के नौजवानों के साथ हो लिये या चुप हो गये।
असहमत लोगों की संख्या बहुत कम थी।सारे राजनीतिक दल अपने सारे मतभेद भूलकर इस युवा समूह के पीछे खड़े हो गये और देखते ही देखते यह एक जन-आन्दोलन बन गया।

5 जुलाई,1970 को शुरु हुआ यह आन्दोलन 23 अगस्त 1970 तक चला था । अगस्त महीने की वह 23 तारीख ही थी, जब उन दिनों के मुख्य मंत्री स्वर्गीय श्यामाचरण शुक्ल ने घोषणा की थी कि इन्दौर के लिये नर्मदा से पानी लाने की योजना राज्य सरकार को मंजूर है। चूंकि पंडित श्यामाचरण शुक्ल इन्दौर शहर के “दामाद” भी थे, और मुख्यमंत्री तो थे ही,इसलिये आन्दोलन के नारों में इस सम्बन्ध का भी ज़िक़र जरुर होता था। इसीलिये लोग, जिनका इस मामले से कोई लेना देना नहीं था, या आज भी नहीं है, कहते रहे कि श्यामाचरण जी ने अपनी ससुराल होने के नाते यह योजना इन्दौर को भेंट की थी ।

वे नहीं जानते कि अपने समय के यशस्वी इन्जीनियर स्वर्गीय व्ही जी आप्टे ने पूरे एक महीने से ज्यादा समय तक नर्मदा किनारे रहकर उस स्थान की पहचान की थी, जहां से पानी तो पर्याप्त मिले ही, खर्च भी कम लगे। जिस जगह “जलूद” को चुना गया था, वहां पिछले सौ वर्षों से, एक समान जलस्तर रहा था व आगे भी ऐसा ही रहने के पूरे वैज्ञानिक कारण मौजूद थे। उन्हीं दिनों में भारतीय प्रशासनिक सेवा से निवृत्त होकर अपने मूल निवास इन्दौर लौटे श्री पी एस बाफना ने उस तकनीकी और वैज्ञानिक आधार पर एक “फीजिबिलीटी” व प्रोजेक्ट रिपोर्ट बनायी थी। बाद में इन्हीं बाफना साहब की अध्यक्षता में राज्य सरकार ने एक कमेटी बनाई थी, जो भविष्य की “सस्टेनेबीलिटि” पर विचार कर रिपोर्ट दे।

नर्मदा के पानी की मांग पर हुये आन्दोलन की समिति में सब नौजवान थे। लेकिन, इनके पीछे शहर की सारी राजनीतिक और सामाजिक ताक़त लगी हुई थी।
कामरेड होमी दाजी,जिनकी एक आवाज़ पर सारे कल-कारखाने और कपडा मिलें बन्द या चालू हो सकते थे,श्री राजेन्द्र धारकर और श्री सत्यभान सिंघल, जो शहर के मध्य वर्ग में निर्विवाद और गहरा प्रभाव रखते थे, या श्री कल्याण जैन,जो छोटे बड़े दुकानदारों के एकछत्र नेता या प्रतिनिधि थे,अपने सारे वैचारिक व राजनीतिक मतभेद भूलकर इस आन्दोलन के समर्थन में खड़े थे।

इस आन्दोलन के दौरान रखा गया “शहर-बन्द” जैसा अब शायद ही कभी फिर देखने मिले।इकट्ठी युवा शक्ति ने सिद्ध कर दिया था कि अनुशासित रहकर बिना पत्थर उठाये भी “राज्य” से अपनी बात मनवाई जा सकती है। नर्मदा आ गई,इन्दौर की तात्कालिक प्यास भी बुझ गयी। लेकिन विकास,विस्तार,फैलाव और पसराव ने फिर हमें आज 1970 की स्थिति में ला खड़ा किया है। इन्दौर को भेंट में मिली ‘नर्मदा योजना’ समझने वालों की आज भी कमी थोडी है।नर्मदा का पानी लाकर सबकी प्यास बुझाने के लिये लगने वाली बिजली का झगड़ा आज भी सुलझा नहीं है। “बिल्ली के गले की घंटी” की तरह यह मामला अदालत में ही पड़ा है ।

अदालत में शहर का पक्ष रखने के लिये बनी याचिका को स्वेच्छा से न्यायमूर्ति व्ही एस कोकजे ने बनाया था। सेवा निवृत्त न्यायमूर्ति पी डी मुल्ये और न्यायमूर्ति ओझाजी ने इसे देखकर अपनी सहमति दी थी। इन्दौर का पक्ष रखने के लिये वरिष्ठतम अधिवक्ता श्री जी एम चाफेकर खड़े थे। यही नहीं मध्यप्रदेश विद्युत मंडल के पूर्व अध्यक्ष श्री पी एल नेने ने उस याचिका को बनाने में तकनीकी सलाह उपलब्ध कराई थी। याद रखें इन सभी ने अपने किये किसी भी काम का कोई शुल्क नहीं लिया था।
पचास साल पहले सबकी सामूहिक ताक़त से आई नर्मदा योजना पर आज भी उन लोगों की निगाह बनी हुई है, जिन्होंने तिनका-तिनका जोड़कर शहर की इस ताक़त को बनाया था।

पकी उम्र के बावजूद श्री मुकुन्द कुलकर्णी अपना काम कर रहे हैं,लेकिन इन्तज़ार भी कर रहे हैं कि वापस कोई नौजवान उसी आग के साथ आये,और नर्मदा के अगले चरण के लिये शहर को वैसे ही तैयार कर सके।