अनिल त्रिवेदी
राजा का बाजा बजाना यह सदियों से कई मनुष्यों का मन पसंद काम हैं।जब तक राजा की सत्ता कायम हैं,प्रजा का अघिकांश प्राणप्रण से दिन रात उठते बैठते राजा का बाजा बजाते रहते हैं।कोई सुने न सुने कोई कहे न कहें,राजा सामने हो न हो बाजा बजाना बन्द हीं नहीं होता।जब तक राजा, राजा हैं तब तक राजा का बाजा बजाते रहना हैं।बाजा बजाते रहना यह राजा का घोषित फरमान नहीं होता पर राजा की प्रजा ,राजा के सामने तो मुंह खोल नहीं सकती और जीवन भर मुंह भी बन्द नहीं रख सकती ।ऐसे में सब से निरापद रास्ता प्रजाजन को लगता हैं,राजा का बाजा बजाओ। जीवन भर मौज मनाओ।राजा का बाजा बजाना सीखना नहीं पड़ता।एक ही धुन बजती रहती है,राजाजी के जयकारे की धुन।कई बाजा बजानेवाले तो मानते हैं राजा तो सरकार है।सरकार का बाजा तो बजेगा ही नि:शब्द भक्ति भावना से सरकार का काम नहीं चलता।
कभी कभार ऐसे लोग भी समाज में दिखाई पड़ते हैं जो राजा का बाजा बजाने से दूर ही नहीं रहते इंकार भी करते हैं।वे राजा का बाजा बजाने वालों से कहते हैं राजा का बाजा नहीं राजा का बाज़ा बजाओ।बात एक ही हैं राजा का बाजा बजाना और राजा का बाजा बजाओ।एक निरापद रास्ता हैं दूसरा जोखिम भरा। एक जैसे शब्दों की तासिर में जमीन आसमान का भेद।शब्द एक भाव अनेक।पहले के जमाने में जब राजा इस दुनिया से बिदा होता था तभी नया राजा आता था।पर आज की दुनिया में जन्मना राजा गिने चुने देशों में ही बचे हैं।उसमें भी कई तो प्रतीकात्मक स्वरूप में हैं।आज की दुनिया में किस्म किस्म के लोकतंत्र का राजकाज हैं।पहले लगभग सारी दुनिया में राजा ,रानी के पेट से पैदा होता था।अब अधिकतर देशों में जनता के वोट से जनप्रतिनिधि चुना जाता हैं।कभी कभी वोट के बजाय बन्दूक के बल पर भी सत्ता को हथियाने का चलन भी है।ऐसे देशों में सत्ता बन्दूक के बल पर मिलती भी हैं और सत्ता बदल भी बन्दूक से ही होता है।ऐसे में राजा या सत्ता का सर्वोच्च मुखिया न तो रानी के पेट से पैदा होता हैं न मतदाता के वोट से पैदा होता है।बन्दूक की नोक से पैदा होता हैं।
जिन देशों में लिखित संविधान से जनप्रतिनिधि को लोगों की सेवा करने का अवसर मिलता है वहां तो देश का बुनियादी स्वामी या मुल्क का मालिक वहां के लोग या मतदाता हैं।ऐसे देशों में जनप्रतिनिधि या चुने हुए सर्वोच्च मुखिया को लोगों की रोजमर्रा की जिन्दगी को बेहतर बनाना चाहिए। लोगों को लोकतांत्रिक रूपसे हर तरह से तेजस्वी और संकल्पवान नागरिकत्व से परिपूर्ण बनाने की दृष्टी रखना चाहिये।लोकतंत्र में नागरिकत्व कमजोर,उदासीन ,लाचारऔर असहाय नहीं होना चाहिए। पर ऐसे देशों में भी जहां लोकतंत्र के होते हुए और संविधान में अभिव्यक्ति की आजादी मूलभूत अधिकारों के रूप में होने परभी जनप्रतिनिधियों पर लोक अकुंश रखने के बजाय ,अधिकांश नागरिक यंत्रवत ,चुपचाप लोकतंत्र में बिना सोचे समझे ,जनप्रतिनिधियों को जन सेवक के बजाय राजा मान ,राजा का बाजा निरन्तर बजाते रहे तो यह सदियों के सामन्ती संस्कारों का लोकमानस पर गहरा प्रभाव ही माना जावेगा।
इसी कारण जनप्रतिनिधि और जनता दोनों ही अपनी भूमिका संवैधानिक रूप से निभाते रहने में सफल नहीं होते हैं।लोकतंत्र होते हुए भी लोक अपनी तेजस्विता का विस्मरण कर आंख बन्दकर खुद संवैधानिक रूप से सर्वोच्च शक्ति सम्पन्न नागरिक होकर भी हर समय राजा का बाजा ,बजा बजा कर अपनी बुनियादी भूमिका ही बदल देता है।तब लोकतांत्रिक ऊर्जा से ओतप्रोत लोकमानस में उभरे असंतोष से राजा का बाजा बजाने की चुनौती का जन्म होता हैं।लोकतंत्र में नागरिकों की सतत चैतन्यता और भागीदारी यही लोकतंत्र का प्राणतत्व हैं।लोकतंत्र जनप्रतिनिधियों को लोगों की सेवा करने का अवसर उपलब्ध करवाता है।राजा बन अपने जयकारे का बाजा निरन्तर बजवाने का लोकतंत्र में कोई स्थान नहीं है।
लोकतंत्र लोगों के लिये ,लोगों की लोगों द्वारा चलने वाली सरकार हैं।पर दुनिया में कहीं भी इस आदर्श लोकतंत्र का साकार स्वरूप जमीन पर उतरा दिखाई नहीं देता,शायद उसका कारण यह हैं कि कहीं भी नागरिक अपने आपको लोकतंत्र का रखवाला नहीं मान पाते।अपने वोट से चुने जनप्रतिनिधि को जाने अनजाने राजा मान उसका बाजा बजाने को ही अधिकांश नागरिक अपना एकमात्र काम मानते हैं।चुनी हुई लोकतान्त्रिक सरकारों के नागरिक ,सरकार चुनें जाने के बाद या तो खामोश रहते हैं या राजकाज को लेकर प्राय: उदासीन रहते हैं या फिर निरन्तर निरापद रूप से राजा का बाजा बजाते रहते हैं।लोकतान्त्रिक देशों में जो राजनैतिक दल है उनका भी बुनियादी ढांचा अपने अपने दल के मुखिया जो एक तरह से दल के मनोनीत या वंशानुगत राजा होते हैं का बाजा बजाते रहना ही एकमात्र राजनैतिक काम होता हैं।कार्यकर्ता को लोकतंत्र के जमीनी विस्तार से ज्यादा पार्टी के बास के आशिर्वाद पाने की ज्यादा चिंता होती हैं।राजाजी ने कहा हसो तो हंस दिये राजाजी ने कहा भगो तो भग लिये।ये हे लोकतंत्र की दशा और दलों की दुर्दशा।सब दलों की कार्यकारणी बैठ कर अपने अपने राजा को फैसला लेने के सर्वाधिकार का प्रस्ताव बिना चर्चा के ही पारित कर राजाजी को अर्पण करदेती हैं।जब बाजा ही बजाना हैं तो कैसी चर्चा और कैसी देर।जब सब कुछ राजाजी को ही करना हैं तो हम जी-जान से राजाजी का बाजा क्यों न बजाय।जब बाजा बजाने से ही देश,दल और दुनिया चल रही है तो फिर कैसी चिन्ता और किस बात की चर्चा।
अब तो लोकतंत्र और लोकतान्त्रिक दल भी लोक चेतना और लोकभागीदारी से नहीं कारपोरेट मेनेजमेंट से चलने लगे हैं।मिडिया मेनेजमेंट भी पुरानी बात हो गयी मिडिया को ही थोकबन्द बाजा बना दो।जब राजा का बाजा ही बजाना हैं तो कैसा मिडिया और कैसा मैनेजमेन्ट।अब लोगों को तो बाजा बजाने से ही फुर्सत नहीं तो क्या करें?बाजार को ही सब कुछ क्यों न सौंप दे?नागरिक बाजा बजाते रहे,जनप्रतिनिघि चुपचाप बाजा सुनते रहे।स्कूल,अस्पताल,बस,रेल,हवाई जहाज को लेकर राजाजी क्यों रोज रोज की माथापच्ची करें।जब दुनियाभर में राजा से ज्यादा कारपोरेट राज करें।तो कैसा लोक और कैसा तंत्र। अब है आधुनिक विकास का माडर्न कारपोरेट मेनेजमेंट।तो समझे जनाब आज कल दुनिया भर में राजा का बाजा ही बजता है ।कोई राजा का बाजा नहीं बजाता। क्योंकि नाम तो राजा का है कामकाज सारा कारपोरेट मेनेज्मेन्ट का।कारपोरेट राज देश दुनिया को चलाता है और दुनिया भर के राजा, लोगों को बाजा बजाने देते हैं।लोग पुरानी परम्परा को प्राण प्रण से पकड़े राजा का बाजा बजाते जा रहे हैं और दुनिया भर में वोट से जन्में,रानी के पेट से जन्में या बन्दूक की गोली से जन्में राजा मंत्र मुग्ध हो लोगों को राजा का बाजा बजाने से न तो रोकते और न ही टोकते हैं। यहीं आज की दुनिया के राजाओं के लोकतांत्रिक संस्कार हैं जो प्रजा को राजा का बाजा बजाने से रोकते भी नहीं और लोग राजा का बाजा बजाते थकते भी नहीं।