टेम्पो से बन रहा… चुनावी-टेम्पो!

Shivani Rathore
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जब शहर में चलते थे, तब भी टेम्पो कहते थे और अब अंबानी-अदाणी के यहां से ब्लैक-मनी ढोकर कांग्रेस का खाली खजाना भर रहे हैं तो भी टेम्पो ही कहा जा रहा है। टेम्पो ने इतनी तरक्की कर ली, लेकिन नाम नहीं बदला। यह अच्छा ही हुआ, वरना पता ही नहीं चलता कि काला धन किस ट्रांसपोर्ट के जरिए ट्रांसफर किया जा रहा है।

अपना ये टेम्पो, फटेहाल नागरिक ढोने से शुरुआत कर ब्लैक मनी तक पहुंच गया और हमें खबर भी नहीं हुई। भला हो आम चुनाव और दो माह बाद निदेशक-मंडल के काबिल होने जा रहे प्रधानमंत्री का, कि इनकी वजह से यह रहस्य हमारे सामने खुला कि टेम्पो अब भी कायम है। सिर्फ चल ही नहीं रहा है, खामोश रह कर बड़ी-बड़ी सप्लाय भी कर रहा है। कभी टेम्पो भर कर गुंडे पहुंचाए जाते थे और अब, देखिए काला धन पहुंचाने का विश्वसनीय साधन टेम्पो हो गया है।

सूअर के मुंह जैसा अगला हिस्सा होने से प्यार से टेम्पो को कुछ इलाकों में ‘भट-सूअरÓ भी कहा जाता था। तब विकसित हो रहे नगर की पहचान इसी से होती थी कि टेम्पो चल रहे हैं या नहीं। जो टेम्पो कबाड़ होने लगते थे, उन्हें गांव में चलाने का लायसेंस मिल जाता था कि कम आबादी और कम हो भी गई तो शहर में हल्ला नहीं होगा। गांव वाले यानी ग्रामीण जनता इसे ‘टेम्पूÓ कहना पसंद करती थी, क्योंकि पेट-नेम की वहां परंपरा रही है। टेम्पो में हॉर्न की गुंजाइश इसलिए खत्म हो गई थी कि जब स्टार्ट होता था तो दूर से उठते काले धुंए और बम के धमाके जैसी इंजन की आवाज से उतने गांव में खबर हो जाती थी, जितने गांव में गब्बर का आतंक था और बच्चे भी उसका ह्यनाम सुन कर सो जाते थे।

इसमें स्टार्टर नहीं होता था, जैसे भैंस को रस्सी से खींच कर ले जाते हैं ना, ठीक वैसे ही टेम्पो को एक व्यक्ति, रस्सी खींच कर बाहर से स्टार्ट करता और अंदर बैठा एक्सलेटर दबाता था, इस बहाने दो लोगों को रोजगार मिलता था और देश की बेरोजगारी कम रहती थी। टेम्पो के गायब होने या काला धन ट्रांसफर करने में लगे होने की वजह से भी देश की बेरोजगारी बढ़ रही है। प्रधानमंत्री की नजर इन पर पड़ी है तो संभव है टेम्पो फिर बनने लगें और परीक्षाओं के पेपर आउट होते रहने के बावजूद बेरोजगारी कम हो जाए।

तब जगह-जगह टेम्पो स्टैंड बनाए जाते थे कि यदि शहर के लोग आंखों देखा स्टंट यानी मार-कुटाई के गवाह बनना चाहें तो यहां सवारी को लेकर ड्राइवरों और एजेंटों के बीच ऐसे दृश्य हाजिर होते ही रहते थे। पुलिस भी आज की तरह नहीं कि रेलवे लाइन या पुल के नीचे से बैंक लूटने के योजनाकारों को गिरफ्तार कर लाती थी। सीधे टेम्पो स्टैंड गए, दो चार असामाजिक तत्व तो हाथ लग ही जाते थे। उन दिनों टेम्पो स्टैंड को पुलिस ट्रेनिंग स्कूल या कॉलेज की तरह उपयोग में लाया जाता था, यानी तब भी अपराध का भरोसेमंद सूत्रधार टेम्पो ही था और आज तो देखिए, कितनी तरक्की कर ली है। ऐसा लगता है, जैसे कोई फकीर झोला लेकर आया और पीएम बन गया।

सोचिए… आखिरी बार टेम्पो कब सुना था, भला हो भाजपा के वरिष्ठ नेता और दो माह बाद अपना पद किसी और के हवाले करने वाले प्रधानमंत्री का, कि टेम्पो सुनने को मिल गया। वाकई सरकार की खुफिया एजेंसी कितनी अलर्ट है कि काले धन का भी पता रखती है, किसने भेजा, कहां भेजा और काहे से भेजा, पूरी रिपोर्ट गृह मंत्रालय को ही नहीं, पीएम को भी दे रही है।

वो तो कहिए पीएमजी पौन सदी पुराने चावल हैं तो पता है, टेम्पो किसे कहते हैं, वरना राहुल गांधी तो पूछते ही रह जाते कि ये टेम्पो क्या होता है। ओरिजनल नई-दुनिया के निहायत ओरिजनल और धाकड़ मैनेजिंग एडिटर नरेंद्र तिवारी किसी के इंतजार में किबे कंपाउंड पर मदनलाल गर्ग की टायर दुकान में बैठे थे। शेषन-काल चल रहा था और आम चुनाव थे। दुकान पर बैठे एवजी को लगा इतने गुणी व्यक्ति हैं, सामने तो कुछ कहा जाए।

यह कोई चालीस साल पहले का वाकया है। कहने लगे ‘इस बार चुनाव का माहौल नहीं लग रहा है।Ó तिवारीजी ने कहा ‘हां, थोड़ी सख्ती है और फिर टेम्पो बनने में भी तो समय लगता है ना।Ó एवजी के लिए यह गुगली थी। बोल पड़ा ‘ क्या इस बार टेम्पो से ही प्रचार होगा…? अलग से बनाए जा रहे हैं?Ó तिवारीजी ने घूर कर देखा और चुप हो गए। गनीमत रही कि तभी गर्ग साहब आ गए और बात आई-गई हो गई। तब मुझे भी यह बात थोड़ी अजीब लगी थी कि चुनाव में टेम्पो का क्या काम। तब संपादक राजेंद्र माथुर (रज्जू बाबू) ने समझाया था ‘चुनाव के टेम्पो और राजवाड़ा से सवारी ढोने वाले टेम्पो में कोई रिश्ता नहीं है।Ó खुद की अज्ञानता पर हंसी भी आई थी, उस समय।

आज ये ‘टेम्पो भर बातेंÓ इसलिए याद आ रही हैं कि बरसों बाद किसी अवतारी ने टेम्पो को उसी तरह फिर से चलन में ला दिया है, जैसे पत्थर की अहल्या को पैर लगा कर इतिहास में जीवित कर दिया था। उस समय यदि किसी ने टेम्पो से ब्लैक-मनी ढोने का रहस्य खोल दिया होता तो अपनी अज्ञानता पर अफसोस तो नहीं होता। इसी को कहते हैं भविष्य-दृष्टा, तब जो बात लागू नहीं हो रही थी, आज सौ फीसद फिट बैठ रही है, अर्थात चुनावी टेम्पो तभी बन सकता है, जब टेम्पो भर कर काला धन इधर से उधर होता है। ‘यह क्रिया से संज्ञा कैसे हो गया।Ó चुनाव में टेम्पो नहीं बन रहा है, यह तो सुन रखा था, टेम्पो से कंसाइनमेंट भी डिलीवर होता है, यह पता नहीं था।

भला हो मौजूदा प्रधानमंत्री का कि उन्होंने चुनावी टेम्पो का टेम्पो से रिश्ता जगजाहिर कर दिया। अब कह सकते हैं कि चुनाव में काला धन जिस वाहन से ढोया जाता है, उसे टेम्पो कहते हैं। फिर भी यह सवाल तो बाकी है कि शहरों से गायब होने के बाद टेम्पो इस पवित्र कार्य में लगाए गए हैं या सिर्फ यही करने में लगे हैं, इसलिए सवारी ढोना बंद कर दिया? रज्जू बाबू आज होते तो उनसे जरूर पूछ लेता!
— प्रकाश पुरोहित