आइये राखी के बहाने कुछ अहम प्रश्नों के उत्तर तलाशे…!!

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क्या यह त्यौहार लेन-देन पर आधारित है..?

क्या राखी के धागे वाकई भाई-बहन को स्नेह डोर से बांध पाने में समर्थ है बिना किसी अपेक्षा के..?

कुछ बहने अपने खर्च (राखी, मिठाई, नारियल शगुन,आना-जाना,भतीजे-भतीजियों को दी गई भेंट) आदि का हिसाब रखती है। बदले में क्या पाया इस नियत से।

तो कई भाई-भौजाई, बहनों के द्वारा लाई गई मिठाई को तुलनात्मक रूप से तोलते है व इसकी मिठाई उससे अधिक व बेहतर है का ऐलान भी बेशर्मी से करते है।

सम्बन्धों की नज़ाकत, मन के स्नेहिल भाव, कई बार अपने बच्चों की बातों में आ कर बिगाड़ देते है, बच्चों का प्रेम, उनकी अक्ल पर पर्दा डाल दूसरे रिश्तों की महीनता को मटियामेट कर देते है और रिश्तों में कभी न पटने वाली दूरी आ जाती है।

कोई एक पक्ष घर-घर जाकर बहनों ने लेन-देन कम किया या ख़राब किया का भोंडा प्रदर्शन तक कर आते है, पर अपने गिरेबाँ में नहीं झांकते। आमतौर पर इस तरह की शिकायतें करने के लिए बहनें बदनाम है, पर भाइयों का वर्चस्व भी है बहुतायत से मौजूद है।

राखी, तिलक,शगुन,मिठाई यह तो बस सांकेतिक है, जो बहनें दूर देश में ब्याही है या मन पर पहुँची बार-बार की किसी मर्मान्तक चोट के कारण राखी नहीं बांध पाती है तो भी भाई के लिए शुभभाव व कोमल अहसास ही रखती हैं। यह भूल कर कि कौन अपना व कौन..

जिन सम्बन्धों में उपहारों की कीमत आंकी जाए, उन्हें अपनी पारखी नज़रों से तोला जाए वो सम्बन्ध भरभरा के एक दिन धराशाही हो ही जाते है। क्योंकि नज़र की परख नजरानों में अटकी तो रिश्तें तो फ़िसलते ही जाएंगे।

रिश्तों में स्नेह, सद्भावना, अपनापन व सम्मान जरूरी है, जरूरी है किसी के आत्मसम्मान को ठेस न पहुँचाना। बार-बार पहुँची आत्मसम्मान पर चोंट के आगे हर लिफ़ाफ़ा व रिश्ता कभी न कभी बोना हो ही जाता है।

जिन रिश्तों या आयोजनों में धन की महत्ता का बोलबाला हो जाता है वो अपनी प्रासंगिता खो देते है और तब अगर उनकी अहमियत बचानी हो तो व्यवहार उनके मुताबिक कर उन्हें ख़ुश करने इतना हुनरमंद बन जाना चाहिये।

क्यों नहीं, लेन-देन की परंपरा को ही खत्म कर दिया जाय ..?शायद फ़िर स्नेह के तन्तु विद्यमान रहे…!!
या कि जजमेंटल बनने के अवसर न ढूढे जाय!!!
पदमा राजेन्द्र