राजा महाकाल का प्रोटोकॉल कौन तय करेगा?

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नितिनमोहन शर्मा

पंत प्रधान जी। आप आ रहे है। उज्जयिनी की धरा पर। राजा महाकाल के आंगन में। मृत्युंजय भगवान आशुतोष की शरण मे। उस लोक में आपका आगमन हो रहा है जिसे महाकाल लोक नाम दिया गया है। आपका स्वागत है। वंदन है। आत्मीय अभिनंदन है। आपके आगमन पर आपके लिए तय प्रोटोकॉल का सख्ती से पालन किया जा रहा है। आपके पूर्व जब राष्ट्रपति आये या सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस या सीएम…सबके लिए एक प्रोटोकॉल सिस्टम काम करता है। आपके लिए भी धरती अंबर एक कर दिए गए है। लेकिन…

है पंत प्रधान जी…मेरे बाबा महाकाल का प्रोटोकॉल कब तय होगा? ये प्रोटोकॉल कौन तय करेगा? वे तो अखिल ब्रह्माण्ड के अधिपति है। बावजूद भोले है। भूतभावन है। मनभावन है। नही समझते, न जताते ओर न बोलते है की मेरे दर्शन का भी प्रोटोकॉल तय करो। यहां जो बड़ा आदमी आता है, बाबा से बड़ा बन जाता है। इसमे नेता से लेकर अभिनेता तक शामिल है और रसूखदार से लेकर तिज़ारतदार तक पीछे नही। ये जानते हुए भी कि अखिल शृष्टि में मुझसे बड़ा कौन वीआईपी…. फिर भी यहां आकर भी वे अपना ” वीआईपीपन” नही त्यागते।

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कोई सीएम बनकर सीधे मेरे पास आ धमकता तो किसी की श्रीमती भी मेरे समक्ष सीएम से कम तेवर नही दिखाती। किसी को मेरी पूजा के लिए भी ऊंचा आसन चाहिए तो कोई मेरे से टिककर मेरे ही निज गृह में पांव पसारे पसर जाता है। किसी के कारण मेरी भस्म आरती रुकवा दी जाती है तो कोई कोरोना काल मे भी जंजीर खुलवाकर अंदर आ जाता है। विधायक मंत्री से लेकर संतरी तक मेरे समक्ष ऐसे अकड़कर आते है कि जैसे संसार के नीति नियंता ये ही लोग है।

अभी राष्ट्रपति आये थे। उनके लिए ऊंचा पाटा लग गया। बैठने की उन्हें तकलीफ़ थी लेकिन ये क्या कि जिनके हाथ पांव-कमर पेट सलामत है वे भी मेरे समक्ष ऊंचे सिंहासन पर विराज गए? में तो बुरे भले से ऊपर हु लेकिन मेरे अनन्य भक्तों को बहुत बुरा लगा। में नही बोलता तो क्या मेरा कोई प्रोटोकॉल नही? कोई नियम कायदे नही की राजा के दरबार मे सब प्रजा है। कोई वीआईपी नही ओर न कोई वीवीआइपी।

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बन्द कर दो न ये मठ मंदिरों में दर्शनों का बरसो से चला आ रहा वीआइपी कल्चर। क्या अपने आराध्य के दर्शन में भी आप अपनी अकड़-ठसक-रुतबा-रुआब नही छोड़ सकते? तो फिर मेरे उपासक आप नही हो। आप अपनी हस्ती के साधक और उपासक है। भगवान के नही। क्योकि भगवान को तो वो ही भक्त भाता है जो उसके समक्ष दास भाव से शीश नवाता है। ना कि स्वामी बनकर। आप तो जब आते हो, पूरे मन्दिर को पता चल जाता है कि कोई वीआईपी आया है। सब दर्शन क्रम अस्तव्यस्त हो जाता है। श्रद्धालुओं को फिर घण्टो इंतजार भी करना पड़ता है।

पंतप्रधान जी। महाकाल बोलते नही। वे तो अपनी अधखुली और ध्यान में मग्न आंखों से देखते रहते है कि कैसे उनके समक्ष लोग अलग अलग कैटेगिरी में बाट दिए गए है। भक्त की भी डेफिनेशन तय कर दी गई है। ये सामान्य भक्त। वो वीआईपी भक्त। कतार भी अलग अलग। प्रवेश द्वार भी जुदा जुदा। जिनके खिंसे में पैसा है, वे झट से मेरे समक्ष खड़े कर दिए जाते है। मेरा असली भक्त वही भीड़ में धक्के खाते रहता है। सिस्टम बनाने वाले उस भक्त को सर्पाकार रैलिंग में घुमाए जाते है और वीआईपी सरपट मेरे सामने आकर खड़े हो जाते है। अब तो लेट भी जाते है जैसे घर के बिस्तर पर पसरते है।

है पंतप्रधान नरेंद्र दामोदरदास मोदी जी। मालवा के आंगन ओर राजा विक्रमादित्य की नगरी में आपका आगमन एक नई परम्परा को स्थापित कर जाए… ऐसी मन की मनोकामना है। आप ज्योतिर्लिंग नगरी उज्जैन में ही नही, हर उस देवस्थान से वीआईपी सुविधा और पैसे देकर जल्दी से दर्शन की व्यवस्था को पूरी तरह बन्द करवा दे। जिनके पास अपने इष्ट के दर्शन जितना भी वक्त नही तो फिर उन भक्तों की चिंता में सिस्टम क्यो दुबला होय?? अगर उनको कतार से दर्शन करना अपमानजनक लगता है तो ऐसे लोगो को मन्दिर में क्या काम? जब भगवान के लिए वक्त नही तो फिर क्या शेष रहा?

पैसे से भगवान को भी मुट्ठी में करने वाला ये चलन आपके अलावा कौन बन्द करा सकता है? आपने तो कई कई राते ऐसे ही देवस्थानों, मठ मंदिरों आश्रमो ओर घाटों पर गुजारी है। आपको नही दिखती ये देवालयों में स्थापित की गई असमानता? आप काशी से इसकी शुरुआत कर रहे है तो हमारे उज्जैन को भी शामिल कर लेवे।

आपका भारत, आपके नेतृत्व में सामाजिक समरसता के मार्ग पर बढ़ रहा है। समरसता…समानता के इस भागीरथी कार्य से देवालय क्यो अछूते रहे? यहां भी सबके लिए एक समान व्यवस्था लागू कीजिए न? दुनिया के किसी भी देश मे, दुनिया के किसी भी धर्म मे ऐसा वीआईपी कल्चर नही है। सिवाय सनातन के। आप तो सनातनधर्मी है। आपसे उम्मीद है। आप इस विषय पर दो टूक कर जॉइए। अन्यथा आपके जाने के बाद वो ही होगा जो बरसो से होता आया है। जो लोग साक्षात महाकाल को घोलकर पी गए…वे महाकाल लोक को क्या समझेंगे?