उस वक्त हिंदी की साप्ताहिक पत्रिका रविवार ने अपनी खोजी और राजनीतिक खबरों के चलते धूम मचा रखी थी। कलकत्ता से प्रकाशित होने वाली इस पत्रिका के संपादक थे एसपी सिंह।वैचारिक पत्रिका में टाइम्स ग्रुप की दिनमान और साहित्यिक क्षेत्र में इसी ग्रुप की पत्रिका ‘सारिका’ के मुकाबले कमलेश्वर जी द्वारा शुरु की गई ‘कथा यात्रा’ तेजी से अपना स्थान बना रही थी। धर्मयुग, हिंदुस्तान, कादंबिनी, सरिता आदि पत्रिका वाले इस दौर में हिंदी के साप्ताहिक अखबारों में राष्ट्रीय स्तर पर ब्लिट्ज, करंट, (दोनों अंग्रेजी-हिंदी में प्रकाशित होते थे) वीर अर्जुन और शायद प्रचंड का नाम जाना-पहचाना था।
एक दिन करंट के प्रधान संपादक अयूब सैयद ने अपने केबिन में दोनों एडिशन के स्टॉफ के साथ मीटिंग में साप्ताहिक पत्रिका रविवार को लेकर चर्चा की। उनकी बातचीत से अंदाज लग रहा था कि वो भी कुछ नया करना चाहते हैं, पर कुछ स्पष्ट किया नहीं।
’रविवार’ की लोकप्रियता का ही आलम था कि ‘करंट’ को भी इसी तरह निकालने का मन बना लिया
अक्टूबर 1982 में एक दिन गुरु ने अयूब सैयद से हुई चर्चा का हवाला देकर बताया कि अयूब अब टेबलॉयड करंट को वीकली मैग्जिन के रूप में निकालना चाहता है।कुछ दिन बाद तो उन्होंने स्टेट ब्यूरो की मीटिंग ही बुला ली।पटना से राधेश्याम ठाकुर, लखनऊ से गिरधारीलाल पाहवा, जयपुर से चिरंजीव जोशी, वाराणसी से निरंकार सिंह, मुजफ्फरपुर से धर्मेंद्र गुमनाम(अब शायद दिल्ली में है) मप्र से (स्व) बालकवि बैरागी स्टेट ब्यूरो के रूप में बीकेबी (बालकवि बैरागी) रोविंग नाम से खबरे भेजते थे।वो मीटिंग में नहीं आ सके थे।
इस मीटिंग में महामंथन हुआ कि करंट वीकली को रविवार की तरह पत्रिका साइज में निकाला जाए तो क्या रिस्पांस रहेगा। सभी से राय व्यक्त करने को कहा गया।अधिकांश ने अयूब सैयद के आयडिया से इसलिए भी सहमति व्यक्त की क्योंकि ‘रविवार’ का देश में वही आलम था जैसा बाद में प्रभाष जोशी के नेतृत्व में निकले दैनिक ‘जनसत्ता’ का रहा।
अयूब सैयद ने भरी मीटिंग में मेरा माजना उतार दिया, बैठ जाओ, बेवकूफों जैसी बात कर रहे हो….
अखबार के कागज, छपाई आदि के खर्चों, सर्कुलेशन आदि का अपने को इतना ज्ञान तो था नहीं। जब बोलने के लिए मेरा नंबर आया तो मैंने कह दिया करंट का पत्रिका के रूप में प्रकाशन शुरु करने के साथ ही कुछ महीनों तक अखबार का भी प्रकाशन जारी रखना चाहिए। जब साप्ताहिक पत्रिका के रूप में करंट की पहचान बन जाए फिर अखबार का प्रकाशन बंद कर दें।ऐसा नहीं करने पर संभव है कि इस बदले हुए आकार-लेआउट आदि को रीडर्स पसंद नहीं करें तो करंट के लिए संकट पैदा हो सकता है।
मेरा सुझाव सुन कर अयूब सैयद भड़क गए कि तुम्हें खर्चों की जानकारी नहीं है, बेवकूफों जैसी बात कर रहे हो, बैठ जाओ।उनके मिजाज देख कर भीगी बिल्ली की तरह अपन भी चुपचाप बैठ गए।सबकी सहमति के बाद तय हो गया कि अभी से हिंदी-अंग्रेजी दोनों एडिशन में सूचना देना शुरु कर दें कि नए साल (1983) से पत्रिका साइज में करंट प्रकाशित किया जाएगा।
एक महीने का नोटिस देते हुए मैंने अपना रेजिग्नेशन लैटर गुरु की टेबल पर रख दिया
मैंने दिसंबर ‘82 में एक महीने का नोटिस देते हुए अपना इस्तीफा लिख कर गुरु की टेबल पर रख दिया।गुरु चौंक गए, पूछा अब क्या हो गया? मैंने कहा गुरु मुझे नहीं लगता ‘करंट’ का यह बदला रूप पाठक पसंद कर पाएंगे।उनका कहना था तुम्हें क्यों चिंता हो रही है, क्या अयूब ने यह नहीं सोचा होगा। तुम तो काम करो, जो होगा सब के साथ होगा, नौकरी क्यों छोड़ रहे हो।क्या और किसी अखबार में जा रहे हो? याद आया भोपाल के पंकज पाठक भी कुछ समय करंट में रहे थे पर बाद में वो शायद किसी अन्य अखबार में जुड़ गए या भोपाल लौट गए थे।
मेरा कहना था कहीं बात हुई होती तो क्या आप को पहले नहीं बताता।गुरु अब तो मैं अपने घर ही जा रहा हूं।उन्होंने हंसते हुए मेरा रेजिग्नेशन लैटर टेबल की दराज में रख लिया। दो दिन बाद मैंने फिर याद दिलाई तो डपट कर बोले कबूतर तुम काम करो।करंट से इस्तीफा देने, इंदौर जाने का मन बना लेने का कारण परिवार में मेरा सबसे बड़ा होना, मां-नानी का परेशानियों से जूझने को लेकर कॉलेज दोस्त अनिल मलिक का आए दिन लिखे जाने वाले पत्रों में जिक्र के साथ लिखना कि घर तो कहवाखाना होता जा रहा है। कुछ तो करंट के बदले जाने वाले रूप को लेकर मेरी आशंका और कुछ घर की परेशानियां ऐसे में नौकरी छोड़ना, घर लौट जाने के अलावा कोई विकल्प था नहीं।बहन मीना अपने दम पर सहारा बनी हुई थी किंतु मैंने भी लौटना ही बेहतर समझा।
पंडित जी इसे रहने की परेशानी हो तो कफ परेड वाला फ्लैट खाली है, वहां शिफ्ट हो जाए
तीन चार दिन बाद गुरु को फिर याद दिलाया कि दिसंबर का महीना समाप्त होने वाला है, आप अयूब सैयद को बता दो। अंतत: उन्होंने मेरा इस्तीफा उन्हें सौंप दिया। अगले दिन अधिकारी जी दोपहर में ऑफिस आए और कुछ देर बाद ही मुझे बुलाकर कहा चलो अयूब सैयद बुला रहे हैं तुम्हें।उनके केबिन में पहुंचे, मेरा लैटर पढ़ते हुए पूछ रहे थे अब क्या हुआ? माहिम में रहने की परेशानी है क्या? पंडित जी अपना एक फ्लैट कफ परेड में खाली पड़ा है, कीर्ति की वहां व्यवस्था करा देते हैं।सेलरी की प्राब्लम है क्या? किसी और अखबार में जा रहे हो क्या?
मैंने कहा कोई प्राब्लम नहीं है, किसी अन्य संस्थान में नहीं, मुझे तो घर ही जाना है।उन्होंने पंडित जी की तरफ देखते हुए कहा ठीक है पंडित जी, जब इसे जाना ही तो जाने दीजिये।इंटरकाम पर अकाउंटेंट जालू कोड़िया से कहा ये कीर्ति ने रिजाइन लैटर दिया है, मैंने एक्सेपट कर लिया है, तुम्हें भिजवा रहा हूं, इसका फुल एंड फायनल हिसाब कर देना।उनसे लैटर लिया, जालू मैडम को देने गया तो वो भी यही सवाल करती रही कि क्यों छोड़ रहे हो? ऑफिस में हलचल होना स्वाभाविक थी।
प्यून थापा ने धारावी वाले अपने ‘रूम’ पर बुलाया और चाय-वड़ा पाव खिलाया
ऑफिस का प्यून थापा बोल रहा था जाने से पहले आप मेरे रूम पर आना।अगली शाम थापा से पूछा तो बोला माहिम में धारावी में रहता हूं।धारावी यानी एशिया की सबसे बड़ी झोपड़पट्टी वाली अवैध बस्ती।अब इसी धारावी वाली जमीन पर शायद अडानी ग्रुप के नाम टॉउनशिप बनाने का टेंडर पास हुआ है। इसी की तर्ज पर इंदौर के सुदामा नगर को भी तब सबसे बड़ी अवैध कॉलोनी कहा जाता था।
दोनों तरफ झोपड़े और झोपड़ों मे चलते घरेलु-लघु उद्योग, तंग गलियों से पूछते-ढूंढते मैं थापा केजिस ‘रूम’ पर पहुंचा उस छोटे से झोपड़े में पांच दोस्त रहते थे।ये मुंबई में ही संभव है जहां झोपड़े में दिन गुजारने वाला आदमी रूम का सपना देख सकता है। मैं खुद भी तो वन बीएचके वाले उस हॉल में 125 रु भाड़े में अन्य नौ लोगों के साथ सोता था।
उसके अन्य नेपाली दोस्त रात की शिफ्ट में ड्यूटी पर थे।थापा तो खुद बस्ती में सस्ते खाने वाले ठिये पर खाता था। उसकी आत्मीयता थी, वड़ा पाव और चाय लेकर आया।उसका यह सहज प्रेम अद्भुत ही था। भारी मन से उसने मुझे विदा किया।दूसरे-तीसरे दिन थापा ने आकर कहा एक इलेक्ट्रानिक घड़ी सस्ते में मिल रहा है, आप ले लो। डे एंड डेट, अलार्म वाली सेल घड़ी बमुश्कल 200 रु में महंगी नहीं थी। ये घड़ी इंदौर आने के बाद तक खूब पहनी, सब्जी मंडी में एक रात ज्वाला होटल ( रामअधार) में लगी भीषण आग के दौरान फायर ब्रिगेड की गाड़ी का वॉटर पंप उठाने में पानी की तेज मार हाथ पर ऐसी पड़ी कि उस वॉटरप्रूफ घड़ी ने भी दम तोड़ दिया।
गुरु के साथ प्रेस क्लब जाने का मतलब होता था हम उनके आदेश का इंकार कर ही नहीं सकते
नजदीक आते दिसंबर महीने की आखिरी तारीखों में शायद ही कोई ऐसी रात रही हो जब गुरु के साथ रात में बंबई प्रेस क्लब में नहीं गए हों।पीना-खाना-नाजिया हसन के डिस्को सॉंग पर नाचना चलता था। चाहे शराब हो या सिगरेट जब गुरु के साथ बैठते तो हम इंकार कर ही नहीं सकते थे। जब फिल्मी पार्टियों में पीसी, मुहूर्त आदि के लिए जाता तो पांच-छह पेग-खाना आदि के बाद पीआरओ की गाड़ी नजदीकी लोकल ट्रेन स्टेशन पर ड्रॉप करती।घर पहुंच कर कपड़े धोना, गैलरी में सुखाना और गैलरी में ही दरी बिछाना, चादर ओढ़ने का नियम था। बंबई में ज्यादातर गर्मी का मौसम ही रहता है तो सुबह तक कपड़े सूख जाते थे जिन्हें लांड्री में प्रेस के लिए या धोने के लिए देकर वहीं पर प्रेस किए कपड़े पहन कर ऑफिस के लिए लोकल पकड़ने की आदत हो गई थी।
आज तक अफसोस होता है काश शरद जोशी जी का कहना मान लेता, बंबई नहीं छोड़ता…
अब तो नये साल के आगमन पर हर बड़े-छोटे शहर की होटलों, क्लबों में शानदार जश्न होते हैं लेकिन उस दौर में साल की बिदाई-आगमन (थर्टी फर्स्ट) का जश्न मनाने इंदौर सहित अन्य शहरों के युवा बंबई का रुख करते थे।साल के उस अंतिम दिन 31 दिसंबर को जब लोग बंबई आ रहे थे जश्न मनाने तब मैं पवन ट्रेवल्स की बस से इंदौर के लिए टिकट करवा चुका था। बस से टिकट भी इसलिए करवाया कि मेरे साथ सामान के रूप में किताबों से भरा एक थैला था, जिसे लेकर ट्रेन की अपेक्षा बस ही बेहतर लगी थी।
मैंने करंट से इस्तीफा दे दिया है यह जानकारी करंट में साथ रहे और शरद जोशी जी के साथ एक्सप्रेस ग्रुप से जुड़ गए मित्र टिल्लन रिछारिया और टाइम्स ग्रुप की फिल्मी पत्रिका माधुरी के पत्रकार-मित्र मिथिलेश सिंहा अपने संपादक विनोद तिवारी जी को भी दे चुके थे।पर मैं तो इंदौर लौटने का मन बना चुका था। लौट तो आया पर आज तक अफसोस होता है काश मैं उनका प्रस्ताव मान लेता ।
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