बन ठन आई रंगीली गणगौर, मालवा-निमाड़ के सबसे बड़े लोकपर्व गणगौर की मची धूम

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नितिनमोहन शर्मा

बन-ठन आई रंगीली गनगौर

बन-ठन आई छबीली गनगौर

बनठन आई सजीली गणगोर

सजी सिंगार चंचल मृगनयनी

पहरे पीत पटोर..

 

सखी-सहेली ले संग

राधा गावत नंद की पोर..

निरखत हरकत अतिरस बरखत

मोहे नंदकिशोर..

 

उपजी प्रीति परस्पर अंतर

मानो चंद चकोर..

‘कृष्णदास’ पिय प्यारी की छबि पर

डारत हैं तृन तोर..

लोकपर्व गणगौर की महत्ता को प्रतिपादित करता ये कीर्तन आज से करीब 500 साल से भी पूर्व रचा गया हैं। रचयिता थे अष्टसखा कवियों की लोकप्रिय जोड़ी के कवि-कीर्तनकार कृष्णदास। कहते हैं कि ये अष्टसखा कवियों सूरदास, कुम्भनदास, नंददास आदि ने वो ही रचा, जो उनके दिव्य चक्षुओं ने देखा। इन कवियो को द्वापरयुग की इन अलौकिक लीलाओं के दीदार का ये सौभाग्य अखण्ड भूमण्डलाचार्य वल्लभाचार्य जी की कृपा से प्राप्त हुआ। लिहाजा ये कीर्तन गणगौर जैसे लोकपर्व को द्वापरयुग से जोड़ता हैं। स्वामिनी जी यानी राधाजी ने भी इस पर्व को अपने प्रियतम श्यामसुंदर के संग मनाया था। ऐसे दर्जनों कीर्तन गणगौर पर्व के रचे गए है जो आज भी मौजूद हैं। बस देखने, समझने, सुनने और गुंनने का आपके पास वक्त हो।

ईशर गौर पार्वती के अंश को सजा संवारकर…..

सुहागनों से जुड़े इस पर्व का अपने मालवा-निमाड़ और बगल के राजस्थान से गहरा नाता हैं। पर्व की प्रति आस्था का नज़ारा देखना हो तो शहर के गली मोहल्लों, बस्ती कालोनियों में जाकर देखे। कैसे पीहर आई गणगोर माता के लाड़ लड़ाए जा रहे हैं। ईशर गौर पार्वती के प्रतीकों को सजा सँवारकर सुहागनें अपने सिर पर लेकर रोज नृत्य कर रही है। गली गली गणगौर के बाने निकल रहे हैं। नवब्याहता का तो ये सबसे बड़ा उत्सव रहता है। सुहाग से जुड़ा जो हैं। नव ब्याही बहन बेटियाँ इस पर्व के निमित्त ससुराल से बिदा लेकर मायके आ जाती है जहां वे 16 दिन तक गणगौर का पूजन करती हैं। 16 दिन का ये पूजन नई नवेली बहुओं के हवाले ही रहता है।

गणगौर की बिदाई का पल आ गया है…..

अब सोचिए, एक साथ नई नवेली दुल्हनें जब इस पर्व को सामुहिक रूप से मनाती है तो कितनी सुंदर स्मृतियों को वे संजोती हैं और इन्ही सुखद, सुंदर स्मृतियों को संग ले वे मायके से बिदा होकर पुनः ससुराल लौट जाती हैं। ऐसे ही गणगौर भी अपने पीहर आई है और अब उनकी बिदाई का पल आ गया हैं। कल यानी रविवार को वे बिदा हो जाएगी। ख़ुलासा फर्स्ट ने इस लोकपर्व को इसलिए ही याद किया है कि भागती दौड़ती इस तिजारती दुनिया मे अब किसे परवाह गणगौर कब आई और कब बिदा हो गई। जैसे संजाबाई का पर्व। वो भी 16 दिवसीय उत्सव है और मालवा निमाड़ की धरोहर है। आधुनिक होते लोक समाज मे अब इन लोकपर्वो का वैसा शोर नजर नही आता जैसा आज से दो तीन दशक पहले होता था। बावजूद इसके इन परम्पराओ के प्रति लोक आस्थाओं का अनुराग इतना गहरा है कि कोई भी ओर कैसा भी कालखंड रहा हो, भरत भू पर लोकोत्सव कायम रहें।

कैसे ‘रणुबाई’ बनी गणगौर जी और स्वामी ‘ईशरजी’?

आज सब कुछ उत्सवों अनुकूल वातावरण है तो जीने की जद्दोजहद में पर्व, परम्पराओ से जुड़े ये लोकपर्व बिसरा दिए जा रहे है या फिर औपचारिकता बनकर रह गए हैं। ऐसे में आपके या आपके बगल के आँगन में आकर विराजी ‘रणुबाई ‘कब लौट जाएगी, पता ही नही चलेगा। जैसे संजाबाई आकर चली गई। कुछ समय निकालिएगा। भोर के समय या संध्या के समय। जाकर दखिये अपने मोहल्ले, कालोनी के बाग बग़ीचों में। कैसे ये लोकपर्व पूर्ण श्रद्धा, आस्था, उत्साह और उल्लास से मनाया जा रहा हैं। कैसे ‘रणुबाई’ बनी गणगौर जी स्वामी ‘ईशरजी’ संग ” झाले ” लेती हैं। ग्राम्य अंचल में ये झाले किसी ताल-तलैय्या-सरोवर किनारे लिए जाते हैं। जहां ये नही, वहां कुँआ के पास झाले की विधि होती हैं।

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गली गली रोज शाम को निकल् रहे उन बानो पर नजर दौड़ाइए जिसमे नव ब्याही दुल्हन का दूल्हा भी नई नवेली दुल्हन ही बनती हैं। बकायदा गठजोड़ा भी बंधता हैं। दूल्हा बनी दुल्हनियां को साफ़ा-पगडी पहनाई जाती हैं। बस्ती मोहल्लों में ऐसे बाने 16 दिन से खूब घूम रहे हैं। फिर शुरू होता है हास्य विनोद से जुड़े दोहे बोलने का दौर जिसमे सुहागनें अपने अपने सुहाग का नाम किसी तुरत फुरत बनाये दोहे में जोड़कर शर्माती हुई बोलती हैं। फिर दूसरी की बारी। दिन ढलने के वक्त से शुरू हुआ ये सिलसिला रात गहराने तक चलता हैं। देखा आपने ये नजारा? इतनी फुर्सत कहा अब? है …न? देखा नही तो कोई बात नहीं। पढ़ लीजिए। ख़ुलासा फर्स्ट है न। लोकआस्थाओं के प्रति सदैव अनुरागी और नतमस्तक।

गोर गोर गणपती

ईशर पूजे पार्वती

पार्वती का आला टीला

गोर का सोना का टीला

टिका दे टमका दे

राजा रानी व्रत करो

करते करते आस आयो मास आयो

खेरे खांडे लाडू लायो

लाडू ने वीरा न दियो

वीरों ले मन सारी

सारी में सिंजोरा

बारी में बिंजोरा

सान मान सोलह

साथ कचोला

ईशर गोरा दोनो ही जोड़ा

जोड़ जंवारा, गेँहू क्यारा

रानियां पूजे राज में

बेमा का सुहाग में

रानियां को राज घटतो जाय

म्हारो सुहाग बड़तो जाय