भांजे मत बहस कर, ये नहीं समझेंगे

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आदिल सईद

उमेश मामाजी की अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता थी लेकिन उनकी समझ बहुत विस्तृत थी, वे न सिर्फ भारत के इतिहास-भूगोल को समझते थे, बल्कि सांझी सांस्कृतिक विरासत की वास्तविकता भी उन्हें पता थी, इस सबसे बढ़ कर उनमें इंसानियत थी, नफ़रत का नाम-निशान उनमें नहीं था, थी तो बस तार्किकता। जब तस्लीम चूड़ी वाले से मारपीट हुई और फिर उसी के ख़िलाफ़ पुलिस ने झूटी एफआईआर दर्ज की तो वे परेशान थे, इत्तफ़ाक़ से इस घटना के कुछ दिन बाद उनके विवाह की वर्षगांठ थी, लिहाज़ा मैं उनसे मिलने गया था, बहुत दिनों बाद हमारी लम्बी बातचीत हुई थी।

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वे कह रहे थे बहुत गलत हुआ, तस्लीम के छोटे-छोटे बच्चे हैं, बेचारा यहां चूड़ी बेचने आया था, अब उसके परिवार का गुजारा कैसे होगा, राजनीति के चक्कर में ये बहुत गलत हो रहा है, कह रहे थे पार्टी से बंधा हूं, इसलिए टीवी बहस में अलग तरह की बात करना पड़ती है, ऐसा नहीं है कि वे ये बात मेरे सामने कह रहे थे और पहली बार कहीं थी, जब जमात पर कोरोना फैलाने का इल्जाम लगाया जा रहा था तब भी उनका मत बहुत तार्किक था, वे जानते और मानते थे कि सही क्या है और हो क्या रहा है, मुझ से फोन पर बात करते थे।

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इसी तरह जब भी ग्रुप में चर्चा, बहस में बदलने लगती तो वो मुझे फ़ोन लगाते, कहते- “भांजे रहने दे, इन्हें नहीं समझ आएगा. मुझे तो हंसी आती है. इनसे बहस करना माथा फोड़ने जैसा है, तू ही चुप हो जा.एक बार महाभारत का उदाहरण देते हुए कहा था, लिख दे- ‘कृष्णजी ने रण छोड़ा था,मैं भी छोड़ रहा हूँ.’ मैंने फौरन लिख कर अपने तर्क रोक लिए थे। कुछ दिन पहले भी किसी मुद्दे पर बहस की नोबत आ रही थी लेकिन उससे पहले उनका फ़ोन आ गया, रहने दे यार.क्यों..! उमेश मामाजी जब भी किसी मुद्दे पर बात होगी आप जरूर याद आएंगे