प्रिंटिंग के ‘प्रिंस’ कहलाते थे मुंशी नवल किशोर, जिन्होंने लखनऊ में लगाया एशिया में सबसे पहले आधुनिक छापाखाना

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भारत में प्रिंटिंग का इतिहास 1856 में शुरू होता है, जबकि पुर्तगाल से ईसाई मिशनरी ने गोवा में पहला प्रिंटिंग प्रेस लगाया था. इस प्रेस ने 1877 में एक पुर्तगाली किताब का तमिल अनुवाद छापा था. पहली बार तब कोई चीज भारतीय भाषा में प्रिंट हुई थी. लेकिन उसके बाद अगले 200 सालों तक भारत में किसी भारतीय ने प्रिंटिंग प्रेस की दुनिया में कदम नहीं रखा था. हालांकि यूरोप से व्यापारी भी भारत आकर कारोबार जमाने लगे थे. ईस्ट इंडिया कंपनी भी भारत में आकर टिक चुकी थी. दक्षिण में हालैंड और फ्रांस अपने उपनिवेश बनाने की होड़ में थे. मुगल दरबार में तब किताबें हाथ से कैलियोग्राफी करके ज्यादा लिखी जाती थीं. 

पता नहीं लखनऊ में अब किसी को उनका नाम भी मालूम होगा या नहीं. हालांकि यूपी की राजधानी में एक मार्ग उनके नाम पर भी है. उनका नाम मुंशी नवल किशोर था. उन्हें भारतीय प्रिंटिंग का प्रिंस कहा जाता है. एशिया का सबसे पुराना छापाखाना उन्होंने लखनऊ में स्थापित किया था. पहले छोटा और फिर खासा आधुनिक, जिसमें ब्लैक एंड व्हाइट से लेकर कलर तक एक से एक किताबें छपीं.

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मुंशी नवल किशोर अपने लेखनी के लिए जाने जाते थे। वे बहुआयामी व्यक्तित्व और बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे। उनकी बचपन से ही समाचारपत्रों और व्यापार में रूचि थी। उन्होंने हमेशा मानव मूल्यों का सम्मान किया। आजादी के पहले के लेखकों के लिए वे एक रोल मॉडल थे। उन्होंने आजादी के पहले के उत्तर प्रदेश के लेखकों को नई पहचान दी थी। मुंशी नवल किशोर अंग्रेजी शासन के समय के भारत के उद्यमी, पत्रकार एवं साहित्यकार थे। उनकी जिंदगी का सफर कामयाबियों की दास्तान है। शिक्षा, साहित्य से लेकर उद्योग के क्षेत्र में उन्होंने सफलता हासिल की थी, जो बात उनमें सबसे उल्लेखनीय थी वह यह थी कि उन्होंने हमेशा मानव मूल्यों का सम्मान किया। वे अपनी लेखने से आज के लेखकों में भी सम्माननीय हैं।

 

भारत आए थे शाह ईरान भी उनसे मिलने 

मुंशी नवल किशोर का उद्योग के क्षेत्र में भी अपना योगदान है। 1871 में उन्होंने लखनऊ में अपर इंडिया कूपन पेपर मिल की स्थापना की थी जो उत्तर भारत में कागज बनाने का कारखाना था। शाह ईरान ने 1888 में कलकत्ता में पत्रकारों से कहा कि हिंदुस्तान आने के मेरे दो मकसद हैं एक वायसराय से मिलना और दूसरा मुंशी नवल किशोर से। कुछ ऐसे ही ख्यालात लुधियाना दरबार में अफगानिस्तान के शाह अब्दुल रहमान ने 1885 में जाहिर किए थे।

बहुआयामी व्यक्तिव और बहुआयामी सफलताओं को अपने में समेटने वाले इस पत्रकार, साहित्यकार और उद्यमी का 19 फरवरी 1895 को निधन हो गया। वे आज के लेखकों के लिए भी प्रेरणास्रोत हैं।