बुझे चूल्हे, बस्तियां और औरतें

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By Akanksha JainPublished On: July 20, 2020
Shravan Garg

अंगारे थे अभी भी ढेर सारे बाक़ी
अभागी हथेलियों पर धधकते हुए
पता ही नहीं चला और बंट भी गए
सारे के ही सारे चूल्हे आपस में !

बांट ली गईं हैं सारी बस्तियां भी
लगा दिए गए हैं निशान घरों पर
फहरा दिए हैं झंडे झोपड़ियों पर
मिटा दी गईं हैं पहचानें भी सारी!

छांट ली गईं हैं सारी औरतें भी!
जानती हैं औरतें अच्छे से बहुत
हैं वे अलग बुझे चूल्हों,बस्तियों से
ढूँढ ली जाती हैं वे धुएँ के बीच भी

परेशान हैं फिर भी न जाने क्यों!
हुजूर, माई-बाप सरकार हमारे ।
क्या करें इन मूरतों का छोटी-छोटी?
हैं खड़ी जो बुझे हुए चूल्हों के पास !
बजा रही हैं कुंडियां जले मकानों की,
ढूँढ रही हैं अपनी-अपनी माओं को
बैठी हैं जो उस बड़ी भीड़ में औरतों की
भींचे हुए हथेलियों से अपने चेहरों को!

श्रवण गर्ग