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Indore News : हम दरगाह में सजदा करते हैं, वे कभी मंदिर पर मत्था क्यों नहीं टेकते?

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By Shivani RathorePublished On: January 24, 2021

लेखक – पंकज मुकाती

इंदौर : शनिवार को इंदौर लिटरेचर फेस्टिवल कुछ अलग रंग में दिखा। होना भी था। आखिर मामला ‘उफ्फ ये मौलाना’ का था पत्रकार, लेखक विजय मनोहर तिवारी की इस किताब वाले सेशन पर तालियां भी बजीं और सवाल भी खूब उठे। किसी लेखक के लिए ये दोनों ही ऊर्जा का सबब है। मंच पर पूरे वक्त विजय मनोहर तिवारी अपने लिखे पर कायम रहे। इसका कारण शायद ये रहा कि पत्रकार होने के नाते वे इस बात से पूरी तरफ वाकिफ रहे कि जो भी लिखा है, वो तथ्यों के साथ है। ऐसे में जो लिखा उस पर पलटकर क्या देखना।

Indore News : हम दरगाह में सजदा करते हैं, वे कभी मंदिर पर मत्था क्यों नहीं टेकते?

विजय मनोहर तिवारी एक विशेष तरह का हिंदूवादी झुकाव वाला लेखन करते हैं। डायरी रूप में लिखी इस किताब और उस किताब तक आने की बदलती मान्यता को भी उन्होंने समझाया। तिवारी ने बताया कि बचपन में वे अपनी माँ के साथ मंदिर जाते थे, रास्ते में एक दरगाह पर मां ने उन्हें मत्था टेकना सिखाया। वे बरसों तक दरगाह पर सजदे के बाद मंदिर जाते रहे। पर थोड़ा बड़ा होने पर उन्होंने मां से पूछ ही लिया-हम यहां झुककर सलाम करते हैं कभी ‘वो’ मंदिर पर मत्था क्यों नहीं टेकते? मां ने उन्हें जवाब दिया ज्यादा दिमाग मत लगाओ। पर तिवारी इस सवाल का जवाब आज तक तलाश रहे हैं। शायद, मौलाना भी उसी जवाब की तलाश में निकला एक और सवाल है। हालांकि तिवारी बार बार कहते हैं, कि मैं मानता हूं कि इस देश में सबको साथ लेकर चलने के वे खिलाफ नहीं हैं, पर ये साथ दो तरफ़ा होना चाहिए।

उफ़ ये मौलाना दरअसल वह किताब है जिसमें कोरोना काल की कुछ घटनाओं की रिपोर्टिंग हमें कभी हज़रत निज़ामुद्दीन के समय से जोड़ती है तो कभी नालंदा के जलते पुस्तकालयों का सफर करवाती है। इस किताब पर जब विजय मनोहर तिवारी पूरे अधिकार से बात करते हैं तो हर पल दो पल मे आप एक नए तथ्य से रू ब रू होते हैं। सेशन को संचालित करते हुए जयश्री पिंगले ने बार-बार ये कुरेदने की कोशिश की कि ये एकतरफा लेखन तो नहीं। पर अपने लिखे पर अटल रहने वाले तिवारी इसमें जरा भी नहीं उलझे। ये कहकर इस कठघरे से बाहर निकल गए कि ये किसी धर्म के खिलाफ नहीं है, एक विचार के खिलाफ है।

बात इंदौर के टाट पट्टी बाखल में डॉक्टर्स पर हुए पथराव से शुरू हो या मौलाना शाद के अब भी छुपे होने के मुद्दे से खत्म हो। पूरे समय ऐतिहासिक तथ्यों, दर्ज घटनाओं और बेबाक शैली से तिवारी वह कह जाते हैं जिसे अमूमन कहने से बचने की कोशिश होती है। प्रश्न एक होता है और उसके जवाब में तिवारी दस प्रश्न खड़े कर देते हैं। आखिर एक सवाल आता है कि हम समाधान क्या दे सकते हैं और जवाब आता है कि खुद ‘ मौलाना…’ में लेखकीय कोशिश है समाधान की, लेकिन फिर सवाल वही कि समाधान तलाशने में वो क्यों आगे नहीं आते जो हर पल एक अलग पहचान के लिए बेताब हैं?

इतिहास बोध, पत्रकारिता की सीख और देश भर के पर्यटन से विजय मनोहर तिवारी का विजन तो साफ है ही साथ ही घटनाओं को लेकर प्रामाणिक जानकारी से भी उन्हें सुनना रोचक होता है। अपनी पिछली पांच पुस्तकों से इस किताब की तुलना पर भी वे बेबाकी से बोलते हैं और अपने विषय पर तो वे जमे है रहते हैं। जयश्री पिंगल ने आखिर तिवारी के तेवरों को एंग्री यंग मैन बताया तो उन्होंने सहजता से इसे स्वीकार भी कर लिया लेकिन यह ” उफ़ ये मौलाना ‘ लिखने वाला ही जानता है कि इन तेवरों के लिए उन्हें किन किन तेवरों से जूझना पड़ता है।