उफ ये तस्वीरें और ये खामोशी

ये कैसा रण है और किसके खिलाफ है। गोलियों का शोर, चीखें और खून के फव्वारे। इस बात को स्वीकार करना ही मुश्किल है कि ये 21वीं सदी के किन्ही आदमजात की करतूत हो सकती है। क्या ही दृश्य हैं, एक-एक तस्वीर कलेजा चीर रही है। एक-एक चीख कानों में सीसा घोल रही है। संसद से लेकर राष्ट्रपति भवन तक बंदूकधारियों की तफरीह की ये तस्वीरें। गलियों में हो रही मुनादी की तस्वीरें। बच्चों, महिलाओं के चेहरे, उनके बयान। कहीं सीने में कोई पत्थर भी हो तो बिना पिघले न रह पाए। मगर क्या ही अफसोस करें कि पूरी दुनिया तमाशबीन बनी बैठी है। उन्हें क्या कहें, जो अपने लालच में इस कत्लोगारत को समर्थन देने को तैयार हैं। ये सत्ता के लालच की पराकाष्ठा नहीं तो और क्या है। जमीन के एक टुकड़े के लिए और कितना गिरोगे।

क्या तुमने देखी नहीं एयरपोर्ट की वे तस्वीरें। कैसे लोग टूट रहे हैं। जान की परवाह किए बगैर किसी भी तरह वहां से निकलने पर आमादा हैं। कैसे लटक रहे हैं विमान की सीढ़ियों पर। कैसे पहियों से चिपट कर भागने की जानलेवा कोशिश कर रहे हैं। किस कालखंड में जी रहे हो ? औरतें पढ़ नहीं सकती, नौकरी नहीं कर सकती, अपना बिजनेस नहीं चला सकती, बिना पुरुष के घर से बाहर नहीं निकल सकती, बिना बुर्के के नहीं रह सकती। बस सिर्फ तुम्हारी सेक्स स्लेव बन सकती है। उसे चौराहों पर भेड़-बकरियों से भी बुरी हालत में नीलाम करने में तुम्हे गुरेज नहीं है। गोलियों से छलनी करने में तुम्हे ऐतराज नहीं है। जबरिया शादी कर उन्हें आतंकियों के साथ सोने पर मजबूर करके तुम किस ऊपरवाले के प्रति अपना फर्ज अदा कर रहे हो।

दफ्तर-दफ्तर ढूंढ रहे हो, गली-बाजारों में पागल कुत्ते की तरह भटक रहे हो। खोज रहे हो, कहीं कोई औरत काम करते न दिख जाए, पढ़ते न दिख जाए। कोई पत्रकार, मानव अधिकारों का हिमायती, कोई एनजीओ का सदस्य न टकरा जाए। तुम्हारी बर्बरता के आगे तो दुनिया के सबसे खूंखार जानवर और वह आदि मानव भी शर्म से डूब मरे, जिसे किसी बता का इल्म ही नहीं था। समझना मुश्किल है कि ये सोच और इन विचारों को तुम कैसे 21वीं सदी तक घसीट कर लाए हो। और इनके बूते पर दुनिया पर राज करना चाहते हो।

उफ ये तस्वीरें और ये खामोशी

ये भी समझना मुश्किल है कि 20 साल से जो अफगानिस्तान की हिफाजत का दम भर रहे थे, वे भी वहां आखिर कर क्या रहे थे। उनके राज में भी महिला साक्षरता सिर्फ 24 फीसदी रही। कामजाजी महिलाओं का आंकड़ा भी 21 फीसदी से थोड़ा ही ऊपर जा पाया। फिर सबसे बड़ा सवाल उनका सुरक्षा घेरा ताश के पत्तों के महल की भांति इतनी जल्दी ढह कैसे गया। तीन लाख की मजबूत अफगानी सेना ने इतनी आसानी से घुटने कैसे टेक दिए। हुक्मरानों का तो यही इतिहास रहा है कि वे मुसीबत के वक्त मुल्क छोड़कर भागते फिरे हैं, उनसे कोई उम्मीद करना ही बेमानी है। वे तो और भी तर्क गढ़ लेंगे कि वे मुल्क की हिफाजत करने में भले विफल रहे, लेकिन खून खराबा रोकने के लिए ही वहां से सरपट भागे हैं।

तालिबान जिसका मतलब छात्र होता है, उन्हें तो मैं शिकायत के लायक भी नहीं समझता, मगर दुनिया के सारे हुक्मरान कहां मर गए हैं। वो तमाम संगठन और संस्थाएं जो मानवाधिकार की दुहाई देती नहीं थकती हैं। वे कहां जाकर छुपी हैं। बयानों की खंदक में कब तक खुद को छुपाए रखोगे। क्या दुनिया में किसी के पास इतनी ताकत नहीं कि जाकर खड़ा हो जाए और कह सके कि मियां बंद करो ये कत्लेआम। इंसानियत का कत्ल करके कौन सी दुनिया आबाद करना चाहते हो। ये किसी ईश्वर का फरमान नहीं हो सकता है। किसी खुदा के बंदे का पैगाम नहीं हो सकता है। अगर जरा भी ईमान बाकी है तो बंद करो बर्बरता का ये नंगा नाच।

हम कभी ऐसी दुनिया नहीं चाहते हैं, हम कभी ऐसी तस्वीरें नहीं चाहते हैं और न हम कभी ऐसी खामोशी चाहते हैं।

#अमितमंडलोई