इंदौर की सड़कों पर ट्रेफिक जाम लगना एक रोजमर्रा की समस्या बन चुका है, दशकों बीत जाने के बाद भी इस समस्या का स्थाई हल किसीको नहीं सूझ रहा है। कौन ज़िम्मेदार है रोज रोज, जगह जगह लगने वाले इस जाम के लिए। पूछिए किसी से भी, जवाब मिलेगा दोषी है सरकार, पुलिस, प्रशासन, नगर पालिका, व्यवस्था, रोड इंजीनियरिंग, दूसरे वाहन चालक, सड़कों के गड्ढे, खराब ट्रेफिक सिगनल, गलत स्पीड ब्रेकर, गलत रोड डिवाइडर, गलत रोड मार्किंग आदि, बस मुझे छोड़कर हर कोई दोषी है इस समस्या के लिए।
आइए इसको सिलसिलेवार ढंग से समझते हैं। 1947 में आजादी मिलने से पहले हम सदियों तक गुलाम रहे थे। आजादी के अंतिम संघर्ष में हम अंग्रेज सरकार के खिलाफ थे। कई दशकों तक चले इस खूनी संघर्ष को क्रांति कहा गया इस दौरान हम सब सरकार को कोसते थे, अंग्रेजों के बनाए नियमों को तोड़ते थे (सही या गलत दोनों को) और ऐसा करने वाले को सम्मान और गौरव के साथ क्रांतिकारी कहा जाता था। सरकार से संघर्ष करना, सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों पर हमला करना, पुलिस के प्रति घृणा और शत्रुता का भाव रखना, नियम कायदों की अवज्ञा करना एक राष्ट्रीय गौरव की बात समझी जाती थी।
सदियों से हम यही करते आए थे और आज स्वतंत्रता मिलने के 75 वर्षों बाद भी हम भारतीयों के अवचेतन में वही गुलाम मानसिकता छुपी है। आज भी हम सरकार, उसके कारिंदों, पुलिस आदि के प्रति अच्छे भाव नहीं रखते। आज भी नियमों को तोड़ने और कानून को ठेंगा दिखाने में गर्व और गौरव महसूस किया जाता है। आज ट्रेफिक के नाम पर शहर की सड़के निर्लज्ज, स्वार्थी और धूर्त, फैंसी भाषा में कहें तो स्मार्ट वाहन चालकों से अटी पड़ी है। अधिकतर वाहन चालक येन केन प्रकरेण स्मार्टनेस दिखाकर अपने आगे वाले वाहन से आगे निकलने के लिए दाए, बाए जहां भी जरा भी जगह दिखाई पड़े वहां अपना वाहन घुसाकर सबसे पहले निकल जाने को संघर्ष मानते हैं और इस प्रयास में सफलता को अपनी वीरता मानते हैं। बाद में अपनी मित्र मंडली में बड़े गर्व से सबको पीछे छोड़कर आगे निकल आने का किस्सा सुनाते हैं जिसे सब श्रोता मंत्रमुग्ध भाव से सुनते हैं और स्वयं भी ऐसा करने की प्रेरणा पाते हैं।
वस्तुत: देश आजाद हो जाने के बाद किसीने हमें बताया ही नहीं कि यह हमारा अपना देश है, अब हमारी अपनी सरकार है और अपनी सरकार के प्रति शत्रुता का भाव रखकर उसके द्वारा बनाए गए नियमों को तोड़ना अब देशभक्ति नहीं कहलाता, अब हम क्रांतिकारी नहीं है, अब हमारी अपने देश के प्रति, राष्ट्र निर्माण के प्रति गंभीर जिम्मेदारियां है। हम तो सदियों से सरकार से संघर्ष करते आए है। आगे भी करते रहेंगे। नागरिक बोध गया चूल्हे में, सीवीक सेंस गया भाड़ में। देश जाए गारत में। मैं सबसे आगे निकल जाऊं बस यही मेरा एकमात्र ध्येय है। उसके लिए मुझे चाहे लात बत्ती को बत्ती देना पड़े, चाहे रांग साइड में घुसना पड़े, चाहे दूसरी या तीसरी या चौथी लेन में घुसना पड़े, चाहे फुटपाथ पर वाहन चढ़ाना पड़े, चाहे किसीको गलत तरीके से ओवरटेक करना पड़े, चाहे जो भी करना पड़े मै वो करूंगा।
तो सबसे पहले जरूरत है हमें स्वयं को बिगड़ने से बचाने की, अपनी संतानों को विकृत होने से बचाने की, उनमें अच्छे संस्कार रोपने की, उनको अच्छी शिक्षा देने की। गलत को गलत कहने की। यह एक सामूहिक जिम्मेदारी है जिससे हम सब पूरी बेशर्मी से मुंह छुपाते आए है और आगे भी छुपाते रहेंगे और यूं ही संघर्ष करते रहेंगे अनादि काल तक। रहती दुनिया तक हम सब बुरे लोग मिलकर एक अच्छी दुनिया के निर्माण के झूठे सपने देखते रहेंगे। और यूं ही अपने ही लगाए स्वनिर्मित जाम में फंसते रहेंगे। यही हमारी नियति है … शायद।
– राजकुमार जैन, स्वतंत्र विचारक