आदिल सईद
इंदौर भोपाल भी ताकझांक करता है मुनव्वर राना की शायरी में यादें बाकी मुनव्वर राना सिर्फ जज़्बाती शायर ही नहीं थे बल्कि उनका समाज से गहरा नाता था और उनका नाता तो इंदौर से भी मजबूत था, इसीलिए उनकी शायरी में इंदौर भी नज़र आता है ज़रा गौर से पढ़िए मंजिल करीब आते ही मेरा पांव कट गया, चौड़ी हुई सड़क तो मेरा गांव कट गया, इंदौर से भोपाल और आसपास का सफर करने वाले मुसाफ़िर इस शेर को समझ सकते हैं, कहते है साहित्य समाज का आईना होता है और सरकारी नक्कारे के बीच वो आम आदमी की आवाज़ जोरदार तरीके से उठता है, जब जवानी से भरपूर शहर विकास की राह पर इठलाते हुए चलता है तो कई आशियानों को अपने पैरों तले रौंद देता है.
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लेकिन अखबारों से ये ख़बर ओझल हो जाती है, जिसे मुनव्वर राना इस तरह बयां करते हैं हम नहीं जानते, वे सारे कहां जाते हैं, जिनके घर गिरते हैं बेचारे कहां जाते हैं, सोचना होगा, हमें आपको, सबको ये मिलकर राख होते हैं, तो अंगारे कहाँ जाते हैं ये तो था मुनव्वर राना की शायरी में इंदौर, अब बात करते है इंदौर से लगाव की तो शरद डोसी की अगुवाई में हुए भरोसा न्यास के मुशायरे के साथ ही उनका इंदौर से लगाव गहराता गया और इंदौर में जिनके साथ उनका सबसे गहरा नाता रहा उनमें सबसे ऊपर नाम अरविंद मंडलोई का है जब भी आए उन्ही की मेहमान नवाज़ी में रहे, राना घुटने की तक़लीफ़ से ताउम्र जूझते रहे, जिसका इलाज़ उन्होंने इंदौर में भी करवाया, तब उनके लिए खाने का इंतज़ाम वरिष्ठ पत्रकार और इंदौर में मुशायरो को उरूज़ देने वाले हिदायतुल्लाह खान के घर से भी इसलिए होता था, कि राना नॉनवेज खाने के शौकीन थे और हिदायतुल्लाह खान से उनकी बेतकल्लुफ़ी भी थी.
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उसी दौर में वरिष्ठ पत्रकार राजेश राठौर भी मुनव्वर राना के करीबियों में रहे, फिर तो जब भी मुशायरे में राना की शिरकत हुए राजेश राठौर की मुलाकात जरूर हुई. मुनव्वर राना की शायरी में समाज का जो दर्द झलकता था, वो उन्हें अरविंद मण्डलोई के ज़रिए शंकर गंज जिंसी की रूपांकन लाइब्रेरी भी ले गया और राना का इंदौर से रिश्ता गहराता गया, लेकिन यहां खजराना का ज़िक्र न करना भी ज्यादती होगा कि रानीपुरा, नयापुरा के बाद अब इंदौरी अदब ने खजराना में अपना ठिया लिया है, तो मुनव्वर के हज़ारों चाहने वाले खजराना में भी उनके अशआर गुनगुनाते मिल जाते हैं. हिंदुस्तान के ऊर्दू अदब से दुनिया को रूबरू करवाने वाले राहत इंदौरी से मुनव्वर की दोस्ती थी दोनों जब स्टेज पर होते तो मुशायरे की कामयाबी की ज़मानत मिल जाती थी, आखरी बार यूनिवर्सिटी ऑडिटोरियम में जो मुशायरा हुआ, उसमें राना ऐसे सुना रहे थे कि दिल पसलियों की कैद से आज़ाद होकर हथेली पर तड़पने लगा था, सुनने वालों में पाकीज़ा के इक़बाल गौरी भी थी, शायरी की समझ रखते हैं, सुनते हैं और इंतखाब सुना भी देते हैं, कह उठे थे आज तो बाबा रुला ही देंगे….अलविदा मुनव्वर आपकी शायरी क़यामत तक रोशनी फैलती रहेगी.