भाजपा: पुण्याई अभी शेष, कांग्रेस: दुर्भाग्य अभी बाकी

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बिखरा बिखरा ढीला चुनाव। बूथ प्रबंधन फेल। अनमने नेतागण। अनुभवहीन नगर संगठन। नया उम्मीदवार। नाउम्मीद नेताओ की भरमार। विधायको की मनमानी। परस्पर अंतर्विरोध। गुटबाजी। भितरघात की आशंकाएं। बड़े पैमाने पर हुई बगावतें। निर्दलीय उम्मीदवार। अनुभवी नेताओ-कार्यकर्ताओ की अनदेखी। लावारिस मतदान का दिन। फिर भी…इतनी बड़ी जीत…!!!

यानी भाजपा की पुण्याई अभी इस शहर में शेष है। “पुरखो की कमाई” से ये विजय आई। पीढ़ी परिवर्तन की पहली बड़ी जीत, पुरानी पीढ़ी के पुरुषार्थ के दम पर आई जो तिल तिल कर संगठन पार्टी के लिए समर्पित हो गए। पहले जनसंघ की दीपक प्रज्वलित करने में होम हो गए और अब कमल खिलाने में समर्पित। कई बिसरा दिए गए। कई हाशिये पर पटक दिए। पांच सितारा कार्यशैली को पसन्द करने वाला नगर संगठन इस जीत का श्रेय न ले ओर न अपनी पीठ स्वयम की थपथपाए। बूथ प्रबंधन का उसका तो सबसे बड़ा अभियान ही मतदान वाले दिन दम तोड़ गया था। बूथ की 20 सदस्यीय कार्यकारिणी तो दूर, बूथ अध्यक्ष ही नजर नही आये। खुलासा फर्स्ट जन सब कमियों ओर नाकामियों का पोस्टमार्टम कर चुका है जो पार्टी के बड़े नेताओं और जमीनी कार्यकर्ताओं ने स्वीकार भी किया। आज बात सिर्फ जीत की। ओर ये जीत इस शहर की जीत है।

जनता की जीत है। उन मतदाताओ की जीत है जो स्वस्फूर्त घर से निकले और वोट डालकर आये। उन परिश्रमी कार्यकर्ताओं की जीत है जो पार्टी में तो देवदुर्लभ कहा जाता है लेकिन जिसकी चिंता दुर्लभ ही होती है। ये जीत आरएसएस के उन स्वयंसेवको भी है जिन्होंने ” सनातन” के लिए स्वयम को इस चुनाव में झोंक रखा था। जीत नई पीढ़ी की उस भाजपा की भी है जो निस्वार्थ भाव से काम पर लगी थी…बजाय ” लाइजेनिग” करने के। उस मातृ शक्ति की भी है जो घर गृहस्थी के बीच ये जानते हुए भी कमल दल के लिए मैदान में पसीना बहाती रही कि वक्त आने पर फिर से नेताओ की पत्नियां, बेटियां, भाभियाँ, माँ, बहने टिकिट ले उड़ेगी। भाजपा के लिए अभी भी वक्त है। जीत से आत्ममुग्धता ओढ़ने की बजाय जमीनी हालात पर चिंतन मन्थन हो। “अनुभव” को दरकिनार करने की बजाय बगल में खड़ा करना होगा…जब तक नई पीढ़ी ” जवान” नही होती। जीत तो कैलाश विजयवर्गीय की भी है जिनके एकाकी प्रयास आखिरकार रंग लाये। रमेश मेंदोला मधु वर्मा जैसे नेताओं की भी है जो प्रबल दावेदार थे लेकिन उतने ही शिद्दत से चुनाव प्रबन्धन किये हुए थे। कृष्णमुरारी मोघे, बाबूसिंह रघुवंशी सुरेश बंसल जैसे पुराने नेताओं की भी है जो मान सम्मान से परे रहकर पसीना बहाते रहे। ओर सबसे बड़ी जीत तो अहिल्या नगरी ओर उसके बाशिंदों की है जो नगर निगम की तमाम कमियों और मैदानी अराजकताओ के बावजूद अपने शहर के विकास से मुँह नही फेर पाये।

कांग्रेस: दुर्भाग्य अभी बाकी

प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार और मेरे मार्गदर्शक रमण रावल सर ने मेरे लिखे पर जो बहुत सुंदर प्रतिक्रिया दी थी…ये पंच लाइन उसी का हिस्सा है और ये ही कांग्रेस का किस्सा भी है की कांग्रेस का दुर्भाग्य अभी शेष है। अन्यथा क्या कारण है कि एक ओर पराजय पार्टी के खाते में दर्ज हो गई। अच्छा उम्मीदवार। खिलखिलाता उम्मीदवार। सशक्त ओर मालदार उम्मीदवार। वक्त से पहले घोषणा। समय से पहले मैदानी मशक्कत। वार्डवार जमावट। भारी भरकम निजी टीम। परिश्रमी ओर समर्पित मित्रो का समूह। गली मोहल्लों- बस्ती कालोनियों ओर बाजरो में कदमताल। सोशल मीडिया पर बढ़त। “मैनेज” प्रचार तंत्र ओर पेड़ वर्कर के रूप में कलमे, कलमकार। बेहतरीन जमीनी मुद्दे। मतदाता के मन तक पहुंचती बातें। धन का निर्बाध प्रवाह। एकला चालो रे की रणनीति भी असरकारी।मतदान भी मन मुताबिक। फिर भी हार। इतनी बड़ी हार। स्वयम की विधनासभा से हार। वह भी 20 हजार की हार। सभी विधनासभा से हार। अपवाद स्वरूप 5 नम्बर विधनासभा की मामूली बढ़त छोड़ दो तो राऊ जैसे 10 वार्डो वाली विधनासभा में 30 हजार की हार…!! सदमा तो देती है और देगी भी। बहुत समय तक। सोचने को भी मजबूर करेगी। कई महीनो तक।

लेकिन सिर्फ संजय शुक्ला को। उनके परिजनों को ओर उनके खास साथियों को। कांग्रेस के लिए तो ये शायद ही चिंता और चिंतन का विषय हो? क्योकि वहां तो केवल इसी बात की चिंता थी कि ” ये संजू आगे नि निकल जाए”….!! ओर ये ही तो कांग्रेस का दुर्भाग्य है। नही तो क्या।कारण था कि पूरे चुनाव में शुक्ला अपने दम पर किला लड़ाते रहे। बड़े नेता साथ देना तो दूर घात देने में भी पीछे नही रहे। और परिणाम सामने है। बस अच्छा एक काम हुआ। मरी हुई कांग्रेस का जमीनी कार्यकर्ता जिंदा हो गया। और इसका श्रेय संजय शुक्ला को जाता है….बशर्तें वो इस हार के बाद घर न बेठे। जैसे पंकज संघवी बैठ जाते है। सत्तू पटेल शोभा ओझा सुरेश मिंडा आदि बैठ गए। ऐसे बैठना मत। उठो और ” गांधी भवन” में जा बेठे। कांग्रेस की नगर इकाई को ऐसे ही व्यक्ति की दरकार है….अन्यथा दुर्भाग्य तो बरकरार है ही।