यूपी: प्रियंका का महिलाओं पर दांव: कितना जमीनी, कितना खयाली?

Pinal Patidar
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ajay bokil

अजय बोकिल
उत्तर प्रदेश विधानसभा के आसन्न चुनाव में कांग्रेस क्या v और कैसा प्रदर्शन करेगी, इसको लेकर देश में बहुत उत्सुकता भले न हो, लेकिन कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने एक अहम ऐलान कर सबका ध्यान जरूर खींचा है। वो ये कि कांग्रेस 2022 के विधानसभा चुनाव में 40 फीसदी टिकट महिलाअों को ही देगी। प्रियंका ने एक पत्रकार वार्ता में ऐलान किया कि अगर उनके बस में होता तो वो 50 फीसदी टिकट महिलाअों को देतीं। उनका यह फैसला राज्य में महिला सशक्तिकरण की आकांक्षा से प्रेरित है। अब महिलाएं यूपी में प्रियंका और कांग्रेस के साथ कितनी आती हैं, यह चुनाव नतीजों से ही स्पष्ट होगा। खासकर तब कि जब पार्टी राज्य में सत्ता की दावेदारी से कोसो दूर है और अपना वजूद कायम रखने के लिए लड़ रही हो।

प्रियंका गांधी का यह ऐलान कई मायनों में दिलचस्पी है। पहला तो यह कि यह घोषणा उस पार्टी की नेता ने की है, जिसके उत्तर प्रदेश की निवर्तमान विधानसभा में महज 7 सात विधायक हैं और उनमें भी महिलाएं केवल 2 हैं। इन 2 में से भी 1 अदिति सिंह बागी हो चुकी हैं। प्रियंका की घोषणा पर अदि‍ित का पलटवार था कि यूपी में महिलाअों को मजबूत करने से पहले प्रियंका (पार्टी में) खुद को तो मजबूत कर लें। विस चुनाव में महिलाअों को 40 फीसदी‍ टिकट देने की यह घोषणा उस पार्टी की तरफ से आई है, जिसका पिछले विधानसभा चुनाव में वोट शेयर महज 6.2 फीसदी था।

यह पहल उस पार्टी की अोर से हुई है, जिसकी अध्यक्ष भले ही एक महिला यानी श्रीमती सोनिया गांधी हों, लेकिन ‍िजसकी 22 सदस्यीय कार्यसमिति में केवल 2 तथा 26 स्थायी आमंत्रित सदस्यों में मात्र 2 महिलाएं सदस्य हैं। कार्यसमिति के 9 विशेष आमंत्रितों में महज 1 महिला सदस्य श्रीमती सुष्मिता देव हैं, वो भी अब बागी होकर तृणमूल का दामन थाम चुकी हैं। हालांकि कांग्रेसी तर्क दे सकते हैं, जिस पार्टी की अध्यक्ष ही महिला हो, वहां बाकी पदों पर महिलाअों की न्यून उपस्थिति ज्यादा मायने नहीं रखती।

बहरहाल कांग्रेस विधानसभा चुनाव में जैसा भी परफार्म करे, 40 परसेंट टिकट महिलाअों को देना अपने वजूद के लिए जूझ रही किसी कंपनी के बम्पर ‘दिवाली आॅफर’ से कम नहीं है। बशर्ते लोग उसे भाव दें। लोग सवाल उठा रहे हैं कि आखिर इतनी महिला उम्मीदवार कांग्रेस को मिलेंगी कहां से? भारतीय राजनीति में दो-तीन मुख्य दलों को छोड़ दिया जाए तो बाकी दलों के दरवाजे टिकटार्थी अमूमन चौतरफा नाउम्मीदी या फिर किसी सौदेबाजी के तहत ही आते हैं। और कांग्रेस में ऐसा क्या है कि महिला टिकटार्थियों की लाइन लग जाए? फिर भी प्रियंका की घोषणा को गंभीरता से लेने की जरूरत है, क्योंकि यूपी में महिला वोटरों की संख्या लगभग आधी यानी यूपी के कुल 14.61 करोड़ वोटरों में 6.70 करोड़ वोटर महिलाएं हैं।

आंकड़े बताते हैं कि 2019 के लोकसभा चुनाव में यूपी में एक-तिहाई से ज्यादा जिलों में महिलाओं का वोटिंग प्रतिशत पुरुषों से कहीं ज्यादा था। खासतौर पर बुंदेलखंड, पश्चिम और पूर्वांचल के कई जिलों में महिलाएं पुरूषों की तुलना में ज्यादा वोट किया। इसलिए माना जा रहा है कि महिलाअोंको रिझाने के लिए कांग्रेस ने यह दांव खेला है। यह बात दूसरी है कि तृणमूल कांग्रेस ने इसे कांग्रेस द्वारा उसकी ही पहल की नकल करार दिया है। गौरतलब है कि तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी ने 2019 के लोकसभा चुनाव में 40 फीसदी टिकट महिलाअों को दिए थे। चुनाव में जो जीतकर आए, उनमें महिला प्रत्याशियों की संख्या 41 फीसदी थी। इसका अर्थ यह हुआ कि महिलाअों को ‍िटकट देने का दांव भी तभी सफल हो पाता है, जब पार्टी के पास दमदार नेतृत्व और मजबूत संगठन हो।

खुद प्रियंका इन कसौटियों कर कितना खरा उतरेंगी, अभी कहना मुश्किल है। खुद उन्होंने अभी तक कोई चुनाव नहीं लड़ा है। यूपी विधासभा चुनाव में भी वो उतरेंगी या नहीं, तय नहीं है। अलबत्ता वो मैदानी राजनीति करने की कोशिश जरूर कर रही हैं। गांधी परिवार का आभा मंडल उनके पास है। लेकिन चुनाव जिताने के लिए इतना ही काफी नहीं होता।
यहां सवाल यह भी है कि बतौर वोटर महिलाएं किस बात को ध्यान में रखकर वोट करती हैं? क्या सिर्फ इसीलिए ‍िक फलां पार्टी की नेता महिला है या ‍उसकी उम्मीदवार महिला है? अमूमन महिलाएं पुरूषों की तुलना में कुछ अलग मानस के साथ वोट करती हैं, उसमे सुरक्षा का मुद्दा सबसे अहम होता है।

शायद इसीलिए लोकसभा चुनाव में अधिकांश हिंदू महिलाएं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी में अपना संरक्षक खोजती हैं तो राज्यो के विधानसभा चुनाव में वो कभी ममता बनर्जी, कभी नी‍तीश कुमार, कभी नवीन पटनायक,कभी शिवराजसिंह चौहान तो कभी पी. विजयन में अपना संरक्षक ढूंढती हैं। यूपी में यह हैसियत योगी आदित्यनाथ ही होगी या नहीं, यह चुनाव नतीजे बता देंगे। और इसी मुद्दे पर कितनी महिलाएं यूपी में प्रियंका गांधी के साथ खड़ी दिखेंगी, इसका केवल अनुमान लगाया जा सकता है।

इसी के साथ यह सवाल भी नत्थी है कि महिलाअो को टिकट देने का दांव खुद कांग्रेस को कितनी आॅक्सीजन देगा? क्योंकि बीते कई विधानसभा चुनावो में राज्य में कांग्रेस का राजनीतिक ग्राफ लगातार गिरता ही गया है। 1989 में राज्य में आखिरी बार सत्ता से बाहर होने के बाद कांग्रेस का वोट प्रतिशत घटते-घटते दहाई के अंक से भी नीचे चला गया है। इसका मुख्य कारण है मंडल-कमंडल, जातिवादी और साम्प्रदायिक राजनीति के चलते वोटों के ध्रुवीकरण के बीच उसकी वैचारिक और रणनीतिक विभ्रम की स्थिति।

कभी वह धर्मनिरपेक्षता की बात करती है तो कभी नरम हिंदुत्व की। कभी ब्राह्मणों को रिझाती है तो कभी दलितों या मुसलमानो को। जबकि 2017 के विधानसभा चुनाव नतीजों ने यूपी को साफ तौर पर फिरकाई लाइन पर विभाजित कर ‍िदया है। इस खांचे को कोई भी गैर भाजपाई दल तोड़ नहीं पा रहा है। प्रियंका ने महिलाअों का मुद्दा भले उठाया हो, लेकिन वो कोर मुद्दा शायद ही बन पाए। बावजूद इसके कि यूपी में महिला अत्याचार की घटनाएं बढ़ी हैं।

अगर चुनावी बैसाखी की बात करें तो कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में जिस भी पार्टी से चुनावी गठबंधन किया, वो भी फायदे के बजाए नुकसान में ही रही। इसी के चलते इस बार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस अकेले ही लड़ने पर मजबूर है। यानी अपने पैरों पर खड़े होने की उसकी यह ( शायद आखिरी) कोशिश है। विधानसभा चुनाव टिकट के लिए कांग्रेस ने अर्जियां मांगी हैं। महिलाअों की कितनी आएंगी, यह देखना भी दिलचस्प होगा।

फिर भी प्रियंका की कोशिशों और आशावादी सोच की दाद देनी होगी, क्योंकि नारी शक्ति पर भरोसा करते हुए वो यूपी में कांग्रेस को नया जीवनदान देने का सपना देख रही हैं। यह बात अलग है कि ऐसा ‘साहसपूर्ण कदम’ कांग्रेस ने उन राज्यों में कभी नहीं उठाया, जहां वो अभी सत्ता में है या प्रतिपक्ष की भूमिका में है। ऐसे में यूपी में कांग्रेस का यह ‘साहसपूर्ण फैसला’ जोखिम की दृष्टि से सबसे निरापद है।

अगर प्रियंका के नेतृत्व में कांग्रेस 403 सदस्यों वाली विधानसभा में अपनी सीटों की संख्या 7 से ज्यादा और वोट शेयर 6.7 से अधिक बढ़ा सकी तो इस कामयाबी में महिलाअों की हिस्सेदारी ही मानी जाएगी। वैसे भी यूपी विधानसभा सदस्यों में महिलाअों की भागीदारी अभी केवल 10 फीसदी ही है। इनमें भी सबसे ज्यादा 34 महिला विधायक भाजपा की हैं। संभव है कि कांग्रेस की इस पहल की राजनीतिक अनुगूंज दूसरे दलों में भी हो और वो पहले की तुलना में कुछ ज्यादा टिकट इस बार महिलाअों को दें। इतना भी हो सका तो यह चुनावी जीत भले न हो, प्रियंका गांधी की नैतिक जीत तो मानी ही जाएगी। और वो महिलाअों के हक में होगी।